रंग और उजास

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सोमवार, सितंबर 20, 2010

विनोद कुमार शुक्ल : कम बोलने वाले कवि की देर तक गूँजती कविता..

कई बार कविता के नाम पर होता ये है कि कवि अधिक बोलता है, कविता कुछ बोलना चाहती ही रह जाती है. विनोद कुमार शुक्ल हिंदी कविता के एक ऐसे कवि हैं जिनको कम बोलने और देर तक गूंजने वाली कविता के लिए पहचाना जाता है.

इधर की कविता में विनोद कुमार शुक्ल ऐसे कवि हैं जिनकी कविताओं से परिचय के बिना हिंदी कविता का परिचय ही पूरा नहीं होता, गद्य लेखक के रूप में भी उपन्यास हो या कहानी, उनके गद्य को लेकर, शिल्प को लेकर बात-बहस चाहे जितनी कर लीजिए पर उनके बिना हिंदी उपन्यासों पर बात पूरी नहीं नहीं होती... अपने उपन्यासों और कविताओं में अपने बेहद 'अपने' अंदाज़ के लिए, खास किस्म की सांद्रता के लिए, गहन और सूक्ष्म तरीके से अपनी संलग्नता, सरोकारों और संबद्धता को अभिव्यक्त करने के विशिष्ट अंदाज़ के लिए उन्हें जाना जाता है. अनेक काव्य संग्रहों और उपन्यासों के बीच विनोद जी की ताज़ा कवितायेँ जो पिछले दिनों उन्होंने लिखीं, यहाँ प्रस्तुत हैं. वसुधा-85 में प्रकाशित इन कविताओं के अलावा भी आप यहाँ कुछ अंतराल के बाद विनोद कुमार जी के साथ मेरी लंबी बात-चीत भी पढ़ सकेंगे.. (अगर मैं टाइप कर पाऊं तो..) .. फिलहाल पढ़िए उनकी ताज़ा, चुनिन्दा कवितायेँ...

'वसुधा' के अंकों के बारे में और जानने के लिए दायीं तरफ के कॉलम में
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विनोद कुमार शुक्ल

एक
बोलने में कम से कम बोलूँ
कभी बोलूँ, अधिकतम न बोलूँ
इतना कम कि किसी दिन एक बात
बार-बार बोलूँ
जैसे कोयल की बार-बार की कूक
फिर चुप।
मेरे अधिकतम चुप को सब जान लें
जो कहा नहीं गया, सब कह दिया गया का चुप।
पहाड़, आकाश, सूर्य, चंद्रमा के बरक्स
एक छोटा सा टिम-टिमाता
मेरा भी शाश्वत छोटा सा चुप।
गलत पर घात लगाकर हमला करने के सन्नाटे में
मेरा एक चुप-
चलने के पहले
एक बंदूक का चुप।
और बंदूक जो कभी नहीं चली
इतनी शांति का
हमेशा-की मेरी उम्मीद का चुप।
बरगद के विशाल एकांत के नीचे
सम्हाल कर रखा हुआ
जलते दिये का चुप।
भीड़ के हल्ले में
कुचलने से बचा यह मेरा चुप,
अपनों के जुलूस में बोलूँ
कि बोलने को सम्हालकर रखूँ का चुप।

दो
जितने सभ्य होते हैं
उतने अस्वाभाविक।
आदिवासी जो स्वाभाविक हैं
उन्हें हमारी तरह सभ्य होना है
हमारी तरह अस्वाभाविक।
जंगल का चंद्रमा
असम्य चंद्रमा है
इस बार पूर्णिमा के उजाले में
आदिवासी खुले में इकट्ठे होने से
डरे हुए हैं
और पेड़ों के अंधेरे में दुबके
विलाप कर रहे हैं
क्योंकि एक हत्यारा शहर
बिजली की रोशनी से
जगमगाता हुआ
सभ्यता के मंच पर बसा हुआ है।

तीन
अभी तक बारिश नहीं हुई
ओह! घर के सामने का पेड़ कट गया
कहीं यही कारण तो नहीं।
बगुले झुँड में लौटते हुए
संध्या के आकाश में
बहुत दिनों से नहीं दिखे
एक बगुला भी नहीं दिखा
बचे हुए समीप के तालाब का
थोड़ा सा जल भी सूख गया
यही कारण तो नहीं।
जुलाई हो गई
पानी अभी तक नहीं गिरा
पिछली जुलाई में
जंगल जितने बचे थे
अब उतने नहीं बचे
यही कारण तो नहीं।
आदिवासी! पेड़ तुम्हें छोड़कर नहीं गये
और तुम भी जंगल छोड़कर खुद नहीं गये
शहर के फुटपाथों पर अधनंगे बच्चे-परिवार
के साथ जाते दिखे इस साल
कहीं यही कारण तो नहीं है।
इस साल का भी अंत हो गया
परन्तु परिवार के झुंड में अबकी बार
छोटे-छोटे बच्चे नहीं दिखे
कहीं यह आदिवासियों के अंत होने का
सिलसिला तो नहीं।

चार
शहर से सोचता हूँ
कि जंगल क्या मेरी सोच से भी कट रहा है
जंगल में जंगल नहीं होंगे
तो कहाँ होंगे।
शहर की सड़कों के किनारे के पेड़ों में होंगे।
रात को सड़क के पेड़ों के नीचे
सोते हुए आदिवासी परिवार के सपने में
एक सल्फी का पेड़
और बस्तर की मैना आती है
पर नींद में स्वप्न देखते
उनकी आँखें फूट गई हैं।
परिवार का एक बूढ़ा है
और वह अभी भी देख सुन लेता है
पर स्वप्न देखते हुए आज
स्वप्न की एक सूखी टहनी से
उसकी आँख फूट गई।
***
संपर्क:
विनोद कुमार शुक्ल, सी-217, शैलेन्द्र नगर, रायपुर (छतीसगढ़).




"प्रगतिशील वसुधा'' के वर्ष में सामान्यतः 4 अंक प्रकाशित होते हैं,
वसुधा के कई बहुत महत्त्व के विशेषांक भी चर्चा में रहे हैं.
यहाँ प्रस्तुत 'वसुधा-85'अप्रैल-जून 2010 का अंक है.
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प्रो. कमला प्रसाद
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