रंग और उजास

रंग और उजास

शुक्रवार, नवंबर 19, 2010

किलों को जीतने की जगह ध्वस्त कर देने की उम्मीद भरी कविता...

आज यहाँ 'शीर्षक' में वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना  की ताज़ा कवितायेंकाफी अरसा हुआ नरेश सक्सेना  की एक कविता पढ़ी थी, 'सीढ़ी'.

मुझे एक सीढ़ी की तलाश है
सीढ़ी दीवार पर चढ़ने के लिए नहीं
बल्कि नींव में उतरने के लिए

मैं क़िले को जीतना नहीं
उसे ध्वस्त कर देना चाहता हूँ।


"मैं क़िले को जीतना नहीं / उसे ध्वस्त कर देना चाहता हूँ....."  छोटी सी कविता की  टनकती हुई स्पष्टता और प्रतिध्वनि हमेशा मेरे कानों में, मेरे मस्तिष्क में बनी रही है.  शायद नरेश जी की छोटी कविता में बड़े विचार का यह अद्भुत शिल्प ही है कि और बहुत कुछ इधर-उधर पढते हुए भी ये दो पंक्तियाँ हमेशा दिमाग के एक कोने में रही आईं और जब भी किसी बड़ी नारा लगाती तक़रीर को सुना या पढ़ा तो हमेशा कविता की ताकत और नरेश जी के शिल्प  ने रोमांचित किया...

नरेश सक्सेना की नयी कविताओं के साथ ये पोस्ट और वसुधा का अंक-86.. इस बार अंतराल कुछ अधिक हो गया,  इस अंतराल के एवज में कोशिश यही है कि वसुधा के नए अंक (अंक 86) की सूचना के साथ यहाँ कुछ विशिष्ट और नया-ताज़ा आप सब के साथ साझा किया जा सके..  नरेश जी की कुछ अपने अंदाज़ की छोटी-छोटी शानदार कवितायें... 
हमारे लिए यह गर्व का विषय है कि शीर्षक के मंच पर हम 'वसुधा' के सौजन्य से नरेश जी को प्रस्तुत कर पा रहे हैं.
"वसुधा के अंक" की लिंक को क्लिक करके आप अन्य प्रकाशित सामग्री की
जानकारी ले सकते हैं , सम्पादकीय पढ़ सकते हैं और 'वसुधा' से संपर्क कर सकते हैं.

नरेश सक्सेना की कविताएँ
मुर्दे
मरने के बाद शुरू होता है
मुर्दों का अमर जीवन
दोस्त आएं या दुश्मन
वे ठंडे पड़े रहते हैं
लेकिन अगर आपने देर कर दी
तो फिर
उन्हें अकडऩे से कोई नहीं रोक सकता
मज़े ही मज़े होते हैं मुर्दों के
बस इसके लिये एक बार
मरना पड़ता है।

धूप
सर्दियों की सुबह, उठ कर देखता हूँ
धूप गोया शहर के सारे घरों को
जोड़ देती हैं
ग़ौर से देखें अगरचे
धूप ऊंचे घरों के साये तले
उत्तर दिशा में बसे कुछ छोटे घरों को
छोड़ देती है.
पूछ ले कोई
कि किनकी छतों पर भोजन पकाती
गर्म करती लान,
बिजली जलाती धूप आखिऱ
नदी नालों के किनारे बसे इतने गऱीबों से क्यों भला
मुंह मोड़ लेती है.
(कविता की पहली पंक्ति कमला प्रसाद की एक टिप्पणी से)

सूर्य
ऊर्जा से भरे लेकिन
अक्ल से लाचार, अपने भुवन भास्कर
इंच भर भी हिल नहीं पाते
कि सुलगा दें किसी का सर्द चूल्हा
ठेल उढक़ा हुआ दरवाज़ा
चाय भर की ऊष्मा औ रोशनी भर दें
किसी बीमार की अन्धी कुठरिया में
सुना सम्पाती उड़ा था
इसी जगमग ज्योति को छूने
झुलस कर देह जिसकी गिरी धरती पर
धुआं बन पंख जिसके उड़ गये आकाश में
अपरिमित इस उर्जा के स्रोत
कोई देवता हो अगर सचमुच सूर्य तुम तो
क्रूर क्यों हो इस कदर
तुम्हारी यह अलौकिक विकलांगता
भयभीत करती है।
संपर्क:
नरेश सक्सेना ; विवेक खण्ड, 25-गोमती नगर, लखनऊ-226010 ; मो. 09450390241



 'प्रगतिशील वसुधा' 
के वर्ष में सामान्यतः 4 अंक प्रकाशित होते हैं,
'वसुधा' के बहुत महत्त्व के  कई विशेषांक भी चर्चा में रहे हैं.
यहाँ प्रस्तुत 'वसुधा-86' जुलाई-सितम्बर'10 का अंक है. 
अंक की प्राप्ति या सम्पादकीय संपर्क के लिए आप 
vasudha.hindi@gmail.com पर e-mail कर सकते हैं,
 0755-2772249; 094250-13789 पर कॉल कर सकते हैं,
प्रमुख  संपादक प्रो. कमला प्रसाद को 
एम.आई.जी.31,निराला नगर,भदभदा रोड, भोपाल (म.प्र.) 462003
के पते पर लिख सकते हैं.


शुक्रवार, नवंबर 05, 2010

प्रसाद और प्रेमचंद से छूटा काशी...काशी का अस्सी


काशीनाथ सिंह का नाम हिन्दी कहानी, उपन्यास और पिछले दिनों में संस्मरण विधा में अपनी विशिष्ट शैली  के लेखन से जान फूंक देने के लिए समादरित है.  पिछले दिनों में ही काशी जी  का   उपन्यास 'रेहन पर रग्घू'  काफी चर्चा में रहा है, यहाँ इस बार प्रस्तुत है उनके उपन्यास 'काशी का अस्सी' पर मूलतः 'बनास' के लिए लिखा गया एक आलेख..


काशी का अस्सी:
उपन्यास की शक्ल में एक बेचैन संस्मरणात्मक गल्प
 विवेक श्रीवास्तव.


एक अरसा हुआ, हंस में काशीनाथ सिंह के ‘देश तमाशा लकड़ी का’ या ‘संतो घर में झगड़ा भारी’ को प्रकाशित हुए। नये ढंग-ढब और जिस जीवंत भाषा में ये संस्मरण आए, साहित्य की दुनिया में लोगों ने काशीनाथ जी को संस्मरण लेखन को नया जीवन देने, नया स्पर्श देने के लिए सराहा । मुझे अपने आस-पास का जैसा कुछ याद है, हंस के कुछेक पाठक तो सिर्फ काशीनाथ सिंह को पढ़ने से पाठक बन बैठे। बनारस को यानि काशी को जानने वालों ने भी बनारस और अस्सी को नितांत आत्मीय और बेलौस अंदाज में जब काशीनाथ सिंह की कलम से जाना तो यह कुछ नया लगा! अस्सी की धुरी पर दिन और दृश्य बदलते गये, पात्र बदलते रहे पर अस्सी महानायक की तरह वही रहा, अपनी औघट संस्कृति वाला फक्कड़-अस्सी । इसी महानायक अस्सी के मूल चरित्र को लेकर अपनी तरह के खास खिलंदडे़पन के साथ काशीनाथ सिंह जी ने अपनी श्रृंखला आरंभ की। आखिर काशी का अस्सी भी, बड़े-बड़े नायकों, महानायकों के हश्र को प्राप्त हुआ। महानायक अस्सी का जो चरित्र काशीनाथ सिंह ने सामने रखा था उस के कतरा-कतरा, किरच-किरच बिखरने के करूण स्वर पर आ कर कहानी पूरी हुई और ‘कौन ठगवा नगरिया लूटल हो’ के साथ ‘अस्सी’ के ‘तुलसीनगर’ बन जाने के समूचे घटनाक्रम का असंबद्ध सा दिखता परंतु तमाम करूणा के सूत्रों से संबद्ध रूप ‘काशी का अस्सी’ उपन्यास की शक्ल में सामने आया।

संस्मरण के रूप में स्थापित, मान्य और मानक बन चुकी रचनाओं का समुच्चय और उपन्यास! प्रचलित मानकों, अर्थों और शर्तों पर इसे उपन्यास मानने में हो सकता है कुछ लोगों को कठिनाई भी हो, पर काशी का अस्सी अपनी ही शर्तों पर जीता है, और अपनी ही शर्तों पर अस्सी के महाचरित्र का आख्यान, उपन्यास के रूप में हमारे सामने है। काशीनाथ सिंह की विशिष्ट भंगिमा और भाषा का उनका विशिष्ट लेखन। तमाम नायकों से भरा पड़ा अस्सी, सब को अपनी बाहों में समेटे महानायक की तरह यहां ठसक से अड़ा-खड़ा भी दिखाई देता है और फिर पौराणिक आख्यानों और महाकाव्यों के महानायकों के ठीक विपरीत आधुनिक युग की अपनी विभीषिकाओं-विडंबनाओं से दिन-दिन जूझता और छीजता भी दिखता है। शुरूआत में लेखक का ‘मैं’ था और खंजड़ी पर गाता एक जोगी था। इसी निरगुन के साथ काशी के अस्सी का परिचय बनता है, वह अंत में फिर से आकर निरगुन पर ठहरता है- ‘कहत कबीर भजन कब करिहौ, ठाढ़ा काल हुजूर। एक दिन जाना होगा जरूर।’ पाॅंच खंडों में ‘काशी का अस्सी’ उजड़े हुए अस्सी की करूण गाथा बन जाता है। यही करूणा, अस्सी की तमाम कहानियों, तमाम चरित्रों और उसके हर मोड़ को रचनात्मक औदात्य यानि एक ऐसा स्वरूप और उंचाई देती है कि काशी का अस्सी पांच छोटी-बड़ी कहानियों, संस्मरणों के दायरे से निकलकर उपन्यास के नाम पर सामने आता है।

नायक की आवधारणा, घटनाओं की सरल रैखिकता, काल की क्रमिकता जैसे उपकरणों के सहारे विधाओं के विधायकों के लिए यह रचना, यानि उपन्यास, एक चुनौती है। अपने उठान से अंत तक के शिल्पगत, शैलीगत प्रयोगों की दृष्टि से यह एक विशिष्ट पहचान है -काशी के अस्सी की भी और- काशी के काशीनाथ सिंह की भी। ‘अपना मोर्चा’, ‘कविता की नयी तारीख’, ‘होल्कर हाउस में द्विवेदी जी’ या फिर ‘गरबीली गरीबी’ के रचनाकार काशीनाथ सिंह की रचनाओं में उनकी खूबी, उनकी एक-एक शब्द से गहरी संलग्नता और आत्मीयता के दृश्य बनाने की क्षमता है। वे अपने अंदाज में जिस घटना, दृश्य या चरित्र को छूते हैं वो चमकने लगता है। उनकी कलम जिसे छूती है वही मोहक और आत्मीय हो उठता है। हमारी संवेदनाएं उस के साथ बंध जाती हैं। वर्णन की यह आत्मीयता ही लेखक की विशिष्ट सामथ्र्य है। अंग्रेजी का सहारा लें तो काशीनाथ जी की कलम में Midas touch है। पर यहां धातुई मुर्दापन बिल्कुल नहीं, बल्कि चमक से भरा बिल्कुल जीवंत जीवन। ‘काशी के अस्सी’ में भी पप्पू की दुकान के नियमित-अनियमित अड्डेबाजों से लेकर शास्त्री जी हों या तन्नी-कन्नी सब के सब अपने ढंग से बने हुए प्रामाणिक चरित्र हैं जो जब चाहें बनारस की गलियों में ‘आइडेंटिफाई’ किये जा सकते हैं, परंतु फिर भी पूरे उपन्यास में किस्सागोई की जो खनक है उस से सब कुछ फैंटसी सा लगने लगता है। भाषा का तो कहना ही क्या है, भाषा में एक खास किस्म का बहाव देखने को मिलता है। कहन की शैली की आत्मीयता और बेलौसी के लिए बिल्कुल सधी हुई खिलंदड़ी भाषा। शुरूआत के खिलंदड़ेपन और मस्ताने अंदाज को समय की मार झेलते हुए अंत में निरगुन के रूप में सामने आना है - एक दिन जाना है जरूर। निर्मल वर्मा ने किसी संदर्भ में कहीं कहा है, (संदर्भ और स्थान ठीक से याद नहीं ) ‘उपन्यास समय के दरिया में बहता है और उसी से बनता भी है।’ अस्सी तो वहीं है और वही है, बस समय बदल गया है। कुछ समय, दरिया का कुछ पानी बह गया है और दृश्य बदल गया है। अस्सी घाट से बहती गंगा के पानी को पकड़ लेने की जिद ठानी है अस्सी के काशी ने और परिणाम की तरह हमारे सामने रखा है काशी का अस्सी।

बेलौसी से बेबसी तक के बदलाव के भीतर की तड़प के एक सूत्र ने इन छोटी-छोटी कहानियों या संस्मरणों को मजबूती से साथ बांधा है और अपने समूचे कलेवर में रचना ने उपन्यास की शक्ल अख्तियार की है। व्यापक चिंताओं, एक केंद्रीय चरित्र- अस्सी और अस्सी की संस्कृति के साथ काशीनाथ सिंह की भाषा से रचा हुआ काशी का अस्सी, उपन्यास बनता है! एक बेचैन संस्मरणात्मक गल्प! ऊपरी सतह पर जो नहीं दिखती वो बेचैनी सबसे गहरी तह में छुपा कर रखना और थोड़ी सी झलकाना, बाकी पाठकों के लिए छोड़ देना। अपने शिल्प के अनूठेपन में ही इस उपन्यास की असल ताकत है।

एक लोकेल या परिवेश के निर्वाह के साथ समूचे की चिंताओं से बनता है यह उपन्यास। एक परिवेश, एक स्थान, एक मोहल्ले को बड़े मुद्दों और चिंताओं के साथ जीवंत अंदाज में सामने रखने के लिए जिस बड़े कौशल की आवश्यकता थी वह काशीनाथ जी ने अपने लंबे लेखकीय जीवन में खूब कमाया है। परिवेश के चरित्रों से परिवेश को स्थापित कर के फिर चरित्रों को नेपथ्य में डाल देना, एक परिवेश और उसके संस्कारों, जीवन-शैली को केंद्र में रखकर उसे ‘नायक’ की आभा देकर रचा गया मुग्धताकारी गद्य, और एक अच्छा उपन्यास है काशी का अस्सी।

काशी के अस्सी की एक और सबसे बड़ी विशेषता है उसका अकुंठ स्वर। वही अंकुठ, उच्छल-उल्लसित ध्वनियां, जो अस्सी की पहचान हैं और इस उपन्यास की जान हैं, पर बार-बार याद रखने की बात है कि यह उपन्यास सिर्फ इसलिए उपन्यास नहीं है। वह अस्सी के तुलसीनगर बनने की प्रक्रिया से लेकर तन्नी गुरू की निश्छल हंसी पर पहरेदारों की नजर लगने और बांके बिहारी लाल की रूपक कथा के साथ मिल कर उपन्यास है। हमारे समकालीन सच को कभी औघड़ नंगेपन से तो कभी बिरहा गायन या निरगुन की मार्मिकता में हमारे सामने रखने वाली अपनी ही शैली की विशिष्ट रचना। लोक के सबसे आत्मीय अंदाज में, लोगों की भाषा और उन्ही के मुहावरों में उनकी ही गालियों और गलियों के बीच टहलता लेखक का ’मैं’ कभी मैं की शैली में सक्रियता से बातचीत भी करता है, और कभी आर. के. लक्ष्मण के कार्टून कॉलम के ‘कामन मैन’ की तरह हर तरफ, हर जगह, हर समय खड़ा भी है, चुप भी है और बिना बोले सब कुछ बोलता भी है। बनारस का वो बनारसी रंग जो तरंग में होता है, हमेशा, पर रंग-तरंग और भंग के बीच भी जिसकी हर बात में बड़े प्रश्न हैं, प्रश्नों के उत्तर हैं और हर बारीक बात और बातों के परिवर्तन हैं, विश्लेषण हैं। पर अंदाज ऐसा कि सब कुछ अस्सी के ठंेगे पर। फक्कड़ाना और सूफियाना अस्सी। इस अस्सी पर दुनिया के बदलाव की, बाजार की, रूपये और डाॅलर के लालच की वहशियाना नजर भी साथ-साथ।

मृणाल पाण्डे ने पूर्वग्रह के किसी अंक में उपन्यास के गुणधर्म पर बातचीत करते हुए कहा था- ‘उपन्यास साहित्य की दुनिया का संयुक्त परिवार है।’ अगर सामान्य अर्थों में मानें तो संयुक्त परिवार की अवधारणा सब कुछ समेटे हुए एक आंगन से बनती है, इस अवधारणा पर काशी के अस्सी को रख कर देखें तो कई-कई विधाओं के परिवारों को जोड़ कर बनने वाला एक संयुक्त परिवार है -एक उपन्यास- काशी का अस्सी। ये अस्सी की डायरी भी है- हंसते हुए बीते दिन, रोते हुए आते दिन। देश के एक शहर के एक मोहल्ले पर जीवंत रिपोर्ताज, हर खंड में कहानी सी तीव्रता, भाषाई सजगता, तीखा उठान और चरित्रों के साथ परिवेश का मुकम्मल कथात्मक निर्वाह, संस्मरणों की आत्मीय स्मृतियां, संलग्नता और सहजता या निबंधों की विश्लेषणात्मकता, सामाजिक-राजनैतिक मुद्दों पर सीधी और साफ दृष्टि और इन सब के साथ अपने पूरे संभार में नाटकीयता का लम्बा सधाव। आप चाहें तो कहानी पढ़ें, संस्मरण पढ़ें या फिर टेलिस्क्रिप्ट की तरह चाहें तो उठा कर शूटिंग शुरू कर दें। एक-एक दृश्य जैसे अपने रचाव में बिल्कुल साफ फ्रेम दर फ्रेम देखा जा सकता है। पूरे उपन्यास को, कम से कम मैं कह सकता हूँ, मैंने पढ़ा कम देखा ज्यादा है।

वैसे उपन्यासों में पढ़ना ज्यादा होता है देखने को वहां थोड़ा कुछ ही होता है। इस दृष्टि से यह रचना दृश्यबंधों की श्रृंखला ही है। यद्यपि कि काशीनाथ सिंह और विनोद कुमार शुक्ल के बीच कोई विशेष साम्य देखने की उत्सुकता में मैं बिल्कुल भी नहीं हूँ , परंतु क्षेपक की तरह इतना जरूर कहता चलूं कि विनोद कुमार शुक्ल फैंटेसी सी रचते हुए अपनी रचना पक्रिया के बारे में तो कहते भी यही हैं कि वे शब्दों में नहीं दृश्यों और चित्रों में सोचते है। बस उस दृश्य को सामने रखने के लिए ब्रश और रंगों के इस्तेमाल की बजाय शब्दों का प्रयोग करते हैं। बहरहाल, काशी जी का ‘काशी का अस्सी’ तो वैसे ही उनका जिया हुआ परिवेश है, उसे कब और कहां उनका कथाकार अपनी कल्पना से दृश्य को उठान देता है, जिंदा कर देता है यह देखना उनके यहां मुग्धताकारी होता है। उनका कथाकार अपनी करामात कई बार बहुत चुपके से करता है। कहाँ उन का कथाकार सक्रिय है और कहाँ  पर वे संस्मरणात्मक हो रहे हैं यह पकड़ पाना अक्सर कठिन है। ऐसे तमाम दृश्य हीरा और बुल्लू की जुगलबन्दी के बीच भी हो सकते हैं, डॉ. गया सिंह या वीरेन्द्र श्रीवास्तव, रामजी सिंह के चरित्रों में भी छुपे हो सकते हैं या पप्पू की दुकान में ही, कहीं भी। बात अगर रूपक रचने की है तो तन्नी गुरू की तो पूरी कहानी ही रूपक रचना सी है। हां, ये जरूर है कि इस कथा प्रसंग के ठीक पहले तक खुल्लम-खुल्ला शैली के प्रवाह में ये रूपक-रचाव कौशल! क्या यह वाकई रचना की आवष्यकता ही थी? या उसे नाटकीय चरम पर पहुंचाने की ज़रूरत या फिर महज प्रयोगों की शृंखला का एक और प्रयोग? क्या सीधी बात को शिल्प के इस प्रयोग से अधिक आयामों में रखने के लिए इस खंड को तन्नी-कन्नी और मुड़कट्टा धड़ या बांके बिहारीलाल की कथा के रूप में साधा गया? क्या बाजार के चारों दिशाओं और सोलहों याम के हमलों का तीखा पसरता जहरीला असर प्रतीकात्मक ढंग से ही बेहतर ढंग से दिखाया जा जा सकता था? वरना ‘हँसी हंसने की नहीं देखने की चीज है’ (टी.वी. प्रसंग) और ‘हंसो मत, हंसते हुए आदमी को देखो’ पर तो अस्सी की गलियों में गोष्ठियां, प्रदर्शन और प्रदर्शनियां भी होती रही हैं। यहां यह कहना प्रसंगानुकूल ही लगता है कि रूपक निर्वाह का यह खंड यद्यपि कि पूरे उपन्यास का सबसे मार्मिक पक्ष है परंतु फिर भी हीरा और बुल्लू के बिरहा दंगल में कथा का सधाव बस फिसलते-फिसलते ही बचा है। या यूं भी कहा जा सकता है कि काषीनाथ जी के तेवर, उनकी भाषा उनके रचाव को यहां पर यूं आकर रूपक रचना कुछ खास जंचता नहीं है। शास्त्री जी की फैंटेसी तक तो फिर भ्ीा बात कुछ सधती है पर बात वही है कि काशीनाथ सिंह के यहां खुल्लम-खुल्ला का जो आदिम संस्कार दिखता है, बिना चरित्रों के नाम बदले यानि नामों के साथ कोष्ठक में असली नाम बदलने की सूचना की षैली के विरूद्ध उन के सीधे आंख में आंख डाल कर बतियाने/लिखने के पुराने अंदाज़ के कारण शायद यह प्रसंग कुछ अलग सा दिखता है। हांलांकि यहां यह सब कहने का अर्थ चाहे जो भी निकाला जाए, किसी भी संभावना पर बात हो परंतु इतना तो तय है कि इसी खंड की कारूणिकता ने उपन्यास को रचनात्मकता के शिखर पर पहुंचाया है और औपन्यासिकता का निर्वाह भी यहीं होता है परंतु फिर भी शुरू के चार खंडों की तुलना में पांचवां और अंतिम यह खंड रचनाकार के साथ पाठकीय तेवर भी बदलने को मजबूर करता है।

माना जाता है कि उपन्यास जो मूलतः आधुनिक काल की विधा है, में यथार्थ प्राणतत्व की तरह है। उपन्यास की विष्वसनीयता और कसौटी अपने समय के अंकन में होती है। अपने समय और परिवेष को कुछ यूं सहेजना कि पाठक समय और चरित्रों के रेशे-रेशे को पकड़ और पढ़ सके यह उपन्यास की ताकत होती है। काशीनाथ जी का यह उपन्यास अपने समय का प्रामाणिक दस्तावेज बनता है, सिर्फ घटनाओं के अंकन की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि समूचे उपन्यास में अपने समकाल की वैज्ञानिक दृष्टि से की गई पड़ताल और सुविचारित टिप्पणी की दृष्टि से भी यह महत्वपूर्ण है। आज की और यहाँ उपन्यास में कहें अस्सी की त्रासदी का मूल, समय के अप्रत्याशित बदलाव हैं और इस बदलाव के मूल में भूमंडलीकरण की तेज आंधी है। ऐसे सर्वग्रासी समय की रचना इस उपन्यास में भूमंडलीकरण के विघटनकारी प्रभावों पर प्रतिरोध का स्पष्ट स्वर है। उपन्यास में दृश्य दर दृश्य मूल चिंता एक ही है, प्रतिरोध। प्रतिरोध उस प्रतिसंस्कृति का जिसने अस्सी की आज़ादी में खलल डाला है, और बात सिर्फ अस्सी की आज़ादी की नहीं है। बात दरअसल यह भी है कि अस्सी के पास वो आंख है जो दूर तक समय-समाज पर इन प्रभावों को देख पाती है और इस सब को सिर्फ देख कर रह जाए ऐसी न तो अस्सी की प्रकृति है और न काशी(नाथ) की। समय के साथ सामने आते तमाम आकर्षण जिन्होने शास्त्री जी(कौन ठगवा नगरिया लूटल हो) को बांधा है वे कथाकार की नज़रों के सामने हैं और कथाकार काशीनाथ की कलम का रचनात्मक संस्पर्श उसे कथालोक की फंतासी की दुनिया की तरह रचता और सामने रखता है। शास्त्री जी के शिवस्वप्न की फंतासी में सिर्फ अपने समय के परिवर्तन की आहट भर नहीं है, यहीं पर काशीनाथ जी के कथा-कौशल को और इस उपन्यास में उनके नये तेवर को भी पहचाना जा सकता है। ‘‘... वे कथायें उठाती हैं, अक्सर महाभारत से, रामायण से, पुराणों और इतिहास से... लोप्रचलित आख्यानों से। ऐसी कथायें जो किसी न किसी तरह वर्तमान से जोड़ी जा सकें, और अगर अपने आप न जुड़ सकें तो जोड़ दी जाएं। कहानी चाहे जितनी पुरानी हो या लोककथा हो, उसे सुनने का मज़ा तो तब है जब सुनने वाले उसमें अपने को देख सकें।’’ इस कसौटी पर भी अगर देखें तो उपन्यास, मुकम्मल उपन्यास की तरह हमारे सामने आता है। काशी का अस्सी अपने समूचे कलेवर में अपने समय का दस्तावेज है और आप इसमें बकायदा अपने आप को, आस-पास को बदलता हुआ देख सकते हैं। लोगों के चेहरे से गुमती हॅसी और बांके बिहारी लाल के चमत्कारी समय में बाज़ार की नज़र में तन्नी गुरू की निश्छल हॅसी के डर ऐसे ही प्रसंग हैं जहां हम अपने समय की विडंबना को देखते हैं जहाँ हर तरफ इस कदर बाज़ार और बाज़ार की नीति और राजनीति तारी है कि उसके लिए एक सादी सी, भोली सी, बेसबब हॅसी भी भय का कारण बन गई है। समूचा तंत्र इस हॅसी के खिलाफ खड़ा है, कि आखिर इतना सब कुछ बदलने की कवायद में ये हॅसी बची तो बची कैसे? जब तंत्र की सेनाओं का फ्लैग मार्च चल रहा हो, सारी कायनात चारदीवारों के बीच एक टी.वी. या कम्प्यूटर में जा घुसी हुई हो तब एक अदने आदमी की इतनी ज़ुर्रत कि वो आँख से आँख मिलाये, उस पर गाहे-बगाहे मुस्कुराये भी! ऐसी किसी भी बेलौस हॅसी हॅसते हुए चेहरे के खिलाफ और ईश्वर से सौदेबाजी कर रहे सेठों के साथ खड़ी बांके बिहारी लाल की सत्ता-व्यवस्था का पहला दायित्व है हॅसी को सड़कों पर फैलाते या फैला सकने वाले सर को धड़ से अलग कर देना।

पूरे उपन्यास को पढ़ते हुए एक बात बार-बार ख्याल में बनी रही कि यहां स्पष्ट देखा जा सकता है कि एक बड़ा रचनाकार, बड़ी रचना कैसे रचता है यह देखना हो तो यहां देखा जा सकता है। अपने आस-पास के परिवेश को किस अदा से, अपनी एक छुवन देकर जिंदा किया जा सकता है, उसमें प्राण फूंके जा सकते हैं, यह रचना इस बात का अच्छा उदाहरण है। वरना यूं तो हर शहर और कस्बे में खंडहर होता, ढहता-ढूहता एक अस्सी होता हेै, किसी न किसी कोने में। कोई आए न आए, बीत चुके कुछ दिनों को अपनी आंखों में सहेजे कुछ स्मृतियां तो बहुतों के मन में इस तरह के मुहल्लों की होती हैं। उनकी व्याप्ति सिर्फ कुछ लोगों के मन तक या फिर शाम की गप-शप में हो कर रह जाती है परंतु अस्सी की इस त्रासदी को करूण आख्यान बना कर परिस्थितियों, परिवेश और समकालीन राजनैतिक और सामाजिक द्वंद्व को इस पैने अंदाज़ में हमारे बीच एक नयी रचनात्मक संवेदना के साथ रखने का काम तो काशीनाथ सिंह ने ही किया! शायद इतनी शिद्दत और इस कौशल के साथ ऐसा बस वे ही कर सकते थे। वैसे ओर शहरों में चाहे जितने ऐसे कोने हों, होते हों, काशी की तो हर बात निराली है। फिर काशी के अस्सी का काशी की कलम से सामने आना भी अपनी तरह का अनूठा अनुभव है। काशी कई-कई रचनाकारों की कलम से हमारे सामने आया है। कई रूप, कई रंग काशी के हमारे सामने बिखरे हैं, प्रसाद और प्रेमचंद की कलम से शायद बनारस की जो बेलौसी छूट रही थी उसे एक बेचैनी के साथ सहेजने का अपनी तरह का एक औपन्यासिक प्रयोग है काशी की नज़रों से देखा-महसूसा गया अस्सी, यानि काशी का अस्सी।

 संपर्क :    विवेक श्रीवास्तव, 
119/1034, निर्मल अपार्टमेंट,नारायणपुरा,अहमदाबाद.13  (093283 41189)

सोमवार, अक्तूबर 25, 2010

ताज़े फूल की तीखी खुश्बू सी...इस अंक में कवितायें

झारखण्ड की पथरीली पृष्ठभूमि से आने वाले युवा कवि अनुज लुगुन के पास अपने देखे-महसूसे संसार की सचाई है, विश्लेषण की समझ है और उसे कविता में बांटने का शिल्प वे अर्जित कर रहे हैं. पिछले अंक में आप ने अनुज लुगुन की कविताओं पर हमारे साथी और युवा आलोचक आशीष त्रिपाठी का नोट पढ़ा, अनुज का संक्षिप्त सा परिचय भी आप पिछली पोस्ट में पढ़ ही चुके है, लीजिए इस पोस्ट में सीधे अनुज लुगुन से संवाद करिये.. उनकी कविताओं से सीधे संवाद. कविता ‘एकलव्य से संवाद’ पर उनके नोट को कविता के पहले जस का तस प्रस्तुत करने से शायद ‘एकलव्य’ पर उनके नज़रिये के सूत्र शायद कुछ अधिक सुलझे ढंग से सामने आयेंगे.. इसलिए वो नोट भी कविता के साथ...


एकलव्य से संवाद .

एकलव्य की कथा सुनकर मैं हमेशा इस उधेड़बुन में रहा हूँ कि द्रोण को अपना अँगूठा दान करने के बाद उसकी तीरंदाजी कहाँ गई? क्या वह उसी तरह का तीरंदाज बना रहा या उसने तीरंदाजी ही छोड़ दी? उसकी परंपरा का विकास आगे कहीं होता है या नहीं? इसके आगे की कथा का जिक्र मैंने कहीं नहीं सुना। लेकिन अब जब कुछ-कुछ समझने लगा हूँ तो महसूस करता हूँ कि रगों में संचरित कला किसी दुर्घटना के बाद एकबारगी समाप्त नहीं हो जाती। हो सकता है एकलव्य ने अपना अँगूठा दान करने के बाद तर्जनी और मध्यमिका अंगुलियों के सहारे तीरंदाजी का अभ्यास किया हो। क्योंकि मुझे ऐसा ही
प्रमाण उड़ीसा के सीमावर्ती झारखण्ड के सिमडेगा जिले के मुण्डा आदिवासियों में दिखाई देता है। इस संबंध में मैं स्वयं प्रमाण हूँ। (हो सकता है ऐसा हुनर अन्य क्षेत्र के आदिवासियों के पास भी हो) यहाँ के मुण्डा आदिवासी अँगूठे का प्रयोग किए बिना तर्जनी और मध्यमिका अँगुली के बीच तीर को कमान में फँसाकर तीरंदाजी करते हैं। रही बात इनके निशाने की तो इस पर सवाल उठाना मूर्खता होगी। तीर से जंगली जानवरों के शिकार की कथा आम है। मेरे परदादा, पिताजी, भैया यहाँ तक कि मैंने भी इसी तरीके से तीरंदाजी की है। मेरे लिए यह एकलव्य की खोज है और यह कविता इस तरह एकलव्य से एक संवाद।

चित्र सौजन्य : zohawoodart.com (google photos.)

एक
घुमन्तू जीवन जीते
उनका जत्था आ पहुँचा था
घने जंगलों के बीच
तेज बहती अनाम
पहाड़ी नदी के पास
और उस पार की कौतुहूलता में
कुछ लोग नदी पार कर गए थे
और कुछ इधर ही रह गए थे
तेज प्रवाह के समक्ष अक्षम
तब तीर छोड़े गए थे
उस पार से इस पार
आखरी विदाई के
सरकंडों में आग लगाकर
और एक समुदाय बँट गया था
नदी के दोनों ओर
चट्टानों से थपेड़े खाती
उस अनाम नदी की लहरों के साथ
बहता चला गया उनका जीवन
जो कभी लहरों के स्पर्श से झूमती
जंगली शाखों की तरह झूम उठता था
तो कभी बाढ़ में पस्त वृक्षों की तरह सुस्त होता था
पर पानी के उतर जाने के बाद
मजबूती से फिर खड़ा हो जाता था
उनके जीवन में संगीत था
अनाम नदी के साथ
सुर मिलाते पपीहे की तरह
जीवन पल रहा था
एक पहाड़ के बाद
दूसरे पहाड़ को लाँघते
और घने जंगल में सूखे पत्तों पर हुई
अचानक चर्राहट से
उनके हाथों में धनुष
ऐसे ही तन उठती थी।

दो
हवा के हल्के झोकों से
हिल पत्तों की दरार से
तुमने देख लिया था मदरा मुण्डा
झुरमुटों में छिपे बाघ को
और हवा के गुजर जाने के बाद
पत्तों की पुन: स्थिति से पहले ही
उस दरार से गुजरे
तुम्हारी सधे तीर ने
बाघ का शिकार किया था
और तुम हुर्रा उठे थे-
'जोवार सिकारी बोंगा जोवार!’
तुम्हारे शिकार को देख
एदेल और उनकी सहेलियाँ
हँडिय़ा का रस तैयार करते हुए
आज भी गाती हैं तुम्हारे स्वागत में गीत
'सेन्देरा कोड़ा को कपि जिलिब-जिलिबा।‘
तब भी तुम्हारे हाथों धनुष
ऐसे ही तनी थी।

तीन
घुप्प अमावस के सागर में
ओस से घुलते मचान के नीचे
रक्सा, डायन और चुडै़लों के किस्सों के साथ
खेत की रखवाली करते काण्डे हड़म
तुमने जंगल की नीखता को झंकरित करते नुगुरों के संगीत की अचानक उलाहना को
पहचान किया था और
चर्र-चर्र-चर्र की समूह ध्वनि की
दिशा में कान लगाकर
अंधेरे को चीरता
अनुमान का सटीक तीर छोड़ा था
और सागर में अति लघु भूखण्ड की तरह
सनई की रोशनी में
तुमने ढूँढ निकाला था
अपने ही तीर को
जो बरहे की छाती में जा धँसा था।
तब भी तुम्हारे हाथों छुटा तीर
ऐसे ही तना था।
ऐसा ही हुनर था
जब डुम्बारी बुरू से
सैकड़ों तीरों ने आज उगले थे
और हाड़-मांस का छरहरा बदन बिरसा
अपने अद्भुत हुनर से
भगवान कहलाया।
ऐसा ही हुनर था
जब मुण्डाओं ने
बुरू इरगी के पहाड़ पर
अपने स्वशासन का झंडा लहराया था।

चार
हाँ एकलव्य!
ऐसा ही हुनर था।
ऐसा ही हुनर था
जैसे तुम तीर चलाते रहे होगे
द्रोण को अपना अँगूठा दान करने के बाद
दो अँगुलियों
तर्जनी और मध्यमिका के बीच
कमान में तीर फँसाकर।
एकलव्य मैं तुम्हें नहीं जानता
तुम कौन हो
न मैं जानता हूँ तुम्हारा कुर्सीनामा
और न ही तुम्हारा नाम अंकित है
मेरे गाँव की पत्थल गड़ी पर
जिससे होकर मैं
अपने परदादा तक पहुँच जाता हूँ।
लेकिन एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है।
मैंने तुम्हें देखा है
अपने परदादा और दादा की तीरंदाजी में
भाई और पिता की तीरंदाजी में
अपनी माँ और बहनों की तीरंदाजी में
हाँ एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है
वहाँ से आगे
जहाँ महाभारत में तुम्हारी कथा समाप्त होती है

पांच
एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है
तुम्हारे हुनर के साथ।
एकलव्य मुझे आगे की कथा मालूम नहीं
क्या तुम आए थे
केवल अपनी तीरंदाजी के प्रदर्शन के लिए
गुरू द्रोण और अर्जुन के बीच
या फिर तुम्हारे पदचिन्ह भी खो गए
मेरे पुरखों की तरह ही
जो जल जंगल जमीन के लिए
अनवरत लिखते रहे
जहर बुझे तीर से रक्त-रंजित
शब्दहीन इतिहास।
एकलव्य, काश! तुम आए होते
महाभारत के युद्ध में अपने हुनर के साथ
तब मैं विश्वास के साथ कह सकता था
दादाजी ने तुमसे ही सीखा था तीरंदाजी का हुनर
दो अँगुलियों के बीच
कमान में तीर फँसाकर।
एकलव्य
अब जब भी तुम आना
तीर-धनुष के साथ ही आना
हाँ, किसी द्रोण को अपना गुरु न मानना
वह छल करता है
हमारे गुरु तो हैं
जंगल में बिचरते शेर, बाघ
हिरण, बरहा और वृक्षों के छाल
जिन पर निशाना साधते-साधते
हमारी सधी हुई कमान
किसी भी कुत्ते के मुँह में
सौ तीर भरकर
उसकी जुबान बन्द कर सकती है।


अघोषित उलगुलान

अल सुबह दान्डू का कािफला
रुख करता है शहर की ओर
और साँझ ढले वापस आता है
परिन्दों के झुण्ड-सा,
अजनबीयत लिए शुरू होता है दिन
और कटती है रात
अधूरे सनसनीखेज किस्सों के साथ
कंक्रीट से दबी पगडंडी की तरह
दबी रह जाती है
जीवन की पदचाप
बिल्कुल मौन!
वे जो शिकार खेला करते थे निश्चिंत
जहर बुझे तीन से
या खेलते थे
रक्त-रंजित होली
अपने स्वत्व की आँच से
खेलते हैं शहर के
कंक्रीटीय जंगल में
जीवन बचाने का खेल
शिकारी शिकार बने फिर रहे हैं
शहर में
अघोषित उलगुलान में
लड़ रहे हैं जंगल
लड़ रहे हैं ये
नक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ
जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ
गुफाओं की तरह टूटती
अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ
इनमें भी वही आक्रोशित हैं
जो या तो अभावग्रस्त हैं
या तनावग्रस्त हैं
बाकी तटस्थ हैं
या लूट में शामिल हैं
मंत्री जी की तरह
जो आदिवासीयत का राग भूल गए
रेमण्ड का सूट पहनने के बाद।
कोई नहीं बोलता इनके हालात पर
कोई नहीं बोलता जंगलों के कटने पर
पहाड़ों के टूटने पर
नदियों के सूखने पर
ट्रेन की पटरी पर पड़ी
तुरिया की लवारिस लाश पर
कोई कुछ नहीं बोलता
बोलते हैं बोलने वाले
केवल सियासत की गलियों में
आरक्षण के नाम पर
बोलते हैं लोग केवल
उनके धर्मांतरण पर
चिंता है उन्हें
उनके 'हिन्दू’ या 'इसाई’ हो जाने की
यह चिंता नहीं कि
रोज कंक्रीट के ओखल में
पिसते हैं उनके तलबे
और लोहे की ढेंकी में
कूटती है उनकी आत्मा
बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए।
लड़ रहे हैं आदिवासी
अघोषित उलगुलान में
कट रहे हैं वृक्ष
माफियाओं की कुल्हाड़ी से और
बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल।
दान्डू जाए तो कहाँ जाए
कटते जंगल में
या बढ़ते जंगल में।

गुरुवार, अक्तूबर 21, 2010

ताज़े फूल की तीखी खुश्बू सी कविता...

मुहावरे में कहना हो तो बहुत चलता हुआ मुहावरा है, ज़मीन से जुड़े हुए कवि, पर यह सिर्फ मुहावरे की बात नहीं, यह बिलकुल सीधी सी सच्चाई है, अनुज लुगुन ज़मीन से जुड़े हुए कवि हैं. अनुज लुगुन हिंदी कविता के लिए तुलनात्मक रूप से बहुत नया नाम हैं, लगभग 20-21 बरस के इस युवा को इधर कुछेक पत्रिकाओं में छिट-पुट पढ़ा गया है पर अभी उन की ज्यादा कवितायेँ सामने नहीं आयी हैं. बनारस हिंदू विश्विद्यालय से हिंदी के परास्नातक अनुज बी.एच.यू. में ही आगे शोधरत हैं. यहाँ पर उनकी कविताओं को उनके सोंधेपन और उसके सीधे-सादे शिल्प परन्तु कठिन सवालों से मुठभेड़ के उनके माद्दे के लिए रेखांकित करते हुए प्रस्तुत किया जा रहा है.
यह पहली किश्त है जिस में अनुज की कविताओं के पहले, अनुज से और उन की कविताओं से ज्यादा करीब से परिचित हमारे साथी आशीष त्रिपाठी की एक टिप्पणी यहाँ प्रस्तुत है जो उन्होंने अनुज की कविताओं पर तैयार की है. आशीष जी की इस टिप्पणी के ठीक बाद अगली पोस्ट में आप अनुज लुगुन की कविताओं का मूल आस्वाद भी यहीं पर कर सकेंगे.. मैंने 'वसुधा-85' में जब इन कविताओं को पढ़ा तो एकबारगी मेरे मष्तिष्क में जो कुछ कौंधा वो यही था 'ताज़े फूल की तीखी खुश्बू..' हाँलाकि आशीष जी ने अपने नोट का शीर्षक कुछ और दिया है पर मेरी ओर से प्रस्तुत है 'ताज़े तीखे फूल की तीखी खुश्बू' भाग-1, बहुत जल्द भाग-2 में पढ़िएगा खुद अनुज को...

'वसुधा' के अंकों के बारे में और जानने के लिए दायीं तरफ के कॉलम
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चित्र सौजन्य : kriyayoga.com (google photos)

आदिवासी जीवन की कविताएँ : आशीष त्रिपाठी

अनुज लुगुन ने कविताएँ लिखना बस अभी शुरू किया है। मैंने पहली बार लगभग तीन साल पहले उनकी कविताएँ सुनी थीं। तब तक उनकी कोई कविता प्रकाशित नहीं हुई थी। भाषा की अनगढ़ता और कच्चेपन के बावजूद उन कविताओं में अनेक ऐसी पंक्तियाँ थीं, जिनमें एक संवेदनशील कवि की प्रतिभा की अनुगूँज सुनायी पड़ी थी। कुछ ऐसी बातें, उन कविताओं में थीं, जिन्होंने मुझे गहराई से सोचने के लिए बाध्य किया था। जो प्रश्न उठाये गये थे वे हमारे समकालीन समय और समाज के सामने दहकती आग की तरह मौज़ूद थे, और हम भी कहीं उस आग की चपेट में थे। इन तीन वर्षों में कुछ छोटी पत्रिकाओं में उनकी लगभग 10 कविताएँ छप कर आयी हैं। इन सभी कविताओं से उस पहले प्रभाव की पुष्टि हुई है।


अनुज लुगुन जैसे किसी बिल्कुल नये कवि की कवितायें पढ़ते हुए, मैं हमेशा इस उलझन में रहता हूँ, कि ऐसे कवियों में हमें सबसे पहले क्या देखना चाहिए? सवाल को दूसरी तरह से ऐसे भी किया जा सकता है कि कविता बुनियादी तौर पर किस एक या अनेक प्रक्रियाओं से अपना प्राथमिक 'अनुभव’ प्राप्त करती है? 'अनुभव प्राप्ति’ का कार्य मूलत: क्या है और किस प्रक्रिया से सम्पन्न होता है? कवि (खासतौर पर जबकि वह बिल्कुल नया हो) 'अनुभव प्राप्ति’ में अपनी मूलभूत जैविक दक्षताओं पर कितना आश्रित होता है और सांस्कृतिक क्षमताओं पर कितना? इन सवालों से टकराते हुए हमेशा ही मुझे लगता है कि अनुभव-अर्जन की बुनियादी क्रिया 'देखना है’ है। ज़्यादातर कवि अपने शुरुआती काव्यानुभव इसी 'देखना’ क्रिया से प्राप्त करते हैं, जिसमें ज़रूरत के मुताबिक सुनना, सूँघना, स्वाद लेना और छूने की क्रियायें मिलती जाती हैं। स्पष्ट है कि ये सब क्रियायें मूलत: मनुष्य की जैविक दक्षताओं पर टिकी हैं। इन क्रियाओं को हम 'ऐंद्रीय क्रियायें’ कह सकते हैं और इनसे प्राप्त होने वाले अनुभव-ऐंद्रीय अनुभव। यह भी स्पष्ट है कि नये से नये कवि के मामले में ये अपने शुद्ध रूप में नहीं रहते या रह जाते। सिर्फ प्रौढ़ कवि ही ऐंद्रीय अनुभवों को प्रकृत रूप में व्यक्त कर पाने का सामथ्र्य विकसित कर पाते हैं। अन्यथा ऐंद्रीय अनुभव बहुत जल्द ही सांस्कृतिक अनुभवों के साथ मिलकर एक नया रूप प्राप्त कर लेते हैं। जैसे कि 'देखना’ से प्राप्त परिणाम 'सोचना’ और 'विचारना’ प्रक्रियाओं से गुज़रकर एक समग्र और अपेक्षाकृत जटिल रूप में हमारे सामने आते हैं। मिश्रण की यह प्रक्रिया इतनी सहज और अनायास होती है कि उस पर नियंत्रण कर पाना प्राय: असंभव है। परंतु, हम अनुमान लगा सकते हैं कि कवि द्वारा व्यक्त अनुभव में ज़्यादा प्रभावशाली हस्तक्षेप किसका है-देखने का या विचारने का। आशय यह कि कवि का 'देखा हुआ’ ज़्यादा प्रभावी ढंग से प्रकट हुआ है या उस 'देखे हुए’ से संवाद्ध 'विचार’।

अनुज लुगुन की कविताओं में हम सहज ही लक्षित कर सकते हैं कि वे प्राय: अपने आदिवासी गाँव और परिवेश से देखने और विचारने की शुरुआत करते हैं। गाँव और देश में रहते हुए उन्होंने जो देखा, गाँव से बाहर आने के बावजूद वह उनकी आँखों में घूमता रहता है। जब वे फिर गाँव जाते हैं, तो उस पूर्व अनुभव में कुछ दृश्य और जुड़ जाते हैं। इन अनुभवों में एक संगतिपूर्ण तारतम्य है। ये एक ही दिशा में चलते हैं। नियमित और सघन सम्पर्क के कारण वह पुराना अनुभव भी बिल्कुल ताज़ा और जीवंत रहता है। यह जीवित स्मृति का अंग है, न कि 'आज’ से कटी हुई 'स्मृति’ का। इसीलिये यह नॉस्टेज्लिया नहीं है। यह पूरी तरह आज का जीवित अनुभव है। अनुज लुगुन की कविताओं में यह अनुभव पूरी तरह एक 'आदिवासी अनुभव’ की तरह आता है। इसमें नागर मध्यवर्गीयता का कोई स्पर्श नहीं है (हालाँकि मानक हिन्दी का प्रचलित रूप अपनाने के कारण अनेक शब्द और पद उसे इस ओर ले जाने की कोशिश करते हैं)। अनुज जीवन को एक ठेठ आदिवासी की तरह देखते हैं, समाज की बुनियादी वर्गीय चेतना और लोकतांत्रिक भारत की वस्तुगत परिस्थितियों की वैज्ञानिक समझ से सम्पन्न आदिवासी की तरह। यही उनकी कविता की बुनियादी ता$कत है। इसी से उनकी कविताओं का ढाँचा विकसित होता है।

अनुज की कविताओं में आदिवासी जीवन के प्रति गहरी आत्मीयता और आदिवासी समाज के बुनियादी मूल्यों पर सहज आस्था बेहद स्वाभाविक ढंग से प्रकट होती है। जैसे कि वह कविता की संधियों और दरारों में 'सीमेंटिंग एलीमेंट’ की तरह मौजूद है। परन्तु, इन कविताओं में आदिवासियत के प्रति कोई अवांछित 'गरिमा भाव’ नहीं मिलता। महिमामंडन और अतिकथन की सामंती और मध्यवर्गीय प्रवृत्तियाँ भी यहाँ प्राय: नहीं हैं। इन कविताओं में आदिवासी जीवन, परिवेश और चरित्रों की एक लड़ी मिलती है, परन्तु यह भी स्पष्ट है कि उसका चित्रण करना कवि का प्राथमिक लक्ष्य नहीं है। प्राथमिक लक्ष्य है हमारे समय में आदिवासियों पर पड़े अमानवीय और भयावह दबावों को प्रकट करना, जिनसे आदिवासी अपने जल, जंगल, जमीन और जनों को छोडऩे को विवश हैं, जिनसे कि उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। 'युवा संवाद’ के अगस्त 2009 के अंक में प्रकाशित अपनी बिल्कुल प्रारंभिक कविता 'जंगल के स्वत्व के बीच’ में ये सवाल प्रखरता से उठाकर अनुज ने अपने राजनीतिक सरोकारों को भी प्रकट किया था। 'कल के लिए’ के दिसम्बर'08-जून’09 के अंक में प्रकाशित 'बिरसु बाबा’ और 'अघोषित उलगुलान’ (यह कविता आप यहाँ ब्लॉग पर अगली पोस्ट में मूलतः पढ़ सकते हैं – ब्लॉगर) के साथ इस कविता को पढऩे पर अनुज की प्राथमिक चिन्तायें हमारे सामने बिल्कुल स्पष्ट हो जाती हैं। ये आज़ाद भारत में ताकतवर होते गये लोलुप पूँजीवाद के सामने लगभग बेबस आदिवासी की चिन्तायें हैं। इन कविताओं में लोकतांत्रिक समकालीन भारत की आदिवासी-संबद्ध राजनीति का खुलासा किया गया है। नक्सली और हिंदूवादी राजनीति के उद्घाटन के साथ ही अनुज ने इन कविताओं में स्वतंत्र राज्य बनने के बाद झारखण्ड में आदिवासियों द्वारा चलायी जा रही बुर्जुआ मुहावरे और शैली की राजनीति की विडंबनाओं पर गहरी टीप दी है। आज की ये राजनीतिक गतिविधियाँ तब और अधिक विडंबनापूर्ण मालूम पड़ती हैं जहाँ वे इनको बिरसा मुण्डा के उलगुलान के समानांतर रखकर देखते हैं।
अनुज की कविताओं में बिरसा मुण्डा (और उलगुलान) प्रतिरोध के महान प्रेरक नायकों की तरह स्वाभाविक ढंग से आते हैं। परन्तु आज का दृश्य विवशता से भरा है-

इसी जंगल के बीच/ अपने स्वत्व के लिए उठी थी/ बाबा बिरसा की चीख।/
लहरा उठा थी-/ सर ऽऽ ... स ऽऽ... र...ऽऽ....!!!/ सिद्धू-कान्हू और तिलका
की तनी धनुष से टूटा तीर।/ इनकी मूर्तियों तले चौराहे पर /उठती है आज भी चीख
इसी चीख के बीच गंदगी / कान बनद कर दुबक जाती है/ उसे पता है यह घर फूटने की चीख है।


'बिरसु बाबा’ कविता में बिरसू और बिरसा जैसे आमने-सामने खड़े हैं। एक जिंदगी के लिए लड़ता हुआ बेबस आदिवासी है तो दूसरा संघर्ष कर इतिहास-नायक बना आदिवासी। बिरसू और बिरसा का नाम-साम्य और अतीत-वर्तमान का परिस्थिति वैषम्य अपने में बहुत कुछ अभिव्यक्त करता है। परंतु दोनों जगह आदिवासी विकसित होती पूँजीवादी व्यवस्था के सम्मुख अंतत: पराजित होते हैं- यह अनुज से छिपा नहीं है। बिरसु विस्थापित आदिवासी मज़दूर की तरह ईंट भट्टे की चिमनी के भरभराकर गिरने से मरते हैं तो बिरसा बाबा गोरे और दिक्कु लोगों के ज़हर से। यह ज़रूर हुआ है कि 'बाबा बिरसा की मूर्ति से होकर/ गुजरने वाली लाल-पीली-नीली बत्ती’ में बैठा में कोई आदिवासी बिरसु की दुर्घटना में मरी बेटी के नाम मुआवजा पास कर सकता है। कोई स्कीम या पैकेज की घोषणा कर सकता है। परंतु यह आदिवासी नेता वस्तुत: पूँजीवादी बुर्जुआ व्यवस्था का एजेंट है, बस

अनुज की कविताओं की भाषा और कहन पर 'धूमिल’ का प्रभाव मौजूद है

वह कौन दैत्य है/ जो लोहा खा जाता है
कौन साधु है/ जिसके कमंडल में जाकर कोयला राख हो जाता है
--------
जंगल के स्वत्व का केन्द्र बना है/ दिल्ली या फिर रांची
जहाँ से उठी घोषणाओं की हवा से/ जंगल के पत्ते झर जाते हैं
जो सिंह की दहाड़ से भी/ ज्यादा खतरनाक मालूम पड़ती है


संभवत: व्यवस्थाजनित दंश को प्रभावी तरीके से व्यक्त करने के लिए अनुज को धूमिल की कथन-पद्धति ज़्यादा अनुकूल लगी है, परंतु यह भी स्पष्ट है कि उनकी नयी कविताओं में इससे बाहर आने की कोशिश है।
आदिवासी जीवन से गहरे तक संबद्ध होने के कारण अनुज की कविताओं में नक्सली वामपंथियों का संदर्भ अनेक बार आता है। स्पष्ट है कि नक्सली राजनीति का एकतर$फा समर्थन नहीं है। उसे आदिवासी जीवन में उभरी उम्मीद की किरण भी माना गया है, तो उसके कारण पडऩे वाले दवाबों को भी अनदेखा नहीं किया गया है:-

इसी जंगल के बीच/ लगती है अदालत/जहाँ जमींदार की जमीन पर/ लाल झंडा गाड़कर/ उसकी ज़मीन बांट दी गई/ इसी अदालत में मुनिया के साथ हुई बदसलूकी की सजा/मौत दी गई/ इसी अदालत में/ जनता को दिखी थी/पहली बार अपनी परछाई/ और इसी अदालत का सबसे बड़ा मुखिया/ आज जनता की अदालत में / थैली में लेवी की रसीद लिए/कटघरे में खड़ा है/ जिसे न कटवाने पर/ वह गर्दन काट लेता है।
----------
उसके बाद आ धमकती है/ बड़ी-बड़ी बूटों की टापें/ कंधों में संगीन लटकाए/ छा जाता है लाल-लाल अंधेरा/ सखुआ के वृक्ष तले/ घेर लिया जाता है पूरा गाँव/ और मंगा का धड़ अलग कर दिया जाता है/ उस पर पुलिस की मुखबिरी का आरोप था/ करता क्या वह/उसकी जुबान टिक नहीं पायी थी/ पुलिसिया रौब के सामने.

अनेक जगहों पर नक्सली कार्यकर्ताओं और अफसरोंशाहों-ठेकेदारों-नेताओं को समान रूप से आदिवासियों से दूर और एक हद तक आदिवासी-विरोधी माना गया है, जिनके बीच आदिवासी पिस रहे हैं परन्तु यहीं 'लालगढ़’ जैसी कविता लिखकर अनुज नक्सली आंदोलन की उपस्थिति को वाजिब मानते हैं।
अनुज लुगुन की कविताओं में 'एकलव्य से संवाद’ (यह कविता आप यहाँ ब्लॉग पर अगली पोस्ट में मूलतः पढ़ सकते हैं – ब्लॉगर) का विशिष्ट स्थान है। पारंपरिक आख्यान के प्रसिद्ध चरित्र एकलव्य को आज के आदिवासी समाज में प्रचलित धनुष-विद्या के आधार पर प्राय: पुन: खोजा गया है। उच्चवर्गीय रुचि बोध और विचारधारा वाली कथा का यह आदिवासी प्रत्याख्यान है। आदिवासी समाज की जिजीविषा और संघर्ष शक्ति को उचित महत्व के साथ यहाँ रेखांकित किया गया है। यह कविता स्वतंत्र विवेचन की माँग करती है, जिसका यहाँ स्पेस नहीं है।


अनुज को अभी एक कवि के रूप में प्राय: अदेखी दुनिया को अधिक विस्तार और गहराई के साथ सामने लाना है। इस काम में भाषा और कहन के अनेक अवरोध हैं, परंतु नागार्जुन-केदार और त्रिलोचन का काव्य-संसार उन्हें अनेक रास्ते सुझा सकता है। विशिष्ट जीवन को प्रकट करने के लिए पर्याप्त संवेदना उनके पास है। मुंडारी और संथाली भाषाओं का रचनात्मक उपयोग करके वे इसे ज़्यादा गहराई से सामने ला सकते हैं।
'झारखण्ड के पहाड़ों का अरण्यरोदन’ और कुछ ऐसी ही ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं के अतिरिक्त संभवत: ये पहली कविताएं हैं, जिन्होंने आज के आदिवासी-सवालों को प्रखरता से उठाया है। इनके कवि का हिंदी समाज गहरी बेचैनी भरी उम्मीद के साथ इस्तकबाल करता है।
(संपर्क : हिन्दी विभाग, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, वाराणसी, मो. 09450711824)

गुरुवार, अक्तूबर 07, 2010

कविता में किताबों की बातें..

हिंदी कविता के दो बड़े नाम इस बार एक साथ. चंद्रकांत देवताले और कुमार अम्बुज. एक कवि की निगाह में दूसरे की कविता. अम्बुज जी और देवताले जी दोनों ही मेरे प्रिय कवियों में हैं. देवताले जी से तो मेरे कविता से परिचय की शुरुआत का ही परिचय है.. कह सकता हूँ कि हिंदी कविता से मेरे परिचय का झरोखा खोलने वालों में देवताले जी हैं.. गुरु की गरिमा के साथ वे हमारे अपने हैं. अम्बुज जी की कवितायेँ हमेशा मेरे लिए चुम्बकीय आकर्षण सी रही हैं.. 'किवाड़', 'एक कम' जैसी उनकी पचीसों कविताओं का मुरीद हूँ.. कई बार वे बिलकुल अद्भुत ही होते हैं.. सहज और अद्भुत एक साथ. अम्बुज जी तो पिछले दिनों में खुद भी ब्लॉग पर (kumarambuj.blogspot.com) सक्रिय हैं और उनकी सक्रियता से ही हम लोग भी प्रेरित होते हैं.

यहाँ 'वसुधा - 85' के सौजन्य से चंद्रकांत देवताले जी की एक कविता प्रस्तुत है. कविता पर मैं कुछ नहीं बोलूँगा, यह बिलकुल उचित भी नहीं होगा, जबकि उस पर कुमार अम्बुज बोल रहे हैं.. ज्यादा कोई भूमिका बनाये बिना सीधे अम्बुज जी की टिप्पणी के साथ देवताले जी की कविता पढें.. हाँ, एक बात ज़रूर.. जो कुछ मित्रों ने कही भी थी कि, अपेक्षाकृत लंबी कविता के साथ टिप्पणी भी एक ही पोस्ट में शामिल करने से हो सकता है ब्लॉग के अनुसार पोस्ट का आकार लंबा लगे... फिर भी कविता और उस पर टिप्पणी को अलग करना मुझे ज्यादा ठीक विकल्प नहीं लग रहा था. शायद दो अलग पोस्ट डालने पर आस्वाद का असल आनन्द खंडित होता, इसलिए यहाँ एक साथ प्रस्तुत हैं अम्बुज जी और देवताले जी.


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कुमार अंबुज


अँधेरे में से अपने हक की रोशनी
करीब 15 साल पहले चंद्रकांत देवताले दैनिक भास्कर में स्तंभ लिखते थे और उसमें उन्होंने एक बार अपनी कविता प्रकाशित करायी, जो बाद में उनके कविता संग्रह 'उजाड़ में संग्रहालय’ में संकलित हुई है। उस स्तंभ में पहली बार पढ़ी इस कविता की स्मृति जब-तब पीछा करती है। देवताले जी की कविता जीवन के अनंत प्रसंगों से बनती है और आसपास की, रोजमर्रा की छोटी-बड़ी घटनाएँ उनके काव्य विषय हैं। उनके पास अपेक्षाकृत लंबी कविताओं की सहज उपस्थिति है। शब्द स्फीति भी जैसे वहाँ काव्य उपकरण बन जाती है और उनके शिल्प का, कवि की नाराजगी, असंतोष, व्यग्रता और सर्जनात्मक बड़बड़ाहट का हिस्सा होती है। एक कवि जो अकथनीय को भी कह देना चाहता है, इसके अप्रतिम उदाहरण चंद्रकांत देवताले की कविता में देखे जा सकते हैं। परंपरागत आलोचकीय समझ एवं औजार यहाँ अपर्याप्त और कमजोर सिद्ध हो सकते हैं।
पुस्तक मेले के प्रसंग से किताबों, पुस्तकालयों, पाठकों और लेखकों के साथ बदलते समाज की प्राथमिकताओं तथा विडम्बनाओं को समेटती इस कविता का फलक व्यापक है और लगभग हर पैराग्राफ में यह नए आयामों में विस्तृत ही जाती है, बिना अपने केन्द्रीय विषय को विस्मृत किए।
पहली दो पंक्तियाँ ही कविता का प्रसंग और वातावरण तैयार कर देती हैं और फिर आवेग से कविता आगे बढ़ती है। शब्दों और किताबों की महत्ता को, मुश्किलों को नए सिरे से आविष्कृत करती है। इस उपभोक्तावादी, प्रदर्शनकारी, महँगे जमाने में इन किताबों तक पहुँचना आसान नहीं रहा। किताबें, जो ज्ञान, मुक्ति और इसलिए रोशनी का घर हैं। जो अनेक तालों की चाबियाँ हैं। पुस्तकालयों की दुर्दशा और वहाँ का विजुअल दृष्टव्य है, जिनकी जगह या जिनके आसपास अब शराबघर, जुए के अड्डे या तरह-तरह की दुकानें हैं। इस कदर ठसाठस भरी पार्किंग है कि किताबों तक पहुँचना नामुमकिन है। लेकिन किताबें हैं कि इस युग में भी छपती ही जा रही हैं, अपने ताम-झाम और उत्तर आधुनिकता के साथ कदमताल करतीं। अंतर्विरोध और हतभाग्य यही कि हमारे जैसे महादेश के अधिसंख्य लोग आजादी के अर्धशतक के बावजूद इन पुस्तक मेलों में नहीं जा सकते और फैले हुए विराट अँधेरे में से अपने हक की रोशनी नहीं उठा सकते। चाहे फिर वह कफन या गोदान हो या किसी अन्य संज्ञा से उसे पुकारें।
इन्हीं के बीच एक अधिक सक्षम, लोकप्रिय खण्ड है जो सफलता और धन कमाने के उपायों की किताबें रचता है। दुनिया को जीतने के रहस्य, अंग्रेजी जानने के तरीके बताता है और फिर साज-सज्जा से लेकर मोक्ष, व्यंजन पकाने की विधियाँ और बागवानी तक की किताबों की श्रृंखला है, जिसमें बच्चों की किताबें भी हैं लेकिन वे चमक-दमक और रईसी का जीवन जी रहे मध्यवर्ग या उच्चवर्ग के बच्चों को ही नसीब हो सकती हैं। वंचित बच्चों की संख्या विशाल है।
यह कविता सजगता के साथ सबल और निर्बल, सक्षम और अक्षम, सुविधासंपन्न और वंचितों के बीच में लगातार एक तनाव रचती है। यह दो किनारों को मिलाती नहीं है, लगातार याद दिलाती है कि दो सिरे हैं और इनका होना हमारे समय का एक अविस्मरणीय लक्षण है। ये दो सिरे अनेक रूपों में दिखते हैं। औद्योगिक मेला और पुस्तक मेला, ताकतवर आवाज और कमजोर का रोना, अँधेरा और रोशनी, हाथी और कनखजूरे, इतिहास और भविष्य, पुच्छलतारा और आत्मा, किताबें जो तैरा सकती हैं दुनिया को लेकिन खुद डूब रही हैं, साक्षरता अभियान और निरक्षरता, लोकप्रिय और साहित्यिक पुस्तकें जैसे अनेक विलोम-संदर्भों से यह कविता अपना वितान, अपना आग्रह संभव करती है।
हमारे करीब फैली पुस्तकों-पाठकों की समस्या के रैखिक से दिखते यथार्थ को भी यह कविता तमाम जटिलताओं और करुण हास्यास्पदता के बीच रखकर जाँचती परखती है। कविता अपने अंत में विचारकों, लेखकों, प्रकाशकों को भी सवालों के घेरे में लेती है और इधर के एक सामान्य लेकिन बार-बार उठाये जानेवाले प्रश्न को प्रखरतापूर्वक रखती है: 'इन्हें जो लिखेंगे क्या वे ही पढ़ेंगे? कहेंगे जो वे ही सुनेंगे?’ और वे तमाम लोग जो फिर पीछे छूट गए हैं, क्या वे कभी जान पाएँगे कि उनका भी कोई घर भाषा के भीतर हो सकता है? इस कविता का विशिष्ट पहलू यह भी है कि यह सीधे-सीधे अपने वर्तमान से, समकालीनता से टकराती है लेकिन अपनी परिधि को संकुचित नहीं रहने देती।
अपने समय, समाज के शब्दों और किताबों के साथ होनेवाली दुर्घटना को लेकर, अन्यथा उसकी उपलब्धियों पर विचार करते हुए कितनी बेचैनी और सजगता हो सकती है, यह कविता इसी का विमर्श तैयार करती है। यह विमर्श अभी भी प्रासंगिक बना हुआ है। (संपर्क-094244-74678)



चन्द्रकांत देवताले


करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब किताबें

औद्योगिक मेले के बाद अब यह पुस्तकों का
मेला लगा है अपने महानगर में,
और भीड़ टूटेगी ही किताबों पर
जबकि रो रहे हैं बरसों से हम, कि नहीं रहे
किताबों को चाहने वाले, कि नहीं बची अब
सम्मानित जगह दिवंगत आत्माओं के लिए घरों में
कहते हैं छूंछे शब्दों के विकट शोर-शराबे में
हाशिए पर चली गई है आवाज़ छपे शब्दों की
यह भी कहते हैं कि संकट में फँसे समाज और जीवन की
छिन्न-भिन्नताओं के दौर में ही
उपजती है ताकतवर आवाज़ जो मथाती है
धरती की पीड़ा के साथ, पर इन दिनों सुनाई नहीं देती
मज़बूत और प्राणलेवा बन्द दरवाज़े हैं
अँधेरे के जैसे, वैसे ही रोशनी के भी
इन पर मस्तकों के धक्के मारते थे मदमस्त हाथी कभी
अब किताबें हाथी बनने से तो रहीं
पर बन सकती हैं चाबियाँ-
कनखजूरे निकल कर
इनमें से हलकान कर सकते हैं मस्तिष्कों को
फूट सकती है पानी की धारा इनमें से
और हाँ! आग भी निकल सकती है
इन्हीं में है अपनी पुरानी बन्द दीवार घड़ी
बमुश्किल साँस लेता हुआ
मनुष्यों का इकट्ठा चेहरा
हमारे युद्ध और छूटे हुए असबाब
हवाओं के किटकिटाते दाँतों में फँसे हमारे सपने
रोज़मर्रा के जीवन में धड़कती हमारी अनन्तता
और उन रास्तों का समूचा इतिहास
जिनसे गुज़रते यहाँ तक आए
और हज़ारों सूरज की रोशनी के नीचे
धुन्ध और धुएँ के बिछे हुए वे रास्ते भी
भविष्य जिनकी बाट जोहता है
पता नहीं अब कौन सा पुच्छलतारा
आकाश से गुजरा
कि विचारों के गर्भ-गृह के सबसे निकट होने की
ज़रूरत थी जब
आदमी पेट और देह से सट गया
और अपनी प्रतिभा के चाकुओं से जख्मी करने लगा
अपनी ही आत्मा
जो पवित्र स्थानों को मंडियों में बदल सकते हैं
उनके सामने पुस्तकों-पुस्तकालयों की क्या बिसात
जहाँ पुस्तकालय थे कभी, वहाँ अब शराबघर हैं
जुए के अड्डे, जूतों-मोजों की दुकानें हैं
और जहाँ बचे हैं पुस्तकालय वहाँ बाहर
पार्किंग ठसाठस वाहनों की
जिनसे होकर किताबों तक पहुँचना लगभग असम्भव है
भीतर सिर्फ आभास है पुस्तकालय होने का
और किताबें डूब रही हैं और जाहिर है कह नहीं सकतीं
'बचाओ! बचाओ-दुनियावालों तुम्हारे
पाँव के नीचे की धरती और चट्टान खिसक रही है।‘
अपने उत्तर आधुनिक ठाटबाट के साथ
धड़ल्ले से छपती हैं फिर भी किताबें
सजी-धजी बिकती हैं थोक बाजार में गोदामों के लिए
करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब किताबें
सर्कस का-सा भ्रम पैदा करते खड़ी हो सकती हैं
उनमें से निकल सकते हैं जेटयान, गगनचुम्बी टॉवर
कारखाने, खेल के मैदान, बगीचे, बाघ-चीते
और लकड़बग्घा हायना कहते हैं जिसे
पुस्तकें ऐसी भी जिनसे तकलीफ न हो आँखों को
खुद-ब-खुद बोलने लग जाए
चाहो जब तक सुनते रहो
दबा दो फिर बटन-अँधेरा और आवाज़ बन्द हो जाए
जिन्हें अपनी पचास साला आज़ादी ने
नहीं छुआ अभी तक भी इतना
कि वे घुस सकें पुस्तक-मेले में
उठा लें अपने हक की रोशनी 'कफन’, 'गोदान’
या मुक्तिबोध के 'अँधेरे में’ से
और वे भी जो फँसे हैं
साक्षरता-अभियान के आँकड़ों की
भूल-भुलैया में नहीं जानते
कि करोड़ों के नसीब के भक्कास अँधेरे
और गूँगेपन के खिलाफ कितना ताकतवर गुस्सा
छिपा है किताबों के शब्दों में
और दूसरे घटिया तमाशों के लिए हज़ारों के
टिकट बेचने-खरीदने वालों की जि़न्दगी में
चमकते ब्रांडों के बीच गर होती जगह थोड़ी-सी
सही किताबों के लिए
तो वे खुद देख लेते छलनाओं की भीतरघात से
हुआ फ्रेक्चर
घटिया गिरहकट किताबों के हमले से
जख्मी छायाओं की चीख सुन लेते
अपने फायदे या जीवन की चिन्ता की
जिस सीढ़ी पर होंगे जो
खरीदेंगे-ढूंढ़ेंगे वैसी ही रसद अपने लिए
सफलता और धन कमाने
और दुनिया को जीतने के रहस्यों के बाद
अंग्रेज़ी सीखने और इसका ज्ञान बढ़ाने वाली
किताबों पर टूटेगी भीड़
इन्हीं पुस्तकों में छिपा होगा कहीं न कहीं
अपनी आबादी और मातृभाषा को
विस्मृत करने का अदृश्य पाठ
फिर प्रतियोगी परीक्षाएँ, साज-सज्जा
स्वास्थ्य, सुन्दरता, सैक्स, व्यंजन पकाने की
विधियाँ, कम्प्यूटर से राष्ट्रोत्थान
धार्मिक खुराकों से मोक्ष और फूहड़ मनोरंजन
टाइम पास-जैसी किताबों के बाद भी
बचेगी लम्बी फेहरिस्त जो होगी
क्रिकेट, खेलकूद, बागवानी, बोनसाई,
अदरक, प्याज, लहसुन, नीम इत्यादि-इत्यादि के
बारे में रहस्यों को खोलने वाली
बीच में होगा आकर्षक बगीचा बच्चों के लिए
चमकती, बजती, महकती और बोलती पुस्तकों का
मुट्ठी भर बच्चे ही चुन पाएँगे जिसमें से
और जो बाहर रह जाएँगे असंख्य
उनके लिए सिसकती पड़ी रहेंगी
चरित्र-निर्माण की पोथियाँ
और अन्तिम सीढ़ी पर प्रतीक्षा करते रहेंगे
दिवंगत-जीवित कवि, कथाकार, विचारक
वहाँ भी होंगे चाहे संख्या में बहुत कम
जिनके लिए सिर्फ संघर्ष है आज का सत्य
इन्हें जो लिखेंगे क्या वे ही पढ़ेंगे?
कहेंगे जो वे ही सुनेंगे?
और जिनके लिए जीवन के महासागर से
भरी गई विराट मशकें
साँसों की धमन भट्टी से दहकाए शब्द
क्या वे कभी जान पाएँगे कब जान पाएँगे
कि उनका भी घर है भाषा के भीतर!!


संपर्क: चंद्रकांत देवताले, एफ-2/7, शक्ति नगर, उज्जैन (म.प्र.) ; मो. 09826619360


"प्रगतिशील वसुधा'' के वर्ष में सामान्यतः 4 अंक प्रकाशित होते हैं,
वसुधा के कई बहुत महत्त्व के विशेषांक भी चर्चा में रहे हैं.
यहाँ प्रस्तुत 'वसुधा-85'अप्रैल-जून 2010 का अंक है.
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पर e-mail कर सकते हैं, या
0755-2772249; 094250-13789 पर कॉल कर सकते हैं.
प्रो. कमला प्रसाद
एम.आई.जी.31,निराला नगर,भदभदा रोड,भोपाल (म.प्र.) 462003
को लिख सकते हैं ....

सोमवार, सितंबर 20, 2010

विनोद कुमार शुक्ल : कम बोलने वाले कवि की देर तक गूँजती कविता..

कई बार कविता के नाम पर होता ये है कि कवि अधिक बोलता है, कविता कुछ बोलना चाहती ही रह जाती है. विनोद कुमार शुक्ल हिंदी कविता के एक ऐसे कवि हैं जिनको कम बोलने और देर तक गूंजने वाली कविता के लिए पहचाना जाता है.

इधर की कविता में विनोद कुमार शुक्ल ऐसे कवि हैं जिनकी कविताओं से परिचय के बिना हिंदी कविता का परिचय ही पूरा नहीं होता, गद्य लेखक के रूप में भी उपन्यास हो या कहानी, उनके गद्य को लेकर, शिल्प को लेकर बात-बहस चाहे जितनी कर लीजिए पर उनके बिना हिंदी उपन्यासों पर बात पूरी नहीं नहीं होती... अपने उपन्यासों और कविताओं में अपने बेहद 'अपने' अंदाज़ के लिए, खास किस्म की सांद्रता के लिए, गहन और सूक्ष्म तरीके से अपनी संलग्नता, सरोकारों और संबद्धता को अभिव्यक्त करने के विशिष्ट अंदाज़ के लिए उन्हें जाना जाता है. अनेक काव्य संग्रहों और उपन्यासों के बीच विनोद जी की ताज़ा कवितायेँ जो पिछले दिनों उन्होंने लिखीं, यहाँ प्रस्तुत हैं. वसुधा-85 में प्रकाशित इन कविताओं के अलावा भी आप यहाँ कुछ अंतराल के बाद विनोद कुमार जी के साथ मेरी लंबी बात-चीत भी पढ़ सकेंगे.. (अगर मैं टाइप कर पाऊं तो..) .. फिलहाल पढ़िए उनकी ताज़ा, चुनिन्दा कवितायेँ...

'वसुधा' के अंकों के बारे में और जानने के लिए दायीं तरफ के कॉलम में
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विनोद कुमार शुक्ल

एक
बोलने में कम से कम बोलूँ
कभी बोलूँ, अधिकतम न बोलूँ
इतना कम कि किसी दिन एक बात
बार-बार बोलूँ
जैसे कोयल की बार-बार की कूक
फिर चुप।
मेरे अधिकतम चुप को सब जान लें
जो कहा नहीं गया, सब कह दिया गया का चुप।
पहाड़, आकाश, सूर्य, चंद्रमा के बरक्स
एक छोटा सा टिम-टिमाता
मेरा भी शाश्वत छोटा सा चुप।
गलत पर घात लगाकर हमला करने के सन्नाटे में
मेरा एक चुप-
चलने के पहले
एक बंदूक का चुप।
और बंदूक जो कभी नहीं चली
इतनी शांति का
हमेशा-की मेरी उम्मीद का चुप।
बरगद के विशाल एकांत के नीचे
सम्हाल कर रखा हुआ
जलते दिये का चुप।
भीड़ के हल्ले में
कुचलने से बचा यह मेरा चुप,
अपनों के जुलूस में बोलूँ
कि बोलने को सम्हालकर रखूँ का चुप।

दो
जितने सभ्य होते हैं
उतने अस्वाभाविक।
आदिवासी जो स्वाभाविक हैं
उन्हें हमारी तरह सभ्य होना है
हमारी तरह अस्वाभाविक।
जंगल का चंद्रमा
असम्य चंद्रमा है
इस बार पूर्णिमा के उजाले में
आदिवासी खुले में इकट्ठे होने से
डरे हुए हैं
और पेड़ों के अंधेरे में दुबके
विलाप कर रहे हैं
क्योंकि एक हत्यारा शहर
बिजली की रोशनी से
जगमगाता हुआ
सभ्यता के मंच पर बसा हुआ है।

तीन
अभी तक बारिश नहीं हुई
ओह! घर के सामने का पेड़ कट गया
कहीं यही कारण तो नहीं।
बगुले झुँड में लौटते हुए
संध्या के आकाश में
बहुत दिनों से नहीं दिखे
एक बगुला भी नहीं दिखा
बचे हुए समीप के तालाब का
थोड़ा सा जल भी सूख गया
यही कारण तो नहीं।
जुलाई हो गई
पानी अभी तक नहीं गिरा
पिछली जुलाई में
जंगल जितने बचे थे
अब उतने नहीं बचे
यही कारण तो नहीं।
आदिवासी! पेड़ तुम्हें छोड़कर नहीं गये
और तुम भी जंगल छोड़कर खुद नहीं गये
शहर के फुटपाथों पर अधनंगे बच्चे-परिवार
के साथ जाते दिखे इस साल
कहीं यही कारण तो नहीं है।
इस साल का भी अंत हो गया
परन्तु परिवार के झुंड में अबकी बार
छोटे-छोटे बच्चे नहीं दिखे
कहीं यह आदिवासियों के अंत होने का
सिलसिला तो नहीं।

चार
शहर से सोचता हूँ
कि जंगल क्या मेरी सोच से भी कट रहा है
जंगल में जंगल नहीं होंगे
तो कहाँ होंगे।
शहर की सड़कों के किनारे के पेड़ों में होंगे।
रात को सड़क के पेड़ों के नीचे
सोते हुए आदिवासी परिवार के सपने में
एक सल्फी का पेड़
और बस्तर की मैना आती है
पर नींद में स्वप्न देखते
उनकी आँखें फूट गई हैं।
परिवार का एक बूढ़ा है
और वह अभी भी देख सुन लेता है
पर स्वप्न देखते हुए आज
स्वप्न की एक सूखी टहनी से
उसकी आँख फूट गई।
***
संपर्क:
विनोद कुमार शुक्ल, सी-217, शैलेन्द्र नगर, रायपुर (छतीसगढ़).




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गुरुवार, सितंबर 09, 2010

नियाज़ हैदर की संगत में.. जावेद सिद्दीकी

शायर, लेखक और रंगकर्मी की तरह नियाज़ हैदर को जानने वाले कुछ लोग तो ज़रूर उन्हें करीब से जानते ही होंगे पर नियाज़ हैदर का नाम नई पीढ़ी के लोगों के लिए हो सकता है कुछ अनसुना सा लगे या फिल्मों के इतिहास और पटकथा, संवादों आदि के बारे में रूचि रखने वाले कुछ लोग उन्हें गहरे से न सही, पर कुछ-कुछ जानते भी हों, फिर भी इतना तो तय है कि परदे के पीछे के लोगों को दुनिया परदे पर आने वालों की तुलना में तो बहुत कम ही जानती है.

“..जब तक भूखा इंसान रहेगा, धरती पर तूफान रहेगा..” नियाज़ हैदर की एक नज़्म की ये दो पंक्तियाँ पिछले कई दशकों से जनआन्दोलनों का प्रिय नारा बनी हुई हैं। वे जितने बीहड़ किस्म के कम्युनिस्ट थे उतने ही प्रकाण्ड विद्वान। सुख सुविधा और अवसरों को ठोकर मारने वाले। यायावर, अन्वेषी तथा ज़बरदस्त सृजनात्मक क्षमताओं से सम्पन्न। शायर, लेखक, रंगकर्मी की हैसियत अपनी जगह, कट्टर किस्म के स्वाभिमानी भी थे एक मामले में नीतिगत असहमति के कारण देश के सबसे मजबूत प्रधानमंत्री से हाथ मिलाने से इंकार कर दिया था। नियाज़ हैदर को करीब से, आत्मीयता से देखते हुए जावेद सिद्दीकी को यहाँ पढ़िए.. वसुधा -85 के सौजन्य से ...


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बंजारा
जावेद सिद्दीकी

अगर सूट पहने हुए होते और ज़रा थोड़े से गोरे होते तो कोई भी कसम खा लेता कि कार्ल मार्क्स जि़न्दा हो गये हैं। वही झाड़-झन्कार दाढ़ी, वही बड़ा सा सिर, आगे से उड़े बाल और सिर के पिछले हिस्से में खिचड़ी बालों की मोटी झालर जो कानों के ऊपर से लटक कर दाढ़ी में शामिल हो गयी थी। बदन भी कुछ वैसा ही था, यानी छोटे भी थे और मोटे भी। खुदा जाने नियाज़ हैदर ने अपना हुलिया खुद बनाया था या बन गया था। सच्चाई जो भी हो वह देखने में ही निहायत मार्क्सिस्ट लगते थे। मैंने पहली बार नियाज़ हैदर को मुज़फ्फर अली के घर पर देखा था। मैं और शमा ज़ैदी, मुज़फ्फर के जुहू वाले बंगले के खूबसूरत लॉन में बैठे थे जिसमें गद्दे और गाव तकिये लगे थे। गद्दों पर चाँदनियाँ बिछी थीं और रंगीन शीशों वाले दरवाज़ों पर बारीक काम की चिकें पड़ी हुई थीं। मुज़फ्फर सदैव इस बात की कोशिश करते हैं कि उनके घर में दाखिल होने वाला हर शख्स फौरन समझ जाये कि मुज़फ्फर अपना लखनऊ हर जगह अपने साथ लेकर चलते हैं। हमारी ये मुलाकातें लगभग प्रति दिन होती थीं क्योंकि उमराव जान की शूटिंग सिर पर थी और स्क्रिप्ट के नोंक पलक ठीक किए जा रहे थे। अचानक सुभाषिनी ने दरवाजे में से मुंह निकाला और ऐलान किया 'बाबा आ रहे हैं’ बाबा का नाम सुनते ही मुज़फ्फर संभल कर ठीक होकर बैठ गये, आँखों में एक शरारत भरी सी चमक आयी और होटों पर मुस्कुराहट दौड़ गयी। शमा ने सिर टेढ़ा करके दरवाज़े की तरफ देखा और अपना कलम (पेन) बन्द करके थैले में डाल दिया।
बड़ी अहम और गरमा गरम बहस चल रही थी, इसमें इस तरह ब्रेक लगना मुझे अच्छा नहीं लगा। गुस्से में जिस तरह आधा लेटा था उसी तरह लेटा रहा। आये जिसको भी आना है, मुझे क्या?
चिक के पीछे से पहले एक निहायत मोटा सा डण्डा आया और फिर बाबा। खादी का ढीला-ढाला घुटनों तक लम्बा कुर्ता जो पहले कभी लाल रहा होगा मगर धुलते-धुलते बादामी हो गया था। बड़े पायचों का मैला सा पाजामा, कन्धे पर खादी का झोला और मामूली सी दो पट्टी वाली चप्पल। हुलिया वही था जो ऊपर बयान कर चुका हूँ। बाबा ने छोटी-छोटी चमकती हुई आँखों से सबको देखा, गले से हँसी जैसी एक आवाज़ निकाली और बोले 'आहा शमा बीबी भी हैं।‘
शमा ने आदाब किया और कहा 'ये जावेद हैं।‘
मुज़फ्फर ने डण्डा लेकर कोने में रखा और जहाँ खुद बैठते थे वहाँ बैठने का इशारा करते हुए अदब से कहा 'बैठिये बाबा।‘
बाबा ने एक निगाह, जो बज़ाहिर निगाह से कम थी मेरी तरफ डाली, हल्के से सिर हिलाया और गाव तकिये से इस तरह लग कर बैठ गये जैसे मजलिस पढऩे वाले हों। सुभाषिनी अन्दर आ गयीं: 'क्या लेंगे बाबा?’
'भई हमारी माचिस खत्म हो गयी है।‘
'अरे माचिस लाओ!’ मुज़फ्फर ने आवाज़ लगायी। माचिस आई, बाबा ने कुर्ते की जेब से बीड़ी का बन्डल निकाला एक बीड़ी चुनी और माचिस जलाकर पहले बीड़ी को सेंका और फिर सुलगाकर एक लम्बा कश लगाया। फिर बीड़ी को उंगलियों में इस तरह पकड़ लिया जैसे बिस्मिल्लाह खाँ शहनाई पकड़ते हैं, और फरमाया 'कहाँ तक पहुँची कहानी?’ 'स्क्रिप्ट तो पूरी हो गयी है, शहरयार का इन्तेज़ार है, आ जायें तो गाने भी फाइनल हो जायें।‘
'जावेद ने डायलाग बहुत अच्छे लिखे हैं बाबा।‘ मुज़फ्फर ने कहा।
'अच्छा आपने पहले क्या लिखा है मियाँ?’
'शतरंज के खिलाड़ी के डायलाग भी हम दोनों ने लिखे थे।‘ शमा ने बताया।
'बेहूदा फिल्म थी, प्रेमचन्द की कहानी का सत्तिया नास कर के रख दिया जाहिल! हाँ डायलाग ठीक-ठाक थे कम से कम ज़बान की कोई गलती नहीं थी।‘
गुस्से में मेरे होठों तक एक शब्द आया 'ईडियट मगर मुँह से निकला: 'शुक्रिया’
नियाज़ हैदर इधर-इधर की बातें करते रहे और मैं उन्हें घूरता रहा। ये हैं कौन? बातें तो ऐसी कर रहा है जैसे सारा अदब अभी-अभी पीकर आ रहा हो। ढोंगी।
बीच में थोड़ी सी तवज्जो बंट गयी थी, शायद मुज़फ्फर का बेटा शाद आ गया था और बाबा उससे बातें करने लगे थे। मैंने मौका पाकर शमा से पूछा: 'ये कौन हैं शमा?’
'अरे! तुम नहीं जानते, ये नियाज़ बाबा हैं, नियाज़ हैदर’ नियाज हैदर? मैं दिल ही दिल में अपना सिर पकड़ के बैठ गया। मुझे क्या मालूम था कि ऐसे होते हैं नियाज़ हैदर। ये थी बाबा से मेरी पहली मुलाकात।
इसके बाद बाबा से लगातार मुलाकातें होती रहीं। कभी मुज़फ्फर अली के घर पे, कभी शमा के घर पे, कभी कैफी साहब के यहाँ, और कभी पृथ्वी थियेटर पर। और जैसे-जैसे नियाज़ बाबा के साथ मुलाकातें बढ़ीं, मेरी नियाज़ मन्दी भी बढ़ती गई। जैसे-जैसे मैं उनके करीब आता गया या यूँ कहना चाहिए, जैसे-जैसे वह मेरे करीब आते गये मुझ पर राज खुलता गया कि बाबा तो बड़े बा कमाल आदमी हैं। और इस बात पर हैरत और अफसोस भी हुआ कि दुनिया उनके बारे में कितना कम जानती है। बाबा अच्छाइयों और बुराइयों का अजीबो गरीब मजमूआ (संकलन) थे। उनकी बातें सुनकर कभी डर लगता था और कभी अकीदत से सिर झुका लेने को जी चाहता था।
अल्लाह जाने कहाँ तक पढ़ा था, कोई डिग्री विग्री भी थी या नहीं, मगर बहुत कम सब्जेक्ट ऐसे थे जिन पर वह नहीं बोल सकते थे। भाषायें भी बहुत सारी जानते थे। उर्दू, फारसी, अरबी और अंग्रेजी तो जानते ही थे, थोड़ी बहुत संस्कृत, कुछ लैटिन और तेलुगू भी जानते थे। और बोलियों ठोलियों का तो जि़क्र ही क्या, अवधी से लेकर भोजपुरी तक अच्छी तरह समझते थे, बल्कि समझा भी सकते थे। याददाश्त इस $गज़ब की थी कि $खौफ आने लगता था। शायर का नाम लीजिए और कलाम का नमूना हाजि़र है। इ$कबाल उनके पसंदीदा शायर थे। मेरा $ख्याल है उन्हें इकबाल का सारा फारसी और उर्दू कलाम याद था।
बाँग-ए-दरा से ज़र्ब-ए-कलीम तक यूँ मज़े ले लेकर सुनाया करते थे, जैसे अभी रट के आये हों। बाबा के अपने कलाम में भी ल$फ्ज़ों का जो आहंग मिलता था, उनमें इकबाल की गूंज सुनाई देती थी। ये कमज़ोरी थी या खूबी, जानबूझ कर ऐसा करते थे या लाशुऊर (अवचेतन) अपना खेल दिखाता था। कुछ कहा नहीं जा सकता। मैं अक्सर उन्हें छेडऩे के लिये इ$कबाल के खिलाफ कुछ कह दिया करता था। एक बार मैंने कहा: 'इकबाल तो शायर-ए-इस्लाम हैं, मेरी समझ में नहीं आता कि आप और सरदार जाफरी जैसे कट्टर माक्र्सवादी उनकी पूजा क्यों करते हैं?’ बाबा गुस्से में लाल-पीले हो गये और पूरे दो घण्टे का एक बड़ा लेक्चर दिया जिसमें ये साबित किया कि इकबाल तरक्की पसन्द शायर थे।
उनकी फारसी का भी यही आलम था। एक दिन मैंने काआनी (फारसी का एक शायर) के कसीदे का जि़क्र किया जो मैंने मुंशी कामिल के कोर्स में पढ़ा था, और जिसका एक ही शेर याद रह गया था:
बगर दूँ तीरहे अब्र बा आमदा बरुश्द अज़ दरिया
जवाहर खेज़ व गौहर बेज़ व गौहर रेज़ व गौहर ज़ा
सुनते ही बाबा की आँखों में चमक आ गयी, सम्भल कर बैठे, एक हाथ से बालों को ठीक किया, दूसरे हाथ से हवा में बीड़ी लहराई और काआनी का करीब सौ शेर का कसीदा फर-फर सुना दिया। यही नहीं बल्कि इस ज़मीन में उर्फी और नज़ीरी ने भी जो कुछ कहा था वह भी सुना दिया। आप सोच सकते हैं कि क्या हालत हुई होगी। कबीर के दोहे, तुलसी की चौपाइयाँ और गालिब के शेर तो बातों के बीच में पके हुये आमों की तरह टपकते ही रहते थे। बाबा के गैर मामूली हाफ्ज़े (स्मरण शक्ति) और अध्ययन का असर उनकी तहरीर में साफ झलकता है, उन्होंने बहुत कम लिखा मगर जो कुछ भी लिखा खूब लिखा।
जब कुदसिया ज़ैदी ने बरतोल बर्तोल्त के नाटक- काकेशियन चाक सर्किल का अनुवाद- 'सफेद कुण्डली’ के नाम से किया तो गीत नियाज़ बाबा से लिखवाये। इस नाटक में उनके लिखे हुये कई गीत: 'सुन मेरा अफसाना रे भाई, 'चार सूरमा, 'चार जरनैल, चले ईरान, और ‘सिपहइया जल्दी आना, एक ज़माने में फिल्मी गानों की तरह मशहूर हो गये थे। बाबा की लेखनी में भी बड़ा दम-खम था। मुज़फ्फर अली का सीरियल जान-ए-आलम और श्याम बेनेगल की फिल्म 'आरोहण’ में भाषा और बयान पर बाबा की पकड़ का अंदाज़ा किया जा सकता है।
बाबा को किस्से कहानियाँ सुनाने का बड़ा शौक था। खास बात ये थी कि सुनी सुनाई नहीं सुनाते थे। अधिकतर किस्से उनके ऊपर गुज़री हुई घटनाओं या सामने होने वाले वाक्यात होते थे। एक बार उन्होंने एक कम उम्र तवायफ की कहानी सुनाई और इस तरह सुनाई थी कि आज तक मुझे याद है और दिल पर उसका असर भी है।
बाबा ने बताया कि हैदराबाद में नाचने गाने और वैश्यावृत्ति करने वालों के बाज़ार का नाम महबूब की मेंहदी है। और यहाँ एक बड़ी मज़ेदार रस्म होती है, जिसे 'दरीचे की सलामी’ कहा जाता है। जब कोई कमसिन तवायफ इस उम्र को पहुंचती है जब जिस्म के हिस्से उभरने लगते हैं, होंठ मुस्कराने लगते हैं और आँखों में एक शरारत भरी चमक आ आती है तो उसे 'दरीचे की सलामी’ के लिये तैयार किया जाता है। कई दिन पहले से जश्न शुरू होता है। साहिबे-ज़ौक और साहिब-ए-नज़र सरपरस्तों को खबर भिजवायी जाती है, दूर-दूर तक निमंत्रण भेजे जाते हैं। करीबी, रिश्तेदार, पड़ोसी और हम पेशा औरतें जमा होना शुरू हो जाती हैं। रतजगे होते हैं, पकवान पकते हैं, मुसलमान वेश्याओं के कोठों पर मजलिसें और मीलाद शरीफ भी होते हैं। जिस लड़की की रस्म होने वाली होती है उसकी नाक में एक बड़ी सी नथ पहनाकर सात दरगाहों पर ले जाया जाता है फिर उसे दुल्हन बनाया जाता है, हालात के मुताबिक आभूषण, कपड़े पहनाये जाते हैं, फूलों के आभूषणों से सजाया जाता है और जब सूरज के जाने और शमाओं के आँखें खोलने का समय होता है तो कमसिन वैश्या की आरती उतारी जाती है, नज़र का टीका लगाया जाता है। और वह उस दरीचे को जो आगे के जीवन में उसे रोज़ी-रोटी और खुशी देने वाला है, झुककर सात सलाम करती है। और उस झरोखे में बैठकर एक नयी रोशनी में उन असंख्य तमाशबीनों को देखती है जिन में से बहुत से वह होते हैं जिनकी आँखों में दिल होते हैं और बहुत से वह भी होते जिनके पास दिल नहीं होते मगर जेब में माल बहुत होता है और फिर नथ उतारने वालों की बोली लगती है।
बाबा ने जिस लड़की की कहानी सुनाई थी उसका (क्लाइमेक्स) ये नहीं था। उन्होंने कहा कि जब उस लड़की को दरीचे पर लाके बिठाया गया तो वह बहुत देर तक चुपचाप बैठी रही। अचानक वह खड़ी हुई, उसने दरीचे की जाली को हाथ लगाकर अपने माथे से छुआ और एक दम से नीचे छलांग लगा दी। इस बाज़ार में पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था, इसलिये चारों तरफ सनसनी फैल गयी। जिसने सुना वह दौड़ा आया ताकि उस पागल लड़की को देख सके जिसने शोहरत और दौलत के शिखर से कूद कर आत्महत्या करने की कोशिश की थी। वह लड़की मरी नहीं, बच गयी। मगर उसकी टांगें टूट गयी थी। बाद में वह लड़की, लंगड़ी खुर्शीद के नाम से मशहूर हुई और अपने समय में 'महबूब की मेंहदी’ की बेहद मशहूर गानेवालियों में उसकी गिनती होती है।
मुझे बाबा का सुनाया हुआ एक और किस्सा याद आ रहा है।
हुआ यूँ कि बाबा दिल्ली में थे। एक दिन उसका फोन आया और उन्होंने बताया कि वह बम्बई आ रहे हैं। उन्होंने अपनी रवानगी (प्रस्थान) का दिन और तारी$ख बताई और तय किया कि दो दिन बाद मुझसे मुला$कात करेंगे। दो दिन गुज़र गये, चार दिन गुज़र गये, ह$फ्ता होने को आया मगर बाबा का कोई पता नहीं था। मैंने इधर-उधर मालूम किया तो बताया गया कि बाबा आये ही नहीं हैं। मैंने दिल्ली फोन किया तो $खबर मिली कि वह वहाँ से चल चुके हैं। अब हम सब ज़रा परेशान हुए हालाँकि परेशानी की कोई बात नहीं थी क्योंकि वह अक्सर ऐसी हरकतें किया करते थे। निकलते थे कहीं जाने के लिये और पहुंच जाते थे कहीं और। मगर डर यह भी था कि वह ट्रेन में अकेले थे। उन्हें सांस की बीमारी थी, और ब्लड प्रेशर की भी। अगर रास्ते में कुछ हो गया तो क्या होगा, मगर सिवाये सब्र करने और परेशान होने के रास्ता भी क्या था। इसलिये चुप-चाप बैठे रहे और दुआएँ करते रहे कि बड़े मियाँ खैरियत से पहुंच जायें।
कोई दस दिन बाद अचानक शमा के घर पर नुमूदार हुए। मैं और शमा तो उन पर बरस ही पड़े, 'ये कोई तरीका है, अगर बम्बई नहीं आना था तो फोन क्यों किया था? और अगर इरादा बदल गया था तो दूसरा फोन करके क्यों नहीं बताया।‘
बाबा पर हमारी डांट डपट का कोई असर नहीं हुआ। वह बड़े प्यार से मुस्कुराये 'अरे छोड़ो यार! एक अच्छी वाली चाय पिलाओ तो एक ऐसा किस्सा सुनाता हूँ कि इस पर फिल्म बन सकती है।‘
बाबा ने सुनाया कि मेरठ के पास ग्राण्ड ट्रक रोड के पास दोनों तरफ आमने-सामने दो गांव हैं। (गांव का नाम तो अब मुझे याद नहीं रहा) मगर नाम एक ही था, एक गांव छोटा कहलाता था दूसरा बड़ा। जो गांव बड़ा था वह हिन्दुओं का था और छोटे गांव में मुसलमानों की आबादी ज़्यादा थी। वहां कोई सवा सौ साल से एक रस्म अदा की जाती है।
हर ब$करीद पर हिन्दुओं के गांव से एक गाय, कुर्बानी के लिए मुस्लिम गांव में भेजी जाती है। ब$करीद के दिन सवेरे-सवेरे हिन्दू गांव में गाय को सजाया संवारा जाता है, उसकी पीठ पर नयी झोल डाली जाती है, गले में हार होते हैं, सींग और दुम पर रंगीन रिबन और गोटे से सजावट की जाती है। उसकी आरती उतारी जाती है और फिर ये गाय बैण्ड बाजे और सैकड़ों गांव वालों के साथ किसी दुल्हन की तरह, मुसलमानों के गांव लाई जाती है। गांव के मुसलमान गाय का हार फूल से स्वागत करते हैं। साथ ही आने वालों को मिठाईयाँ बाँटी जाती हैं। फिर गाय को एक चबूतरे पर खड़ा कर दिया जाता है, जिसके चारों तरफ सारे गांव वाले जमा हो जाते हैं। गांव का कसाई, गाय की गर्दन पर छुरी रखता है और कलमा पढ़ के हटा लेता है। फूलों से लदी फदी गाय और उसके साथ आने वाले, तोहफे और मिठाईयाँ लेकर अपने गांव वापस आ जाते हैं।
बाबा ने मुझे बताया कि 1857 ई. में जब अंग्रेज हिन्दू और मुसलमानों को लड़ाने के लिए गाय की कुर्बानी का मसला छेड़ रहे थे और जगह-जगह हिन्दू-मुस्लिम झगड़े हो रहे थे उस समय इस छोटे से गांव के जमींदार ने कहा कि हम अपनी गाय कुर्बानी के लिए दे सकते हैं मगर अपनी एकता की कुर्बानी नहीं दे सकते। और तब से यह खूबसूरत रस्म हर साल इसी तरह निभायी जाती है। (किसी पाठक को जी.टी. रोड पर बसे हुये इन दो गांवों के बारे में मालूम हो तो मुझे अवश्य सूचना दें, एहसान मन्द रहूंगा) बाबा को ये कहानी किसी ने ट्रेन में सुनाई थी और वह इस रस्म की सच्चाई मालूम करने उस गांव में जा पहुंचे थे।
बाबा स्वभाव के ऐतबार से काफी बोहेमियन थे। उन्होंने जि़न्दगी भर घर बनाने या घर बसाने की कोई कोशिश नहीं की। वह जीवन की तेज़ धारा में एक तिनके की तरह थे, जो स्वयं को लहरों के सहारे छोड़ देता है। और सदैव एक मंजिल की तलाश में मुब्तिला रहता है। $गालिब ने शायद नियाज़ बाबा के लिए ही कहा था।
रौ में है रक्से उम्र कहां देखिये थके
नै हात बाग पर है, न पा है रकाब में
वह अक्सर कहा करते थे 'मैं तो बंजारा हूँ, खाना बदोश।‘
मेरी समझ में आज तक नहीं आया कि बाबा में क्या खास बात थी, जिसकी वजह से जो भी उनसे मिलता था उन्हीं का हो जाता था। बाबा के चाहने वाले हज़ारों थे और भांति-भांति के थे। सज्जाद ज़हीर से लेकर कुदसिया ज़ैदी तक, मुज़फ्फर अली से लेकर श्याम बेनेगल तक, और शशि कपूर से लेकर शमा ज़ैदी तक।
कभी-कभी एक आध झलकी बाबा के व्यक्तित्व में छुपी हुई, मक्नातीस (चुम्बक) की भी दिखाई दे जाती थी।
एक शाम मैं कोई नाटक देखकर पृथ्वी थियेटर से बाहर निकला देखा कि पत्थर की सीढिय़ों पर बाबा बैठे हुए हैं, और हाथों में बीड़ी सुलग रही है। देखते ही खड़े हो गये, बड़े प्यार से गले लगाया और कहने लगे 'अरे यार जावेद! बहुत अच्छा हुआ जो तुम मिल गये मैं तुम्हीं को याद कर रहा था। दुल्हन कहाँ है? (मेरी बीबी फरीदा) मैंने कहा 'वह तो आज नहीं आयी।‘
कहने लगे 'अरे ये तो बड़ा नुकसान हो गया। मैंने थोड़ा परेशान होते हुए पूछा, 'क्यों क्या हो गया?’ मेरे पूछने पर बोले 'भई दुल्हन जो है, वह हमारी खजांची है। जब कभी पैसों की ज़रूरत होती है। उससे ले लेते हैं। तुम्हारे पास तो होंगे नहीं।‘ मैंने कहा थोड़े बहुत हैं आपको कितने चाहिये?’ कहने लगे 'हमें तो एक पैसा भी नहीं चाहिये बस- शराब पीनी है अगर पिला सको तो पिला दो अल्लाह भला करेगा।‘
मैं और बाबा पृथ्वी थियेटर से बाहर निकले, वहीं करीब में एक बार था उसमें घुस गये। बार का बंगाली मालिक लपकता हुआ आया, बाबा की खैर-खैरियत पूछी, फिर दरियाफ्त किया 'क्या पियेंगे?’
बाबा ने बड़ी अदा से किया 'व्हिस्की!’ बंगाली कुछ परेशान हो गया 'व्हिस्की?’
बाबा मुस्कराये और बोले 'आज जावेद मियाँ पिला रहे हैं इसलिये ठर्रा नहीं पियेंगे।‘
बंगाली परेशानी से इधर-उधर देखता रहा फिर धीरे से बोला 'बाबा आज व्हिस्की ठर्रा कुछ नहीं मिल सकता। क्यों नहीं मिल सकता? 'ड्राई डे है बाबा!’ बंगाली ने कहा, बाबा परेशान हो गये, 'अब इस सरकारी कमीनेपन को क्या कहा जाये कि जिस लीडर की याद में ड्राई डे रखा गया है वह बहुत बड़ा आदमी था, उसकी मौत का गम दूर करने के लिये शराब से बढ़कर कोई चीज़ नहीं हो सकती मगर इन गधों को कौन समझाये कि जिन्हें प्यासा मार रहे हैं वह मरने वाले को याद नहीं करेंगे, फरियाद करेंगे।Ó
बंगाली सिर खुजाता हुआ चला गया, मैंने पूछा, 'अब?Ó थोड़ी देर सोचते रहे फिर पूछा, 'क्या बजा है? मैंने कहा: दस बज रहे हैंÓ। कहने लगे: चलो कैफी के घर चलते हैं। वह पी रहा होगा।‘ हम दोनों पैदल चलते हुए जानकी कुटीर पहुंचे और कैफी साहब के दरवाज़े पर लगे हुए जहाँगीरी घण्टे की रस्सी खींची।
घण्टा देर तक बजता रहा मगर कोई गेट खोलने नहीं आया। मैंने कहा बाबा अंदर अंधेरा है लगता है कैफी साहब बाहर गये हैं, बाबा ने उचक कर अंदर झांका, अपने मोटे से डण्डे से लकड़ी के गेट को ठोंका और फरमाया, 'कमरा बंद करके बैठा होगा आज ज़रा सर्दी है ना!’ देर तक घण्टा बजाने के बाद एक नौकर आँखें मलता हुआ नुमूदार हुआ और गेट खोले ब$गैर ही कहने लगा, 'साहब और आपा बाहर गये हुए हैं’, 'कब आयेंगे?’ 'ये तो मालूम नहीं’
बाबा कुछ झुँझला से गये। धीरे-धीरे आगे बढ़े, अचानक आँखों में चमक आयी, कहने लगे, 'आदिल’। विश्वामित्र आदिल का घर सामने ही था मगर उनके बरामदे में भी एक नन्हा सा बल्ब जल रहा था जिससे मालूम होता था कि वह लोग भी नहीं हैं।
बाबा ने सिर हिलाया 'ये भी नहीं है। लगता है कैफी के साथ गया होगा।‘ मैंने घड़ी देखी ग्यारह बजने वाले थे, पृथ्वी की भीड़ भी जा चुकी थी। मैंने बाबा की तरफ देखा अचानक रुके। कहने लगे, 'रिक्शा पकड़ लो, मज़रूह साहब के घर चलते हैं। ज़रा कंजूस ज़रूर हैं मगर इतने कंजूस भी नहीं हैं, कि घर आये मेहमानों को दो पैग न पिला सकें चलो-चलो जल्दी करो।‘
मज़रूह साहब का बंगला जुहू के दक्षिणी किनारे पर लगभग आखिरी बंगला था। लेकिन ज़्यादा दूर नहीं था इसलिये जल्दी से पहुंच गये।
घण्टी बजाई, दरवाज़ा खुला, फिरदौस भाभी ने बड़े तपाक से बाबा का स्वागत किया और ड्राइंग रूम में बिठाया। बाबा के चेहरे की मुस्कुराहट कह रही थी, 'देखा आखिर कामयाबी ने कदम चूम ही लिये।‘
फिरदौस भाभी ने पूछा, 'क्या पियेंगे नियाज़ भाई?’ 'मज़रूह कहाँ है?’ बाबा ने पूछा। 'सुबह से बुखार है, सो गये हैं।‘ बाबा का चेहरा देखने लायक था। वह कभी मुझे देखते थे कभी सामने खड़ी फिरदौस भाभी को। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह दिल की बात ज़बान पर लायें या न लायें। अचानक वह खड़े हो गये, 'आदाब कह देना’ और जवाब का इंतज़ार किये बगैर बाहर निकल आये। तब तक रात के बारह बज रहे थे। और हम दोनों जुहू तारा की सड़क पर उन लुटे हुए मुसाफिरों की तरह चल रहे थे जिस के पास न सिर छिपाने का ठिकाना होता है और न कोई उम्मीद!
बड़ी हिम्मत करके मैंने कहा, 'बाबा मैं निकल जाऊँ? कुर्ला पहुंचना है सान्ताक्रूज़ से आखिरी बस मिल जायेगी।‘
बाबा वहीं बीच सड़क पर रुक गये और गरज कर बोले, 'बिल्कुल नहीं! अब तो जि़द आ गयी है जब तक पी नहीं लेंगे तब तक न आप कहीं जायेंगे और न हम।‘
मैं बोल भी क्या सकता था। एक तो अकीदत ऊपर से यह खौफ कि बड़े मियाँ को अकेला छोड़ दिया तो खुदा जाने कहाँ जायें, क्या करें, इसलिये चुप-चाप चलता रहा। चलते-चलते हम लोग जुहू बीच के पास आ गये तब तक बाबा की सारी बीडिय़ाँ खत्म हो चुकी थीं, और सारी गालियाँ भी! अचानक उनके चेहरे से ऐसी रौशनी फूटी जैसे साठ वाट का बल्ब जल गया हो। बहुत ज़ोर से मेरी कमर पर हाथ मारा और कहा, 'वापस।‘ जुहू कोली बाड़ा और उसके आस-पास बहुत सी छोटी मोटी गलियाँ हैं बाबा ऐसी एक गली में घुस गये। दूर-दूर तक अंधेरा था, दो बल्ब जल रहे थे मगर वह रौशनी देने के बजाये तन्हाई और सन्नाटे के एहसास को बढ़ा रहे थे। बाबा थोड़ी दूर चलते फिर रुक जाते, घरों को गौर से देखते और आगे बढ़ जाते।
अचानक वह रुक गये, सामने एक कम्पाउण्ड था जिसके अंदर दस-बारह घर दिखाई दे रहे थे। इनमें से कोई भी घर एक मंजि़ल से अधिक नहीं था और बीच में छोटा सा मैदान पड़ा था जिसमें एक कुआँ भी दिखाई दे रहा था। बाबा ने कहा 'यही है’ और गेट के अंदर घुस गये। मैं भी पीछे-पीछे था मगर डर रहा था कि आज ये हज़रत ज़रूर पिटवायेंगे। बाबा कम्पाउण्ड के बीच में खड़े हो गये। चारों तरफ सन्नाटा था। किसी घर में रौशनी नहीं थी। बाबा ने ज़ोर से आवाज़ लगाई, 'लारेन्स-लारेन्स’ अचानक एक झोपड़े नुमा घर में रोशनी जली, दरवाज़ा खुला और एक लम्बा-चौड़ा बड़ी सी तोंद वाला आदमी बाहर आया, जिसने एक गंदा सा नेकर और एक धारीदार बनियान पहन रखा था।
जैसे ही उसने बाबा को देखा एक अजीब सी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर फैल गयी, 'अरे बाबा। किधर है तुम? कितना टाइम के बाद आया है?’ ये कहते-कहते उसने बाबा को दबोच लिया और फिर ज़ोर-ज़ोर से गवानी भाषा में चीखने लगा। उसने बाबा का हाथ पकड़ा और अंदर की तरफ खींचने लगा, 'आओ आओ अंदर बैठो, चलो, चलो’ फिर वह मेरी तरफ मुड़ा 'आप भी आओ साब! आजाओ आजाओ अपना ही घर है।‘ हम तीनों एक कमरे में दाखिल हुए जहां दो तीन मेज़ें थीं, कुछ कुर्सियाँ और एक सोफा। अंदर एक दरवाज़ा था जिस पर परदा पड़ा हुआ था। बाबा पूछ रहे थे, 'कैसा है तू लारेन्स? माँ कैसी है? बच्चा लोग कैसा है?’
इतनी देर में अंदर का परदा खुला और बहुत से चेहरे दिखाई देने लगे। एक बूढ़ी औरत एक मैली सी मैक्सी पहने बाहर आई और बाबा के पैरों पर झुक गई। बाबा ने उसकी खैर खैरियत पूछी, बच्चों के सिर पे हाथ फेरा और जब ये हंगामा $खत्म हुआ तो लारेन्स ने पूछा, 'क्या पियेंगे बाबा?’
'व्हिस्की!’ बाबा ने कहा
लारेन्स अंदर गया और विहस्की की एक बोतल टेबिल पे ला के रख दी। इसके बाद दो गिलास थे, कुछ चने कुछ नमक, सोडे और पानी की बोतलें। बाबा ने पैग बनाया, लारेन्स अलादीन के जिन की तरह हाथ बांध कर सामने खड़ा हो गया, 'और क्या खाने का है बाबा? माँ मच्छी बनाती, और कुछ चाहिये तो बोलो कोमड़ी (मुर्गी) खाने का मूड है?’ बाबा ने मुझ से पूछा, 'बोलो बोलो भई क्या खाओगे?’
मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि बाबा की इतनी आव भगत क्यों हो रही है। अगर ऐसा भी होता कि वह लारेन्स के मुस्तिकल ग्राहकों में से एक होते तो भी रात के दो बजे ऐसी खातिर तो कहीं नहीं होती। यहां तो ऐसा लग रहा था जैसे बाबा अपनी ससुराल में आ गये हों।
थोड़ी देर में मछली भी आ गयी, उबले हुए अण्डे भी और पाव भी। बहरहाल मुझसे बरदाश्त नहीं हुआ, खाना खाते हुए मैंने बाबा से पूछा, 'बाबा अब इस राज़ से पर्दा उठा दीजिए कि इस लारेन्स और उसकी माँ से आपका क्या रिश्ता है?’
कहानी ये सामने आई कि वर्षों पहले जब बाबा अपनी हर शाम लारेन्स के अड्डे पर गुज़ारा करते थे तो एक दिन जब लारेन्स कहीं बाहर गया हुआ था तो उसकी माँ के पेट में दर्द उठा था, दर्द इतना तेज़ था कि वह बेहोश हो गयी थी। उस वक्त बाबा उसे अपने साथ लेकर अस्पताल पहुंचे, पता लगा कि अपेंडिक्स फट गया है, केस बहुत सीरियस था ऑपरेशन उसी वक्त होना था वरना मौत यकीनी थी। बाबा ने डॉक्टर से कहा आप ऑपरेशन की तैयारी कीजिये और न जाने कहां से और किन दोस्तों से पैसे जमा करके लाये, बुढिय़ा का ऑपरेशन कराया और जब लारेन्स अस्पताल पहुंचा तो उसे खुश खबरी मिली कि उसकी माँ मौत के दरवाजे पे दस्तक दे वापस आ चुकी है।
............ थैंक्स टु नियाज़ बाबा................
इस कहानी में एक खास बात ये है कि लारेन्स और उसकी माँ के बार-बार खुशामद करने के बाद भी बाबा ने वह पैसे कभी वापस नहीं लिये जो उन्होंने अस्पताल में भरे थे।
सुबह तीन बजे के करीब जब बाबा को लेकर बाहर निकल रहा था तो मैंने पलट कर देखा था, लारेन्स की माँ अपनी आँखें पोछ रही थी और लारेन्स अपने हाथ जोड़े सिर झुकाये इस तरह खड़ा था जैसे किसी चर्च में खड़ा हो। बाबा का एक मज़ेदार किस्सा हरी भाई (संजीव कुमार) ने मुझे सुनाया था।
जब तक विश्वामित्र आदिल बम्बई में रहे हर साल इप्टा की 'दावत-ए-शीराज़Ó उनके घर पर होती रही। हर नया और पुराना इप्टा वाला अपना खाना और अपनी शराब लेकर आता था और इस महफिल में शरीक होता था। सारी शराब और सारे खाने एक बड़ी सी मेज़ पर चुन दिये जाते और जिसका जो जी चाहता खा लेता और जो पसन्द आता वह पी लेता। ये एक अजीबो गरीब महफिल होती थी। जिसमें गाना, बजाना, नाचना, लतीफे, चुटकुले, ड्रामे सभी कुछ होता था। और बहुत कम ऐसे इप्टा वाले होते जो इसमें शरीक न होते हों। ऐसी ही एक 'दावते शीराज़Ó में हरी भाई नियाज़ बाबा से टकरा गये और जब पार्टी खत्म हो गई तो अपने साथ अपने घर ले गये। हरी भाई देर से सोते थे और देर से जागते थे। इसलिये वहाँ भी सुबह तक महफिल जमी रही। पता नहीं किस समय हरी भाई सोने के लिये चले गये और बाबा वहीं कालीन पे लेट गये। दूसरे दिन दोपहर में हरी भाई सोकर उठे और रोज़ाना की तरह तैयार होने के लिए अपने बाथरूम में गये। मगर जब उन्होंने पहनने के लिए अपने कपड़े उठाने चाहे तो हैरान हो गये, क्योंकि वहाँ बाबा का मैला कुर्ता पाजामा रखा हुआ था और हरी भाई का सिल्क का कुर्ता और लुंगी $गायब थे।
हरी भाई ने नौकर से पूछा तो यह बात मालूम हुई कि वह मेहमान जो रात को आये थे सुबह सवेरे नहा धोकर सिल्क का लुंगी कुर्ता पहन के रु$ख्सत हो चुके हैं।
कहानी यहाँ $खत्म नहीं होती है।
इस कहानी का दूसरा हिस्सा ये है कि कोई दो महीने बाद एक दिन अचानक नियाज़ बाबा हरी भाई के घर जा धमके और छूटते ही पूछा, 'अरे यार हरी! पिछली दफा जब हम आये थे तो अपना एक जोड़ा कपड़ा छोड़ गये थे वह कहाँ है?’ हरी भाई ने कहा, 'आपके कपड़े तो मैंने धुलवा के रख लिये हैं मगर आप जो मेरा लुंगी कुर्ता पहन के चले गये थे वह कहाँ है?’
बाबा ने बड़ी मासूमियत से अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरा, सिर खुजाया और बोले, 'हमें क्या मालूम तुम्हारा लुंगी कुर्ता कहाँ है? हम कोई एक जगह कपड़े थोड़ी बदलते हैं?’
हरी भाई जब भी ये किस्सा सुनाते थे बाबा का जुमला याद करके वे बेतहाशा हंसने लगते थे। बाबा के छोटे-मोटे चुटकुले तो इतने हैं कि किताब तैयार हो सकती है। मगर चलते-चलते एक ऐसा किस्सा सुन लीजिए जिससे उनके व्यक्तित्व के एक और पहलू पर प्रकाश पड़ता है।
एक दिन बाबा मिले तो बहुत खिले-खिले से थे, कुछ धुले-धुलाये भी लग रहे थे। मैंने वजह पूछी तो कहने लगे, 'अरे तुम्हें नहीं मालूम श्याम हम से अपनी फिल्म लिखवा रहा है।‘
पूछा, 'श्याम कौन?’
कहने लगे, 'ओफ्फोह श्याम बेनेगल और कौन? भई बहुत अच्छा आदमी है। जितना अच्छा डायरेक्टर है उससे भी ज़्यादा अच्छा इंसान है। उसने हमें अपने आफिस में एक मेज दे दी है और होटल में खाने का प्रबन्ध कर दिया है। सुबह जाते हैं तो मेज़ पर बीड़ी के दो बण्डल और माचिस भी मिलती है। और चाय तो दिन भर आफिस में बनती रहती है और क्या बतायें, हम आजकल ऐश कर रहे हैं।‘
मैंने बाबा को मुबारक बाद दी और दबी जुबान से कहा, 'आपको अपनी सलाहियत दिखाने का बेहतरीन मौका मिला है इसे बीच में छोड़ के भाग मत जाइयेगा जैसा कि आपकी आदत है।‘
कुछ दिन बाद की बात है, मैं शमा के घर बैठा हुआ था। हम दोनों किसी स्क्रिप्ट पर काम कर रहे थे कि अचानक आ धमके। न जाने कहाँ से आ रहे थे, बुरी तरह हांफ रहे थे और काफी उजड़े-उजड़े लग रहे थे। जब पानी वानी पी चुके थे तो हमने खैरियत पूछी, फरमाया, 'अजीब आदमी है बात को समझता ही नहीं है। अरे दो वक्त खाने और दो बण्डल बीड़ी से जि़न्दगी थोड़ी गुज़र सकती है।‘ शमा ने पूछा, 'क्या श्याम ने कुछ कह दिया बाबा’
'अरे कहे तो तब, जब सुने। वह सुनता ही नहीं।‘
'क्या नहीं सुनता।‘ मैंने पूछा
'अरे भई हमें पैसे की ज़रूरत पड़ती है और भी तो पचास ज़रूरतें हैं कि नहीं?’
शमा ने कहा, 'मगर ये बात तो मेरे सामने तय हुई थी कि आपको कैश नहीं दिया जायेगा, क्योंकि आप उसकी शराब पी डालेंगे! और काम अधूरा छोड़कर चले जायेंगे। बाबा, गुस्से में लाल हो गये, बीड़ी जो अभी-अभी सुलगाई थी उसे चाय की प्याली में बुझा दिया और गरजकर बोले, 'कैसे बातें करती हो शमा बीबी। हमारी शराब से हमारे काम का क्या ताल्लुक है? तुम ने तो देखा था बेगम साहिबा (बेगम कुदसिया ज़ैदी, शमा ज़ैदी की वालिदा) के लिये हमने कितना काम किया। क्या उन्होंने हमारी शराब बन्द करवाई थी?’
शमा अचानक बहुत ज़ोर से हंसी और मेरी तरफ मुड़ के बोली, 'तुम को मालूम है जावेद! हमारी अम्मा उनसे कैसे काम करवाती थी। इन्हें कमरे में बन्द कर देती थीं और खिड़की के बाहर उनकी पहुंच से दूर एक बोतल रख दिया करती थीं और कहती थी कि काम खत्म करोगे तभी ये बोतल तुम्हारे पास आयेगी। ये बहुत चीखते थे मगर हमारी अम्मी पर उनकी किसी बात का कोई असर नहीं होता था।‘
बाबा को भी पुराने दिन याद आ गये, 'बहुत ज़ोर से कहकहा लगाया और फरमाया, 'तो हम कहाँ कहते हैं कि काम के बीच में पीयेंगे मगर शाम के लिये तो पैसे मिलने ही चाहिये। पैसों पर हमें याद आया, अरे भाई बाहर एक टैक्सी खड़ी है उसका किराया भिजवा देना!’
मैं बाहर निकला, टैक्सी वाले से पूछा, 'किराया कितना हुआ?Ó
कहने लगा, 'एक सौ सत्तर रुपये’
'एक सौ सत्तर?’ मैंने हैरान होकर पूछा।
टैक्सी वाला बाहर निकल आया, 'आप खुद देख लो साब! मीटर अभी तक चल रहा है।‘ मुझे मालूम था कि बाबा वरली पर एक गेस्ट हाउस में रहते हैं मगर ये वह ज़माना था जब वरली से जुहू तक का टैक्सी का किराया पच्चीस तीस रुपये होता था, इसलिये एक सौ सत्तर सुनकर मेरी हैरत ठीक थी।
मीटर भी झूठ नहीं बोल रहा था, मगर ये कैसे हो सकता है। मैंने कहा, 'मगर मेरे भाई वरली से यहाँ तक इतने बहुत से पैसे कैसे हो सकते हैं?’ टैक्सी वाला चिढ़ गया, 'क्या बात करते हैं साब? सवेरे नौ बजे गाड़ी पकड़ी थी, किधर-किधर जाके आये हैं, साब मजगांव, माहिम, बान्द्रा और सब जगह पे मेरे को रोक के रखा।‘
मैं समझ गया और मैंने चुप-चाप एक सौ सत्तर रुपये अदा कर दिये मगर गुस्सा बहुत आया। ये क्या तरीका है, जेब में पैसे नहीं तो टैक्सी में घूमने की क्या ज़रूरत है, मगर वह ऐसी छोटी-छोटी बातों की परवाह करते तो नियाज़ हैदर काहे को होते।
श्याम बाबू को बुरा भला कहने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह कई महीनों जारी रहा। जब भी मिलते बेनेगल की शान में ऐसे $कसीदे पढ़ते कि लिखे नहीं जा सकते। शिकायत एक ही थी कि बाबा के चीखने चिल्लाने डराने धमकाने और खुशामद के बावजूद श्याम बेनेगल ने उन्हें पैसे नहीं दिये थे।
फिर एक दिन यूँ हुआ कि मैं रोजाना की तरह शमा के घर बैठा हुआ था जो एक तरीके से हमारा आफिस बन चुका था। एम.एस. सथ्यू भी बंगलौर से आये हुए थे और कुछ बहुत मज़ेदार बातें हो रही थीं कि बाबा प्रकट हो गये। उस दिन भी वह हांफ रहे थे और पसीने में तर थे। आते ही उन्होंने अपनी फूली हुई सांसों में श्याम को बुरा भला कहना शुरू कर दिया, 'मुझे आज तक किसी ने इतना परेशान नहीं किया जितना इस आदमी ने किया है। मेरी समझ में इसकी कोई भी बात नहीं आती।‘
'अब क्या कर दिया श्याम ने?’ शमा कुछ उखड़ सी गयीं।
बाबा बैठे से खड़े हो गये, जेब में हाथ डाला और दस हज़ार रुपये निकाल कर बोले, 'ये देखो इस नालायक आदमी ने ये रुपये मुझे थमा दिये। अब तुम बताओ मैं इनका क्या करूँ?’
हम तीनों एक दूसरे का मुँह देखने लगे। क्या आदमी है भई, नहीं मिला था तो भी नाराज़ और अब मिलने पर भी नाराज़। शमा ने कहा, 'ये आपके काम की मेहनत है खर्च कीजिए!’ 'वही तो पूछ रहा हूँ कहाँ खर्च करूँ?’ बाबा ने पूछा। सथ्यू ने अपनी दाढ़ी खुजाई और कुछ सोचते हुए बोले 'आपको किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है क्या?’ बाबा ने कहा, 'ऐसी कोई ज़रूरत नहीं है कि इतने बहुत से पैसों की ज़रूरत पड़े।‘ शमा ने राय दी, 'सबसे पहले तो आप अपने लिये कुछ कपड़े बनवा लीजिए’
बाबा खुश हो गये, कहने लगे, 'हाँ ये बहुत अच्छी बात है। हमारे पास दो ही कुरते रह गये हैं।‘
'और कुछ’ सथ्यू ने पूछा।
वह कुछ देर सोचते रहे फिर बोले, 'हैदराबाद में मेरी एक बहन रहती हैं, अगर किसी सूरत से उनका पता मालूम हो सके तो एक हज़ार रुपये उनको भिजवा दूँ। 'और कुछ?’ 'और कुछ नहीं।‘
'तो एक काम करते हैं।‘ सथ्यू ने कहा, 'हज़ार बहन के, पन्द्रह सौ कपड़े के और ये बाकी के साढ़े सात हज़ार रुपये बैंक में जमा करा देते हैं।‘
'मगर बैंक में तो हमारा खाता नहीं है।‘ 'ये कौन सी बड़ी बात है?’ सथ्यू ने कहा 'चलिये उठिये।‘
सथ्यू बाबा को लेकर अपने बैंक में गये और पूरे साढ़े सात हज़ार रुपये जमा करके बाबा को भी सरमायादारों की फेहरिस्त में खड़ा कर दिया। आपको लग रहा होगा कि ये दिलचस्प कहानी यहाँ खत्म हो गयी। जी नहीं! इसका आिखरी हिस्सा बाकी है।
इस घटना के कोई तीन महीने बाद एक दिन दोपहर बाद नियाज़ बाबा शमा के घर में इस तरह दाखि़ल हुए कि उनके आगे-आगे एक दस ग्यारह बरस का लड़का उनका झोला और डण्डा उठाये हुए चल रहा था और पीछे एक पतली-दुबली खादी की सफेद साड़ी में लिपटी हुई सांवली सी लड़की थी जिसकी उम्र सत्ताईस से अधिक न होगी।
ये बात तो फौरन समझ में आ गयी कि अपना वजन उठाने के लिये बाबा ने एक छोकरा रख लिया है मगर ये लड़की कौन है? जो खादी की सफेद साड़ी में कांग्रेस सेवा दल की वर्कर मालूम होती है। वह लड़का तो बाबा का सामान रख के किचन की तरफ िखसक गया, बाबा खुद दीवान पर फैल कर बैठ गये और लड़की से कहने लगे, 'जाओ-जाओ तुम अंदर चली जाओ और आराम करो, बहुत थक गयी हो।‘
वह लड़की भी बगैर एक शब्द कहे हुए शमा के बेडरूम में गयी और बिस्तर पर जाके लेट गयी।
दिल में तरह-तरह के $ख्याल आ रहे थे। कहीं अनहोनी तो नहीं हो गयी, बड़े मियाँ ने इस उम्र में किसी का हाथ तो नहीं थाम लिया। मुझे बाबा की हालत भी बेहतर लग रही थी, कपड़े साफ सुथरे थे और इस्तरी किये हुए थे, दाढ़ी और बालों पर कैंची चलने के आसार दिखाई दे रहे थे। चेहरे पर वैसी ही चमक थी जैसी पुराने पीतल पे पालिश करने के बाद आती है। हद तो ये थी कि उनके गंदे मैले नाखून भी कटे हुए थे।
बाबा थे कि लहक-लहक कर इधर-उधर की बातें कर रहे थे मगर मेरे दिमाग में वही लड़की घूम रही थी जो अंदर सो रही थी। जब सस्पेंस बहुत अधिक बढ़ गया तो शमा ने मुझे इशारा किया और मैंने पूछ ही लिया, 'बाबा ये साहिबज़ादी कौन हैं?’
'ये! ये मेरी मीरा है। बहुत पढ़ी लिखी लड़की है, इसने हिन्दी, इंगलिश और संस्कृत में एम.ए. किया है। ट्रिपल एम.ए. है।‘
'मगर आपके साथ?’
बाबा ने शमा को इस तरह घूरा जैसे उन्होंने कोई बहुत ही बेहूदा सवाल किया हो।
बोले, 'सिक्रेटी है मेरी’
'सिके्रटी’ हम दोनों को हैरत का ऐसा झटका लगा कि कुछ बोला ही नहीं गया।
बाबा बड़े प्यार से बता रहे थे, 'दिल्ली में मिली थी, मैं अपने साथ ले आया। सारा डिक्टेशन लेती है, नोट्स भी बनाती है, इसकी वजह से काम बहुत आसान हो गया है।‘ पता चला कि बात सिर्फ सिक्रेट्री तक ही महदूद नहीं है, बाबा ने एक मराठी फैमिली को भी अपने साथ रख लिया है जिसका बेटा बाबा का झोला डण्डा उठा के चलता है और बच्चे के माँ-बाप बाबा के खाने कपड़े और दूसरी आवश्यकताओं के इंचार्ज बने हुए हैं।
दूसरे शब्दों में इन दिनों बाबा बहुत ही बेहतर जि़न्दगी गुज़ार रहे थे।
इस मुलाकात को सिर्फ तीन माह गुज़रा कि एक दिन बाबा फिर अपने पुराने हुलिये में दिखाई दिये। वही झाड़-झंकाड़ दाढ़ी, उलझे हुए बाल और मैले कपड़े। आते ही फरमाया, ज़रा टैक्सी का किराया भिजवाना।
किराया अधिक नहीं था इसलिये चुप-चाप दे दिया गया। फिर बाबा से पूछा गया कि गर्दिश-ए-अय्याम (परेशानी के दिन) पीछे की तरफ कैसे दौड़ गयी? वह आपके नौकर चाकर और वह सिक्रेट्री कहाँ हैं? कुछ नाराज़ से हो गये, कहने लगे 'चली गयी।‘ पूछा, 'कहाँ चाले गयी?’
कहने लगे, 'मुझे क्या मालूम? दो महीने तनख्वाह नहीं मिली तो मीरा भी चली गई।‘
शमा ने कहा, 'पैसे तो थे आपके बैंक में?’ बाबा कुछ ज़्यादा ही नाराज़ हो गये, 'कैसी बातें करती हो बीबी? साढ़े सात हज़ार रुपये में इतनी बरकत थोड़ी होती है कि हज़ार रुपये महीने की सिक्रेट्री और पन्द्रह सौ रुपये महीने के नौकर रखे जा सकें।‘
शराब बाबा की बहुत सी कमज़ोरियों में से एक थी। जैसे मिले, जितनी मिले, जहाँ भी मिले, मिलनी चाहिए। हैरत की बात ये थी कि वह ठर्रा पीयें या स्कॉच, उन्हें नशा नहीं होता था। या यूँ कहना चाहिये कि कम से कम मैंने उन्हें कभी नशे में नहीं देखा। हालाँकि पीने बैठते थे तो अच्छी खासी पी लिया करते थे और पिलाने वाले को टोकते भी जाते थे, 'कल के लिए कर आज न कंजूसी शराब में।‘
मुहर्रम के दस दिन छोड़ के हर रोज़ शाम को मुम्बई वालों के अनुसार उनकी घण्टी बज जाया करती है और फिर वह तब तक दम न लेते थे जब तक सागर व मीना उनके सामने न आ जाये।
अब कोई पूछे कि नियाज़ हैदर जैसा नास्तिक मुहर्रम क्यों मानता था? और दस दिन तक काले कपड़े क्यों पहनता था। तो मेरे पास इसका जवाज़ (तर्क) है, न जवाब। मैं तो बस यही समझता हूँ कि नियाज़ बाबा का व्यक्तित्व जिन विरोधाभासों के ताने बाने से तैयार किया गया था, ये अमल भी उसका एक हिस्सा था।
एक शाम मैंने डरते-डरते पूछ ही लिया, 'जब आप पर असर ही नहीं होता है तो पीते क्यों हैं?’
मुस्कराये, और बोले,
मय से गरज़ निशात है किस रू सियाह को
यक गोना बे खुदी मुझे हर रात चाहिये।
मैंने कहा, 'लीवर खराब करने से क्या फायदा? आपको नशा तो होता ही नहीं है जिसके लिये लोग शराब पीते हैं’
बाबा बहुत फलसफयाना मूड में थे। कहने लगे, 'ब्रादर! नशा इंसानी दिमाग की एक कैिफयत का नाम है, ये किसी चीज़ में नहीं होता और ये बात मुझसे अधिक कोई और नहीं जानता। क्योंकि ऐसा कोई नशा नहीं हैं, सिवाये एक के, जो मैंने नहीं किया बल्कि मथुरा के साधुओं के साथ बैठकर धतूरे के लड्डू खा चुके हैं और निहंग सरदारों के साथ पत्थर पर संखिया की लकीरें खींच कर उन्हें ज़बान से चाट चुके हैं।
'संखिया? ये न थी हमारी िकस्मत कि विसाले-यार होता। फिर ज़रा विस्तार से बताया कि संखिया चाटना हर ऐरे-गैरे के बस का नहीं।
पत्थर पर संखिया से लकीरे खींच दी जाती हैं जो तीन से पांच इंच लम्बी होती हैं। इस नशे के शौकीन अपनी आवश्यकता और क्षमता के हिसाब से इन लकीरों को ज़बान से चाट लेते हैं। अधिकतर लोग तीसरी लकीर तक पहुंचते-पहुंचते ढेर हो जाते हैं। सुना है कि कुछ सूरमा सात लकीरों का रिकार्ड भी बना चुके हैं।
'कैसा होता है संखिया का नशा?’
'किसी भी नशे को बयान करना बड़ा मुश्किल काम है। क्योंकि शब्द एहसास को बयान नहीं कर सकते।‘ 'और वह कौन सा नशा है जो आपने नहीं किया?’
'कुछ लोग नशे के लिए अपने आप को सांप से डसवाते हैं। मगर मैं ये हरकत कभी नहीं कर सकता।‘, 'क्यों? क्या आपको सांपों से डर लगता है?, 'डर तो नहीं लगता मगर बहुत गंदे लगते हैं।, 'बहुत से लोग तो आस्तीनों में सांप रखते हैं? 'वह भी बहुत गंदे होते हैं।
तो ऐसे थे हमारे नियाज़ बाबा!

1988 ई. में बाबा दिल्ली में थे,
एक दिन फोन आया, बहुत जोश में थे कहने लगे 'जावेद मियाँ। हमें मकान मिल गया है, हमारा अपना मकान अरे सरकार ने दिया है भाई! तुम दिल्ली आओ तो हमारे ही पास ठहरना, बल्कि एक काम करो तुम और शमा आजकल जिस स्क्रिप्ट पर काम कर रहे हो उसे लेकर आ जाओ। बड़ी मज़ेदार सर्दियाँ हैं, अंगीठी जल रही है, शराब भी चल रही है मगर कोई दोस्त पास नहीं है। बल्कि हम तो कहते हैं कि दुल्हन और बच्चों को भी ले आओ, हमारा घर आबाद हो जायेगा। तो तुम लोग आ रहे हो न?’
मैं बहुत खुश हुआ कि सारी उम्र भटकने के बाद बाबा को एक घर मिल ही गया जिसे वह अपना कह सकते हैं। मैंने आने का वादा भी कर लिया और इरादा भी।
फरवरी 1989 ई. में अचानक खबर आई कि बाबा जिस घर को लेकर इतना खुश हो रहे थे, उन्होंने वह भी छोड़ दिया और एक ऐसे मकान में चले गये जहाँ उनके अलावा कोई और नहीं रह सकता।
किसी ने सच ही कहा है, 'बंजारे के सिर को पक्की छत रास नहीं आती!’

(लिप्यंतरण- शकील सिद्दीकी)

जावेद सिद्दीकी थियेटर और सिने जगत का चर्चित नाम है। थियेटर और सिनेमा, दोनों क्षेत्रों में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। इप्टा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं तथा नियाज़ हैदर का लम्बा सान्निध्य उन्हें प्राप्त रहा है।


"प्रगतिशील वसुधा'' के वर्ष में सामान्यतः 4 अंक प्रकाशित होते हैं,
वसुधा के कई बहुत महत्त्व के विशेषांक भी चर्चा में रहे हैं.
यहाँ प्रस्तुत 'वसुधा-85'अप्रैल-जून 2010 का अंक है.
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