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काशीनाथ सिंह का नाम हिन्दी कहानी, उपन्यास और पिछले दिनों में संस्मरण विधा में अपनी विशिष्ट शैली के लेखन से जान फूंक देने के लिए समादरित है. पिछले दिनों में ही काशी जी का उपन्यास 'रेहन पर रग्घू' काफी चर्चा में रहा है, यहाँ इस बार प्रस्तुत है उनके उपन्यास 'काशी का अस्सी' पर मूलतः 'बनास' के लिए लिखा गया एक आलेख..
काशी का अस्सी:
उपन्यास की शक्ल में एक बेचैन संस्मरणात्मक गल्प
विवेक श्रीवास्तव.
एक अरसा हुआ, हंस में काशीनाथ सिंह के ‘देश तमाशा लकड़ी का’ या ‘संतो घर में झगड़ा भारी’ को प्रकाशित हुए। नये ढंग-ढब और जिस जीवंत भाषा में ये संस्मरण आए, साहित्य की दुनिया में लोगों ने काशीनाथ जी को संस्मरण लेखन को नया जीवन देने, नया स्पर्श देने के लिए सराहा । मुझे अपने आस-पास का जैसा कुछ याद है, हंस के कुछेक पाठक तो सिर्फ काशीनाथ सिंह को पढ़ने से पाठक बन बैठे। बनारस को यानि काशी को जानने वालों ने भी बनारस और अस्सी को नितांत आत्मीय और बेलौस अंदाज में जब काशीनाथ सिंह की कलम से जाना तो यह कुछ नया लगा! अस्सी की धुरी पर दिन और दृश्य बदलते गये, पात्र बदलते रहे पर अस्सी महानायक की तरह वही रहा, अपनी औघट संस्कृति वाला फक्कड़-अस्सी । इसी महानायक अस्सी के मूल चरित्र को लेकर अपनी तरह के खास खिलंदडे़पन के साथ काशीनाथ सिंह जी ने अपनी श्रृंखला आरंभ की। आखिर काशी का अस्सी भी, बड़े-बड़े नायकों, महानायकों के हश्र को प्राप्त हुआ। महानायक अस्सी का जो चरित्र काशीनाथ सिंह ने सामने रखा था उस के कतरा-कतरा, किरच-किरच बिखरने के करूण स्वर पर आ कर कहानी पूरी हुई और ‘कौन ठगवा नगरिया लूटल हो’ के साथ ‘अस्सी’ के ‘तुलसीनगर’ बन जाने के समूचे घटनाक्रम का असंबद्ध सा दिखता परंतु तमाम करूणा के सूत्रों से संबद्ध रूप ‘काशी का अस्सी’ उपन्यास की शक्ल में सामने आया।
संस्मरण के रूप में स्थापित, मान्य और मानक बन चुकी रचनाओं का समुच्चय और उपन्यास! प्रचलित मानकों, अर्थों और शर्तों पर इसे उपन्यास मानने में हो सकता है कुछ लोगों को कठिनाई भी हो, पर काशी का अस्सी अपनी ही शर्तों पर जीता है, और अपनी ही शर्तों पर अस्सी के महाचरित्र का आख्यान, उपन्यास के रूप में हमारे सामने है। काशीनाथ सिंह की विशिष्ट भंगिमा और भाषा का उनका विशिष्ट लेखन। तमाम नायकों से भरा पड़ा अस्सी, सब को अपनी बाहों में समेटे महानायक की तरह यहां ठसक से अड़ा-खड़ा भी दिखाई देता है और फिर पौराणिक आख्यानों और महाकाव्यों के महानायकों के ठीक विपरीत आधुनिक युग की अपनी विभीषिकाओं-विडंबनाओं से दिन-दिन जूझता और छीजता भी दिखता है। शुरूआत में लेखक का ‘मैं’ था और खंजड़ी पर गाता एक जोगी था। इसी निरगुन के साथ काशी के अस्सी का परिचय बनता है, वह अंत में फिर से आकर निरगुन पर ठहरता है- ‘कहत कबीर भजन कब करिहौ, ठाढ़ा काल हुजूर। एक दिन जाना होगा जरूर।’ पाॅंच खंडों में ‘काशी का अस्सी’ उजड़े हुए अस्सी की करूण गाथा बन जाता है। यही करूणा, अस्सी की तमाम कहानियों, तमाम चरित्रों और उसके हर मोड़ को रचनात्मक औदात्य यानि एक ऐसा स्वरूप और उंचाई देती है कि काशी का अस्सी पांच छोटी-बड़ी कहानियों, संस्मरणों के दायरे से निकलकर उपन्यास के नाम पर सामने आता है।
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बेलौसी से बेबसी तक के बदलाव के भीतर की तड़प के एक सूत्र ने इन छोटी-छोटी कहानियों या संस्मरणों को मजबूती से साथ बांधा है और अपने समूचे कलेवर में रचना ने उपन्यास की शक्ल अख्तियार की है। व्यापक चिंताओं, एक केंद्रीय चरित्र- अस्सी और अस्सी की संस्कृति के साथ काशीनाथ सिंह की भाषा से रचा हुआ काशी का अस्सी, उपन्यास बनता है! एक बेचैन संस्मरणात्मक गल्प! ऊपरी सतह पर जो नहीं दिखती वो बेचैनी सबसे गहरी तह में छुपा कर रखना और थोड़ी सी झलकाना, बाकी पाठकों के लिए छोड़ देना। अपने शिल्प के अनूठेपन में ही इस उपन्यास की असल ताकत है।
एक लोकेल या परिवेश के निर्वाह के साथ समूचे की चिंताओं से बनता है यह उपन्यास। एक परिवेश, एक स्थान, एक मोहल्ले को बड़े मुद्दों और चिंताओं के साथ जीवंत अंदाज में सामने रखने के लिए जिस बड़े कौशल की आवश्यकता थी वह काशीनाथ जी ने अपने लंबे लेखकीय जीवन में खूब कमाया है। परिवेश के चरित्रों से परिवेश को स्थापित कर के फिर चरित्रों को नेपथ्य में डाल देना, एक परिवेश और उसके संस्कारों, जीवन-शैली को केंद्र में रखकर उसे ‘नायक’ की आभा देकर रचा गया मुग्धताकारी गद्य, और एक अच्छा उपन्यास है काशी का अस्सी।
काशी के अस्सी की एक और सबसे बड़ी विशेषता है उसका अकुंठ स्वर। वही अंकुठ, उच्छल-उल्लसित ध्वनियां, जो अस्सी की पहचान हैं और इस उपन्यास की जान हैं, पर बार-बार याद रखने की बात है कि यह उपन्यास सिर्फ इसलिए उपन्यास नहीं है। वह अस्सी के तुलसीनगर बनने की प्रक्रिया से लेकर तन्नी गुरू की निश्छल हंसी पर पहरेदारों की नजर लगने और बांके बिहारी लाल की रूपक कथा के साथ मिल कर उपन्यास है। हमारे समकालीन सच को कभी औघड़ नंगेपन से तो कभी बिरहा गायन या निरगुन की मार्मिकता में हमारे सामने रखने वाली अपनी ही शैली की विशिष्ट रचना। लोक के सबसे आत्मीय अंदाज में, लोगों की भाषा और उन्ही के मुहावरों में उनकी ही गालियों और गलियों के बीच टहलता लेखक का ’मैं’ कभी मैं की शैली में सक्रियता से बातचीत भी करता है, और कभी आर. के. लक्ष्मण के कार्टून कॉलम के ‘कामन मैन’ की तरह हर तरफ, हर जगह, हर समय खड़ा भी है, चुप भी है और बिना बोले सब कुछ बोलता भी है। बनारस का वो बनारसी रंग जो तरंग में होता है, हमेशा, पर रंग-तरंग और भंग के बीच भी जिसकी हर बात में बड़े प्रश्न हैं, प्रश्नों के उत्तर हैं और हर बारीक बात और बातों के परिवर्तन हैं, विश्लेषण हैं। पर अंदाज ऐसा कि सब कुछ अस्सी के ठंेगे पर। फक्कड़ाना और सूफियाना अस्सी। इस अस्सी पर दुनिया के बदलाव की, बाजार की, रूपये और डाॅलर के लालच की वहशियाना नजर भी साथ-साथ।
मृणाल पाण्डे ने पूर्वग्रह के किसी अंक में उपन्यास के गुणधर्म पर बातचीत करते हुए कहा था- ‘उपन्यास साहित्य की दुनिया का संयुक्त परिवार है।’ अगर सामान्य अर्थों में मानें तो संयुक्त परिवार की अवधारणा सब कुछ समेटे हुए एक आंगन से बनती है, इस अवधारणा पर काशी के अस्सी को रख कर देखें तो कई-कई विधाओं के परिवारों को जोड़ कर बनने वाला एक संयुक्त परिवार है -एक उपन्यास- काशी का अस्सी। ये अस्सी की डायरी भी है- हंसते हुए बीते दिन, रोते हुए आते दिन। देश के एक शहर के एक मोहल्ले पर जीवंत रिपोर्ताज, हर खंड में कहानी सी तीव्रता, भाषाई सजगता, तीखा उठान और चरित्रों के साथ परिवेश का मुकम्मल कथात्मक निर्वाह, संस्मरणों की आत्मीय स्मृतियां, संलग्नता और सहजता या निबंधों की विश्लेषणात्मकता, सामाजिक-राजनैतिक मुद्दों पर सीधी और साफ दृष्टि और इन सब के साथ अपने पूरे संभार में नाटकीयता का लम्बा सधाव। आप चाहें तो कहानी पढ़ें, संस्मरण पढ़ें या फिर टेलिस्क्रिप्ट की तरह चाहें तो उठा कर शूटिंग शुरू कर दें। एक-एक दृश्य जैसे अपने रचाव में बिल्कुल साफ फ्रेम दर फ्रेम देखा जा सकता है। पूरे उपन्यास को, कम से कम मैं कह सकता हूँ, मैंने पढ़ा कम देखा ज्यादा है।
वैसे उपन्यासों में पढ़ना ज्यादा होता है देखने को वहां थोड़ा कुछ ही होता है। इस दृष्टि से यह रचना दृश्यबंधों की श्रृंखला ही है। यद्यपि कि काशीनाथ सिंह और विनोद कुमार शुक्ल के बीच कोई विशेष साम्य देखने की उत्सुकता में मैं बिल्कुल भी नहीं हूँ , परंतु क्षेपक की तरह इतना जरूर कहता चलूं कि विनोद कुमार शुक्ल फैंटेसी सी रचते हुए अपनी रचना पक्रिया के बारे में तो कहते भी यही हैं कि वे शब्दों में नहीं दृश्यों और चित्रों में सोचते है। बस उस दृश्य को सामने रखने के लिए ब्रश और रंगों के इस्तेमाल की बजाय शब्दों का प्रयोग करते हैं। बहरहाल, काशी जी का ‘काशी का अस्सी’ तो वैसे ही उनका जिया हुआ परिवेश है, उसे कब और कहां उनका कथाकार अपनी कल्पना से दृश्य को उठान देता है, जिंदा कर देता है यह देखना उनके यहां मुग्धताकारी होता है। उनका कथाकार अपनी करामात कई बार बहुत चुपके से करता है। कहाँ उन का कथाकार सक्रिय है और कहाँ पर वे संस्मरणात्मक हो रहे हैं यह पकड़ पाना अक्सर कठिन है। ऐसे तमाम दृश्य हीरा और बुल्लू की जुगलबन्दी के बीच भी हो सकते हैं, डॉ. गया सिंह या वीरेन्द्र श्रीवास्तव, रामजी सिंह के चरित्रों में भी छुपे हो सकते हैं या पप्पू की दुकान में ही, कहीं भी। बात अगर रूपक रचने की है तो तन्नी गुरू की तो पूरी कहानी ही रूपक रचना सी है। हां, ये जरूर है कि इस कथा प्रसंग के ठीक पहले तक खुल्लम-खुल्ला शैली के प्रवाह में ये रूपक-रचाव कौशल! क्या यह वाकई रचना की आवष्यकता ही थी? या उसे नाटकीय चरम पर पहुंचाने की ज़रूरत या फिर महज प्रयोगों की शृंखला का एक और प्रयोग? क्या सीधी बात को शिल्प के इस प्रयोग से अधिक आयामों में रखने के लिए इस खंड को तन्नी-कन्नी और मुड़कट्टा धड़ या बांके बिहारीलाल की कथा के रूप में साधा गया? क्या बाजार के चारों दिशाओं और सोलहों याम के हमलों का तीखा पसरता जहरीला असर प्रतीकात्मक ढंग से ही बेहतर ढंग से दिखाया जा जा सकता था? वरना ‘हँसी हंसने की नहीं देखने की चीज है’ (टी.वी. प्रसंग) और ‘हंसो मत, हंसते हुए आदमी को देखो’ पर तो अस्सी की गलियों में गोष्ठियां, प्रदर्शन और प्रदर्शनियां भी होती रही हैं। यहां यह कहना प्रसंगानुकूल ही लगता है कि रूपक निर्वाह का यह खंड यद्यपि कि पूरे उपन्यास का सबसे मार्मिक पक्ष है परंतु फिर भी हीरा और बुल्लू के बिरहा दंगल में कथा का सधाव बस फिसलते-फिसलते ही बचा है। या यूं भी कहा जा सकता है कि काषीनाथ जी के तेवर, उनकी भाषा उनके रचाव को यहां पर यूं आकर रूपक रचना कुछ खास जंचता नहीं है। शास्त्री जी की फैंटेसी तक तो फिर भ्ीा बात कुछ सधती है पर बात वही है कि काशीनाथ सिंह के यहां खुल्लम-खुल्ला का जो आदिम संस्कार दिखता है, बिना चरित्रों के नाम बदले यानि नामों के साथ कोष्ठक में असली नाम बदलने की सूचना की षैली के विरूद्ध उन के सीधे आंख में आंख डाल कर बतियाने/लिखने के पुराने अंदाज़ के कारण शायद यह प्रसंग कुछ अलग सा दिखता है। हांलांकि यहां यह सब कहने का अर्थ चाहे जो भी निकाला जाए, किसी भी संभावना पर बात हो परंतु इतना तो तय है कि इसी खंड की कारूणिकता ने उपन्यास को रचनात्मकता के शिखर पर पहुंचाया है और औपन्यासिकता का निर्वाह भी यहीं होता है परंतु फिर भी शुरू के चार खंडों की तुलना में पांचवां और अंतिम यह खंड रचनाकार के साथ पाठकीय तेवर भी बदलने को मजबूर करता है।
माना जाता है कि उपन्यास जो मूलतः आधुनिक काल की विधा है, में यथार्थ प्राणतत्व की तरह है। उपन्यास की विष्वसनीयता और कसौटी अपने समय के अंकन में होती है। अपने समय और परिवेष को कुछ यूं सहेजना कि पाठक समय और चरित्रों के रेशे-रेशे को पकड़ और पढ़ सके यह उपन्यास की ताकत होती है। काशीनाथ जी का यह उपन्यास अपने समय का प्रामाणिक दस्तावेज बनता है, सिर्फ घटनाओं के अंकन की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि समूचे उपन्यास में अपने समकाल की वैज्ञानिक दृष्टि से की गई पड़ताल और सुविचारित टिप्पणी की दृष्टि से भी यह महत्वपूर्ण है। आज की और यहाँ उपन्यास में कहें अस्सी की त्रासदी का मूल, समय के अप्रत्याशित बदलाव हैं और इस बदलाव के मूल में भूमंडलीकरण की तेज आंधी है। ऐसे सर्वग्रासी समय की रचना इस उपन्यास में भूमंडलीकरण के विघटनकारी प्रभावों पर प्रतिरोध का स्पष्ट स्वर है। उपन्यास में दृश्य दर दृश्य मूल चिंता एक ही है, प्रतिरोध। प्रतिरोध उस प्रतिसंस्कृति का जिसने अस्सी की आज़ादी में खलल डाला है, और बात सिर्फ अस्सी की आज़ादी की नहीं है। बात दरअसल यह भी है कि अस्सी के पास वो आंख है जो दूर तक समय-समाज पर इन प्रभावों को देख पाती है और इस सब को सिर्फ देख कर रह जाए ऐसी न तो अस्सी की प्रकृति है और न काशी(नाथ) की। समय के साथ सामने आते तमाम आकर्षण जिन्होने शास्त्री जी(कौन ठगवा नगरिया लूटल हो) को बांधा है वे कथाकार की नज़रों के सामने हैं और कथाकार काशीनाथ की कलम का रचनात्मक संस्पर्श उसे कथालोक की फंतासी की दुनिया की तरह रचता और सामने रखता है। शास्त्री जी के शिवस्वप्न की फंतासी में सिर्फ अपने समय के परिवर्तन की आहट भर नहीं है, यहीं पर काशीनाथ जी के कथा-कौशल को और इस उपन्यास में उनके नये तेवर को भी पहचाना जा सकता है। ‘‘... वे कथायें उठाती हैं, अक्सर महाभारत से, रामायण से, पुराणों और इतिहास से... लोप्रचलित आख्यानों से। ऐसी कथायें जो किसी न किसी तरह वर्तमान से जोड़ी जा सकें, और अगर अपने आप न जुड़ सकें तो जोड़ दी जाएं। कहानी चाहे जितनी पुरानी हो या लोककथा हो, उसे सुनने का मज़ा तो तब है जब सुनने वाले उसमें अपने को देख सकें।’’ इस कसौटी पर भी अगर देखें तो उपन्यास, मुकम्मल उपन्यास की तरह हमारे सामने आता है। काशी का अस्सी अपने समूचे कलेवर में अपने समय का दस्तावेज है और आप इसमें बकायदा अपने आप को, आस-पास को बदलता हुआ देख सकते हैं। लोगों के चेहरे से गुमती हॅसी और बांके बिहारी लाल के चमत्कारी समय में बाज़ार की नज़र में तन्नी गुरू की निश्छल हॅसी के डर ऐसे ही प्रसंग हैं जहां हम अपने समय की विडंबना को देखते हैं जहाँ हर तरफ इस कदर बाज़ार और बाज़ार की नीति और राजनीति तारी है कि उसके लिए एक सादी सी, भोली सी, बेसबब हॅसी भी भय का कारण बन गई है। समूचा तंत्र इस हॅसी के खिलाफ खड़ा है, कि आखिर इतना सब कुछ बदलने की कवायद में ये हॅसी बची तो बची कैसे? जब तंत्र की सेनाओं का फ्लैग मार्च चल रहा हो, सारी कायनात चारदीवारों के बीच एक टी.वी. या कम्प्यूटर में जा घुसी हुई हो तब एक अदने आदमी की इतनी ज़ुर्रत कि वो आँख से आँख मिलाये, उस पर गाहे-बगाहे मुस्कुराये भी! ऐसी किसी भी बेलौस हॅसी हॅसते हुए चेहरे के खिलाफ और ईश्वर से सौदेबाजी कर रहे सेठों के साथ खड़ी बांके बिहारी लाल की सत्ता-व्यवस्था का पहला दायित्व है हॅसी को सड़कों पर फैलाते या फैला सकने वाले सर को धड़ से अलग कर देना।
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संपर्क : विवेक श्रीवास्तव,
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