रंग और उजास

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शुक्रवार, नवंबर 19, 2010

किलों को जीतने की जगह ध्वस्त कर देने की उम्मीद भरी कविता...

आज यहाँ 'शीर्षक' में वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना  की ताज़ा कवितायेंकाफी अरसा हुआ नरेश सक्सेना  की एक कविता पढ़ी थी, 'सीढ़ी'.

मुझे एक सीढ़ी की तलाश है
सीढ़ी दीवार पर चढ़ने के लिए नहीं
बल्कि नींव में उतरने के लिए

मैं क़िले को जीतना नहीं
उसे ध्वस्त कर देना चाहता हूँ।


"मैं क़िले को जीतना नहीं / उसे ध्वस्त कर देना चाहता हूँ....."  छोटी सी कविता की  टनकती हुई स्पष्टता और प्रतिध्वनि हमेशा मेरे कानों में, मेरे मस्तिष्क में बनी रही है.  शायद नरेश जी की छोटी कविता में बड़े विचार का यह अद्भुत शिल्प ही है कि और बहुत कुछ इधर-उधर पढते हुए भी ये दो पंक्तियाँ हमेशा दिमाग के एक कोने में रही आईं और जब भी किसी बड़ी नारा लगाती तक़रीर को सुना या पढ़ा तो हमेशा कविता की ताकत और नरेश जी के शिल्प  ने रोमांचित किया...

नरेश सक्सेना की नयी कविताओं के साथ ये पोस्ट और वसुधा का अंक-86.. इस बार अंतराल कुछ अधिक हो गया,  इस अंतराल के एवज में कोशिश यही है कि वसुधा के नए अंक (अंक 86) की सूचना के साथ यहाँ कुछ विशिष्ट और नया-ताज़ा आप सब के साथ साझा किया जा सके..  नरेश जी की कुछ अपने अंदाज़ की छोटी-छोटी शानदार कवितायें... 
हमारे लिए यह गर्व का विषय है कि शीर्षक के मंच पर हम 'वसुधा' के सौजन्य से नरेश जी को प्रस्तुत कर पा रहे हैं.
"वसुधा के अंक" की लिंक को क्लिक करके आप अन्य प्रकाशित सामग्री की
जानकारी ले सकते हैं , सम्पादकीय पढ़ सकते हैं और 'वसुधा' से संपर्क कर सकते हैं.

नरेश सक्सेना की कविताएँ
मुर्दे
मरने के बाद शुरू होता है
मुर्दों का अमर जीवन
दोस्त आएं या दुश्मन
वे ठंडे पड़े रहते हैं
लेकिन अगर आपने देर कर दी
तो फिर
उन्हें अकडऩे से कोई नहीं रोक सकता
मज़े ही मज़े होते हैं मुर्दों के
बस इसके लिये एक बार
मरना पड़ता है।

धूप
सर्दियों की सुबह, उठ कर देखता हूँ
धूप गोया शहर के सारे घरों को
जोड़ देती हैं
ग़ौर से देखें अगरचे
धूप ऊंचे घरों के साये तले
उत्तर दिशा में बसे कुछ छोटे घरों को
छोड़ देती है.
पूछ ले कोई
कि किनकी छतों पर भोजन पकाती
गर्म करती लान,
बिजली जलाती धूप आखिऱ
नदी नालों के किनारे बसे इतने गऱीबों से क्यों भला
मुंह मोड़ लेती है.
(कविता की पहली पंक्ति कमला प्रसाद की एक टिप्पणी से)

सूर्य
ऊर्जा से भरे लेकिन
अक्ल से लाचार, अपने भुवन भास्कर
इंच भर भी हिल नहीं पाते
कि सुलगा दें किसी का सर्द चूल्हा
ठेल उढक़ा हुआ दरवाज़ा
चाय भर की ऊष्मा औ रोशनी भर दें
किसी बीमार की अन्धी कुठरिया में
सुना सम्पाती उड़ा था
इसी जगमग ज्योति को छूने
झुलस कर देह जिसकी गिरी धरती पर
धुआं बन पंख जिसके उड़ गये आकाश में
अपरिमित इस उर्जा के स्रोत
कोई देवता हो अगर सचमुच सूर्य तुम तो
क्रूर क्यों हो इस कदर
तुम्हारी यह अलौकिक विकलांगता
भयभीत करती है।
संपर्क:
नरेश सक्सेना ; विवेक खण्ड, 25-गोमती नगर, लखनऊ-226010 ; मो. 09450390241



 'प्रगतिशील वसुधा' 
के वर्ष में सामान्यतः 4 अंक प्रकाशित होते हैं,
'वसुधा' के बहुत महत्त्व के  कई विशेषांक भी चर्चा में रहे हैं.
यहाँ प्रस्तुत 'वसुधा-86' जुलाई-सितम्बर'10 का अंक है. 
अंक की प्राप्ति या सम्पादकीय संपर्क के लिए आप 
vasudha.hindi@gmail.com पर e-mail कर सकते हैं,
 0755-2772249; 094250-13789 पर कॉल कर सकते हैं,
प्रमुख  संपादक प्रो. कमला प्रसाद को 
एम.आई.जी.31,निराला नगर,भदभदा रोड, भोपाल (म.प्र.) 462003
के पते पर लिख सकते हैं.


4 टिप्‍पणियां:

  1. kya andaaj hai, pehli baar vaakif hu'aa,shukragujaar huN aise azeem adeeb se mehrum hi reh jata.mere hoNsale ko naee ziya bakhshi hai, shukriya.

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  2. जहॉ भुवन भास्‍कर सूर्य इतने अक्षम हैं ,वहां मुर्दों के ही मजे हो सकते हैं,वैसे भी इस कठिन समय में किला कविताओं में ही ध्‍वस्‍त हो सकता है ।अच्‍छी कविता ।

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  3. मरने के बाद शुरू होता है
    मुर्दों का अमर जीवन
    दोस्त आएं या दुश्मन
    वे ठंडे पड़े रहते हैं

    बहुत ही सुंदर और गहरी अनुभूति. नरेश जी को पढना वाकई अच्छा लगता है

    जवाब देंहटाएं
  4. मज़े ही मज़े होते हैं मुर्दों के
    बस इसके लिये एक बार
    मरना पड़ता है।
    kitni sarlta se kahi hai itni gahri baat

    जवाब देंहटाएं

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