रंग और उजास

रंग और उजास

सोमवार, अगस्त 30, 2010

नई कोशिश..

'शीर्षक' की शुरुआत के साथ ही टिप्पणियों के खेल से पैदा खिन्नता ने कुछ दिनों के लिये मुझे फिर पीछे धकेल दिया था, सचमुच सोचे हुए के ठीक विपरीत, ब्लॉग पर साहित्यिक मंच के मेरे विचार को ध्वस्त कर के चर्चायें न सिर्फ असाहित्यिक हो चली थीं बल्कि बेहद फूहड़ व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप के लिए इस ब्लॉग का उपयोग मुझे दुखद लगा और मैं कुछ दिनों के लिए शुतुरमुर्ग कि तरह गर्दन रेत में डाले बैठा रहा, शुतुरमुर्ग इसलिए कह रहा हूँ कि मैं जानता था और हूँ भी कि मैंने अगर इस ब्लॉग पर से टिप्पणियां हटा भी दीं तो क्या लोगों के द्वेष-विद्वेष में कहीं कोई फर्क तो आया नहीं!
बहुत आत्मीयता से अपने शहर और समूह को याद करने की कोशिश का भी एक दुखी अंत करने की घोषणा तो नहीं पर ये ज़रूर कहना चाहूँगा कि दोनों तरफ से अविश्वास और षड्यंत्र तक के आरोपों के बाद अब मन काफी भरा-भरा है. लोग एक दूसरे के साथ अपने सन्दर्भों को ले कर स्थायी रिश्ते तय कर चुके होते हैं और कोई मौका ऐसा नहीं छोड़ना चाहते है कि जिस का उन्हें बाद में मलाल हो कि हाय! उस समय हम कैसे चूक गए... या कि उस की बात के बदले एक निशाना हम ने भी क्यों न साध लिया...
बहरहाल, एक एपिसोड के बाद, अभी भी मैं चाहता यही हूँ कि 'शीर्षक' के मंच का उपयोग अधिक रचनात्मक और साहित्यिक ही हो.. 'शीर्षक' के साथ 'वसुधा' के पुराने रिश्तों की चर्चा पुरानी पोस्ट्स में कर चुका हूँ, प्रो. कमला प्रसाद, 'वसुधा' के प्रधान संपादक हैं, रीवा विश्विद्यालय के हिदी विभाग प्रमुख के रूप में हमारे (जिस समूह को अभी तक मैं केंद्र में ले कर चल रहा था) गुरु भी हैं, हम में से बहुतों के लिए वे आज भी आत्मीय पारिवारिक बुजुर्ग भी हैं, उन से 'वसुधा' के अंक और सामग्री को इन्टरनेट पर लाने का आग्रह मेरा पुराना आग्रह रहा है. एक बातचीत के बीच हमारी सहमति इस बात पर बनी कि अगर वसुधा ही क्या कहीं भी कुछ बेहतर और महतवपूर्ण कुछ लिखा और छापा जा रहा है तो अपनी कोशिश ये भी तो हो सकती है कि उसे ऐसे किसी मंच से और विस्तार दिया जा सके.
मैंने पहले भी लिखा है कि 'शीर्षक' मेरे लिए अपनी नितांत व्यक्तिगत भड़ास निकालने का कोई जरिया नहीं है, मैं ऐसा सोचना भी नहीं चाहता हूँ, मुझे जब ऐसा ही करना होगा तों मैं vivek.blogspot... जैसा कुछ बना लूँगा, पर 'शीर्षक' मेरे लिए इस से कुछ आगे और बेहतर का संकल्प है..
कमला प्रसाद जी से बात-चीत के बहाने मुझे एक बेहतर विकल्प समझ में आता है कि मैं 'वसुधा' के चयन में से भी कुछ अपना चयन यहाँ प्रस्तुत करूँ जिससे 'वसुधा' का भी संछिप्त चयनित संस्करण 'नेट' पर आये और कुछ बेहतर पढ़ने का अवसर भी आप लोगों के हाथ आये. खास तौर पर उन के लिए जो कम से कम भौतिक ढंग से पत्रिका के अंक को छूने-महसूसने और पढ़ने से वंचित हैं. जापान, इटली या अमेरिका में भी नेट पर अच्छी हिंदी सामग्री खोजने वालों की संख्या बहुत ज्यादा न भी हो तो भी हम 'कुछ' लोगों के लिए ही सही, कुछ करने की कुछ कोशिश ही कर सकें..
'प्रगतिशील वसुधा' का अंक-85 अभी आया ही आया है, आप में से बहुतों ने उस में से अपना चयन पढ़ लिया होगा.. चलिए यहाँ थोड़े उबड़-खाबड़ अंतराल पर आप यहाँ मेरा चयन पढ़ सकेंगे.

पिछले दिनों फेसबुक की एक चर्चा में मुझ से पूछा गया कि ये 'अष्टभुजा शुक्ल' कौन हैं? दुर्भाग्य से तात्कालिक सन्दर्भ फुटबाल के भविष्य-(वक्ता)बकता पॉल आक्टोपस का था, यहाँ 'वसुधा-85' में अष्टभुजा शुक्ल को पढाते हुए याद आया की चलिए 'नेट' पर कुछ और लोग भी इस दौर के एक बहुत महत्वपूर्ण और भिन्न शैली के एक कवि से परिचित होंगे..
अगली पोस्ट में उन की दो कवितायें ... निस्संदेह 'वसुधा-85' के सौजन्य से ...
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