रंग और उजास

रंग और उजास

मंगलवार, मई 11, 2010

एक रंग जो ठहरा हुआ सा बस लगता है...


हुत दिनों से इंतजार में हूँ, इंतजार कुछ लंबा ही होता जा रहा है. मज़ा ये भी है कि ये तक पता नहीं कि इंतज़ार किसका है. जुम्मा-जुमा कायदे से 2 पोस्ट भी नहीं लिखीं कि लगा, कि कुछ मज़ा जाए ऐसा कुछ समझ में आए तो पोस्ट किया जाए... ब्लॉग शुरू करने के पहले जो कुछ योजनायें थीं वो कुछ बचकानी सी लगने लगीं. उत्साहित हो कर ब्लाग बना तो लिया, पहले भी-2 साल पहले, दो बार बनाया था. संकोच में बंद कर दिया.

आम तौर पर देखता हूँ, भड़ास निकालने (अपनी रचनात्मकता के ज्यादा भरम में मैं हूँ नहीं) के लिए इस मंच का उपयोग करने से किसी को भी बहुत परहेज नहीं है, कुछ भी ठूंसा-ठांसी करो और पोस्ट पटक दो. पर संकट यह था कि कुछ आदत के मारे अपना भरोसा कुछ इस बात पर था भी नहीं और फिर कुछ बेहद व्यवस्थित और सुचिंतित और रचनात्मक ब्लॉगर भी इसी दुनिया में हैं, जब भी उन को देखा , सकुचा कर रह गया.

बहरहाल, इस बार 'शीर्षक' के प्रिंट एडीशन की दुर्घटना फिर दुहरायी जाए, दो अंकों के बाद शीर्षक बंद हो गई, कहीं इस बार भी वैसा ही कुछ हो इस दबाव में अपने आलस को (जिसके आगे मेरे पिता जी 'घनघोर' विशेषण जोड़ना चाहेंगे) छोड़ कर मैंने अपनी यूनिकोड टाइपिंग के अभ्यास सत्र के लिए इधर-उधर और घर से समय चुरा कर के यह पोस्ट लिखना शुरू की है..

योजना कुछ यूं है कि बहुत सारी लंबी योजनाओं के, पोस्ट के पहले उन लोगों से परिचय भी हो जाए जो 'शीर्षक' के योजनाकार भी थे और उसकी सफलता के साझेदार भी थे और अब आज 'शीर्षक' से आगे अपनी नई और अधिक विस्तृत पहचान हिन्दी संसार में बना चुके हैं. पहली पोस्ट में जिन ओम द्विवेदी की ग़ज़ल आप ने पढ़ी, ये 'सपने के पीछे ज़िद...' शीर्षक से दूसरी पोस्ट के वही ओम पथिक हैं जो दैनिक जागरण से टहलते हुए अब नईदुनिया-इंदौर में जा जमे हैं. तब हम ओम को गीत-ग़ज़ल के लिए जानते थे, रंगमंच पर उनके शानदार अभिनय का हम सभी लोहा मानते रहे हैं. हमारे समूह में वे रंगमंच के रंगदार रहे हैं. आजकल वे http://meetheemirchee.blogspot.com/ पर अपने व्यंग्य लेखन के लिए भी पहचाने जाते हैं, शायद उनकी मुस्कान और देर तक खिल-खिल गूंजने वाली (अट्टहास के लघु संस्करण तथा कुछ कोमल, कोमलता के मान से कोई स्त्रीवाची शब्द अभी मुझे सूझ नहीं रहा - समझें) उनकी हंसी का मारक व्यंग्य ही अब शब्द ले रहा है ऐसा भी उनको जानने वाले शायद मानेंगे. मैं उनके व्यंग्यों का निरीह शिकार भी रह चुका हूँ, आजकल बड़े लोगों पर उनकी नज़र है और मेरी जान को कुछ चैन. अपनी ओर से तो पहले ही लिख चुका हूँ, मैं उनके गीतों, ग़ज़लों और दोहों पर फिदा हूँ.
अब.. इस बार, आशीष....... आशीष यानि शीर्षक के अंक-1 के कुमार आशीष, जिन की शीर्षक के प्रवेशांक में छपी दो कविताओं के 4 पृष्ठों को आप नीचे पुराने पन्नों की तरह देख पा रहे हैं . समय के साथ कुमार आशीष, ' कुमार' नहीं रहे ... डॉ. आशीष त्रिपाठी हो कर झालावाड़(राजस्थान) के राजकीय महाविद्यालय से चलते हुए बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पहुंचे, हमारे लिए यह गौरव की बात हुई, इसलिए कि आमतौर पर सुनते और देखते आ रहे थे कि बी.एच.यू. से निकल कर लोग देश भर के हिन्दी विभागों में डटे हैं पर आशीष और नीरज खरे जैसे कुछेक ने रीवा और सागर को वहां एक पहचान दिलाई जहां सिर्फ घूम-टहल आने की लोग महीनों चर्चा करते हैं. आशीष न सिर्फ बी.एच.यू. पहुंचे, वहां पहुंच कर उन्होने वि.वि. के अध्यापकों और छात्रों के बीच गंभीर छवि बनाई है.. हिन्दी विभाग में रीडर डॉ. आशीष त्रिपाठी ने हिन्दी आलोचना में बड़ा नाम बनाया है, साल की शुरूआत में दिल्ली पुस्तक मेले में उन्होने 05 पुस्तकों के साथ लोगों का ध्यान खींचा.. प्रो.नामवर सिंह के लिखे-बोले पर 08 किताबों की योजना में से 04 तो राजकमल से आ गईं, 04 आने वाली हैं.

पुस्तक मेले में ही उनका बहुप्रतीक्षित कविता संग्रह 'एक रंग ठहरा हुआ' आया, जिसके कवर को आप यहां देख रहे हैं. ये उनका पहला कविता संग्रह है, वाणी प्रकाशन से.

आशीष, मेरे मित्र हैं, 20 बरसों से हम (ये गणना आज ही की है और करने के बाद मैं खुद चौंक रहा हूँ) लगातार प्रेम/झगड़े/बहस करते हुए मित्र और आगे पारिवारिक मित्र हैं. साहित्य के साथ रंगमंच की गहरी समझ के लिए हमारे समूह में उनकी प्रखर पहचान रही है, रंगभाषा पर उन की आलोचना पुस्तक 2 बरस पहले ही शिल्पायन से छप चुकी है. बेहद व्यवस्थित वक्ता और व्यक्तित्व वाले आशीष भी कुछ हद तक आलसी हैं, ऐसा वे खुद के बारे में कुछ मॉडेस्ट हो कर कहते हैं. पर उनका आलस्य कुछ ही मामलों में है, वरना तो वे.... बाकी क्या कहना.. उन का काम खुद गवाही देता है.

शीर्षक के पुराने पन्नों की कविताओं को, जो नीचे हैं, आप चाहें तो क्लिक कर के इन्लार्ज कर लें और पढ़ें, कविता 'देश-दुनिया के भविष्य हैं वो' में पिता की चिंताओं और उनके उत्तर को केन्द्र में लेती उनकी यह कविता शीर्षक में 1992 में आयी थी, उनका संग्रह 2010 में आया है, उनके संग्रह से एक कविता 'पिता की इच्छाएँ' आप के लिए प्रस्तुत है. दोनों कविताओं में पिता शब्द के अलावा और तो कुछ खास समान नहीं है, सिवाय इसके कि कवि एक है. संग्रह से ये चयन बिल्कुल यूं ही... संग्रह और आशीष दोनों पर ही अभी बहुत बातें बाकी हैं... वो फिर कभी....



पिता की इच्छाएँ


पिता जीते हैं इच्छाओं में

पिता की इच्छाएँ
उन चिरैयों का झुंड
जो आता है आँगन में रोज
पिता के बिखराये दाने चुगने

वे हो जाना चाहते हैं हमारे लिए
ठंडी में गर्म स्वेटर
और गर्मी में सर की अँगौछी

हमारी भूख में
बटुओं में पकते अन्न की तरह
गमकना चाहते हैं पिता
हमारी थकान में छुट्टी की घंटी की तरह बजना चाहते हैं वे

पिता घर को बना देना चाहते हैं
सुनार की भट्ठी
वे हमें खरा सोना देखना चाहते हैं

लगता है कभी-कभी
इच्छाएँ नहीं होंगी
तो क्या होगा पिता का

गंगा-जमुना की आखिरी बूंद तक
पिता देना चाहते हैं चिरैयों को अन्न
पिता, बने रहना चाहते हैं पिता.

(एक रंग ठहरा हुआ - से)










'शीर्षक' के इन पुराने पन्नों पर नज़र डालें और बताएं कि क्या कुछ और पुराने पन्ने आपकी नज़र किये जाएं......

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही भावपूर्ण निशब्द कर देने वाली रचना . गहरे भाव.

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  2. hum sab sath hain abhi bhi, sheershak ke naye roop ka swagat hai. internet ki duniya me jame rahne ke gur jaan kar hi ise aapne apnaya hoga...is ke prachar prasar me har sambhav kaam kijiyega. kavitayen achchi hain hamesha ki tarah. agla post aapke bare me bhi hoga ye apeksha hai, vivek bhaisaab

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  3. Bahut Bahut Badhai Vivek bhai!
    Shubhkamnayee!
    Akhilesh Tiwari

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  4. Bahoot Achha collection hai.
    Dr R P Joshi
    Rewa
    MP
    rpjoshi_rewa@rediffmail.com

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  5. tippnee keval apna pata btane de raha hoon taki mujhe naya likha padhne ko mil sake

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  6. kuchh bhi kahu to sooraj ko deeya dikhana hee hoga. ek sundar prastuti.. sabhar.

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