रंग और उजास

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गुरुवार, अक्तूबर 21, 2010

ताज़े फूल की तीखी खुश्बू सी कविता...

मुहावरे में कहना हो तो बहुत चलता हुआ मुहावरा है, ज़मीन से जुड़े हुए कवि, पर यह सिर्फ मुहावरे की बात नहीं, यह बिलकुल सीधी सी सच्चाई है, अनुज लुगुन ज़मीन से जुड़े हुए कवि हैं. अनुज लुगुन हिंदी कविता के लिए तुलनात्मक रूप से बहुत नया नाम हैं, लगभग 20-21 बरस के इस युवा को इधर कुछेक पत्रिकाओं में छिट-पुट पढ़ा गया है पर अभी उन की ज्यादा कवितायेँ सामने नहीं आयी हैं. बनारस हिंदू विश्विद्यालय से हिंदी के परास्नातक अनुज बी.एच.यू. में ही आगे शोधरत हैं. यहाँ पर उनकी कविताओं को उनके सोंधेपन और उसके सीधे-सादे शिल्प परन्तु कठिन सवालों से मुठभेड़ के उनके माद्दे के लिए रेखांकित करते हुए प्रस्तुत किया जा रहा है.
यह पहली किश्त है जिस में अनुज की कविताओं के पहले, अनुज से और उन की कविताओं से ज्यादा करीब से परिचित हमारे साथी आशीष त्रिपाठी की एक टिप्पणी यहाँ प्रस्तुत है जो उन्होंने अनुज की कविताओं पर तैयार की है. आशीष जी की इस टिप्पणी के ठीक बाद अगली पोस्ट में आप अनुज लुगुन की कविताओं का मूल आस्वाद भी यहीं पर कर सकेंगे.. मैंने 'वसुधा-85' में जब इन कविताओं को पढ़ा तो एकबारगी मेरे मष्तिष्क में जो कुछ कौंधा वो यही था 'ताज़े फूल की तीखी खुश्बू..' हाँलाकि आशीष जी ने अपने नोट का शीर्षक कुछ और दिया है पर मेरी ओर से प्रस्तुत है 'ताज़े तीखे फूल की तीखी खुश्बू' भाग-1, बहुत जल्द भाग-2 में पढ़िएगा खुद अनुज को...

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चित्र सौजन्य : kriyayoga.com (google photos)

आदिवासी जीवन की कविताएँ : आशीष त्रिपाठी

अनुज लुगुन ने कविताएँ लिखना बस अभी शुरू किया है। मैंने पहली बार लगभग तीन साल पहले उनकी कविताएँ सुनी थीं। तब तक उनकी कोई कविता प्रकाशित नहीं हुई थी। भाषा की अनगढ़ता और कच्चेपन के बावजूद उन कविताओं में अनेक ऐसी पंक्तियाँ थीं, जिनमें एक संवेदनशील कवि की प्रतिभा की अनुगूँज सुनायी पड़ी थी। कुछ ऐसी बातें, उन कविताओं में थीं, जिन्होंने मुझे गहराई से सोचने के लिए बाध्य किया था। जो प्रश्न उठाये गये थे वे हमारे समकालीन समय और समाज के सामने दहकती आग की तरह मौज़ूद थे, और हम भी कहीं उस आग की चपेट में थे। इन तीन वर्षों में कुछ छोटी पत्रिकाओं में उनकी लगभग 10 कविताएँ छप कर आयी हैं। इन सभी कविताओं से उस पहले प्रभाव की पुष्टि हुई है।


अनुज लुगुन जैसे किसी बिल्कुल नये कवि की कवितायें पढ़ते हुए, मैं हमेशा इस उलझन में रहता हूँ, कि ऐसे कवियों में हमें सबसे पहले क्या देखना चाहिए? सवाल को दूसरी तरह से ऐसे भी किया जा सकता है कि कविता बुनियादी तौर पर किस एक या अनेक प्रक्रियाओं से अपना प्राथमिक 'अनुभव’ प्राप्त करती है? 'अनुभव प्राप्ति’ का कार्य मूलत: क्या है और किस प्रक्रिया से सम्पन्न होता है? कवि (खासतौर पर जबकि वह बिल्कुल नया हो) 'अनुभव प्राप्ति’ में अपनी मूलभूत जैविक दक्षताओं पर कितना आश्रित होता है और सांस्कृतिक क्षमताओं पर कितना? इन सवालों से टकराते हुए हमेशा ही मुझे लगता है कि अनुभव-अर्जन की बुनियादी क्रिया 'देखना है’ है। ज़्यादातर कवि अपने शुरुआती काव्यानुभव इसी 'देखना’ क्रिया से प्राप्त करते हैं, जिसमें ज़रूरत के मुताबिक सुनना, सूँघना, स्वाद लेना और छूने की क्रियायें मिलती जाती हैं। स्पष्ट है कि ये सब क्रियायें मूलत: मनुष्य की जैविक दक्षताओं पर टिकी हैं। इन क्रियाओं को हम 'ऐंद्रीय क्रियायें’ कह सकते हैं और इनसे प्राप्त होने वाले अनुभव-ऐंद्रीय अनुभव। यह भी स्पष्ट है कि नये से नये कवि के मामले में ये अपने शुद्ध रूप में नहीं रहते या रह जाते। सिर्फ प्रौढ़ कवि ही ऐंद्रीय अनुभवों को प्रकृत रूप में व्यक्त कर पाने का सामथ्र्य विकसित कर पाते हैं। अन्यथा ऐंद्रीय अनुभव बहुत जल्द ही सांस्कृतिक अनुभवों के साथ मिलकर एक नया रूप प्राप्त कर लेते हैं। जैसे कि 'देखना’ से प्राप्त परिणाम 'सोचना’ और 'विचारना’ प्रक्रियाओं से गुज़रकर एक समग्र और अपेक्षाकृत जटिल रूप में हमारे सामने आते हैं। मिश्रण की यह प्रक्रिया इतनी सहज और अनायास होती है कि उस पर नियंत्रण कर पाना प्राय: असंभव है। परंतु, हम अनुमान लगा सकते हैं कि कवि द्वारा व्यक्त अनुभव में ज़्यादा प्रभावशाली हस्तक्षेप किसका है-देखने का या विचारने का। आशय यह कि कवि का 'देखा हुआ’ ज़्यादा प्रभावी ढंग से प्रकट हुआ है या उस 'देखे हुए’ से संवाद्ध 'विचार’।

अनुज लुगुन की कविताओं में हम सहज ही लक्षित कर सकते हैं कि वे प्राय: अपने आदिवासी गाँव और परिवेश से देखने और विचारने की शुरुआत करते हैं। गाँव और देश में रहते हुए उन्होंने जो देखा, गाँव से बाहर आने के बावजूद वह उनकी आँखों में घूमता रहता है। जब वे फिर गाँव जाते हैं, तो उस पूर्व अनुभव में कुछ दृश्य और जुड़ जाते हैं। इन अनुभवों में एक संगतिपूर्ण तारतम्य है। ये एक ही दिशा में चलते हैं। नियमित और सघन सम्पर्क के कारण वह पुराना अनुभव भी बिल्कुल ताज़ा और जीवंत रहता है। यह जीवित स्मृति का अंग है, न कि 'आज’ से कटी हुई 'स्मृति’ का। इसीलिये यह नॉस्टेज्लिया नहीं है। यह पूरी तरह आज का जीवित अनुभव है। अनुज लुगुन की कविताओं में यह अनुभव पूरी तरह एक 'आदिवासी अनुभव’ की तरह आता है। इसमें नागर मध्यवर्गीयता का कोई स्पर्श नहीं है (हालाँकि मानक हिन्दी का प्रचलित रूप अपनाने के कारण अनेक शब्द और पद उसे इस ओर ले जाने की कोशिश करते हैं)। अनुज जीवन को एक ठेठ आदिवासी की तरह देखते हैं, समाज की बुनियादी वर्गीय चेतना और लोकतांत्रिक भारत की वस्तुगत परिस्थितियों की वैज्ञानिक समझ से सम्पन्न आदिवासी की तरह। यही उनकी कविता की बुनियादी ता$कत है। इसी से उनकी कविताओं का ढाँचा विकसित होता है।

अनुज की कविताओं में आदिवासी जीवन के प्रति गहरी आत्मीयता और आदिवासी समाज के बुनियादी मूल्यों पर सहज आस्था बेहद स्वाभाविक ढंग से प्रकट होती है। जैसे कि वह कविता की संधियों और दरारों में 'सीमेंटिंग एलीमेंट’ की तरह मौजूद है। परन्तु, इन कविताओं में आदिवासियत के प्रति कोई अवांछित 'गरिमा भाव’ नहीं मिलता। महिमामंडन और अतिकथन की सामंती और मध्यवर्गीय प्रवृत्तियाँ भी यहाँ प्राय: नहीं हैं। इन कविताओं में आदिवासी जीवन, परिवेश और चरित्रों की एक लड़ी मिलती है, परन्तु यह भी स्पष्ट है कि उसका चित्रण करना कवि का प्राथमिक लक्ष्य नहीं है। प्राथमिक लक्ष्य है हमारे समय में आदिवासियों पर पड़े अमानवीय और भयावह दबावों को प्रकट करना, जिनसे आदिवासी अपने जल, जंगल, जमीन और जनों को छोडऩे को विवश हैं, जिनसे कि उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। 'युवा संवाद’ के अगस्त 2009 के अंक में प्रकाशित अपनी बिल्कुल प्रारंभिक कविता 'जंगल के स्वत्व के बीच’ में ये सवाल प्रखरता से उठाकर अनुज ने अपने राजनीतिक सरोकारों को भी प्रकट किया था। 'कल के लिए’ के दिसम्बर'08-जून’09 के अंक में प्रकाशित 'बिरसु बाबा’ और 'अघोषित उलगुलान’ (यह कविता आप यहाँ ब्लॉग पर अगली पोस्ट में मूलतः पढ़ सकते हैं – ब्लॉगर) के साथ इस कविता को पढऩे पर अनुज की प्राथमिक चिन्तायें हमारे सामने बिल्कुल स्पष्ट हो जाती हैं। ये आज़ाद भारत में ताकतवर होते गये लोलुप पूँजीवाद के सामने लगभग बेबस आदिवासी की चिन्तायें हैं। इन कविताओं में लोकतांत्रिक समकालीन भारत की आदिवासी-संबद्ध राजनीति का खुलासा किया गया है। नक्सली और हिंदूवादी राजनीति के उद्घाटन के साथ ही अनुज ने इन कविताओं में स्वतंत्र राज्य बनने के बाद झारखण्ड में आदिवासियों द्वारा चलायी जा रही बुर्जुआ मुहावरे और शैली की राजनीति की विडंबनाओं पर गहरी टीप दी है। आज की ये राजनीतिक गतिविधियाँ तब और अधिक विडंबनापूर्ण मालूम पड़ती हैं जहाँ वे इनको बिरसा मुण्डा के उलगुलान के समानांतर रखकर देखते हैं।
अनुज की कविताओं में बिरसा मुण्डा (और उलगुलान) प्रतिरोध के महान प्रेरक नायकों की तरह स्वाभाविक ढंग से आते हैं। परन्तु आज का दृश्य विवशता से भरा है-

इसी जंगल के बीच/ अपने स्वत्व के लिए उठी थी/ बाबा बिरसा की चीख।/
लहरा उठा थी-/ सर ऽऽ ... स ऽऽ... र...ऽऽ....!!!/ सिद्धू-कान्हू और तिलका
की तनी धनुष से टूटा तीर।/ इनकी मूर्तियों तले चौराहे पर /उठती है आज भी चीख
इसी चीख के बीच गंदगी / कान बनद कर दुबक जाती है/ उसे पता है यह घर फूटने की चीख है।


'बिरसु बाबा’ कविता में बिरसू और बिरसा जैसे आमने-सामने खड़े हैं। एक जिंदगी के लिए लड़ता हुआ बेबस आदिवासी है तो दूसरा संघर्ष कर इतिहास-नायक बना आदिवासी। बिरसू और बिरसा का नाम-साम्य और अतीत-वर्तमान का परिस्थिति वैषम्य अपने में बहुत कुछ अभिव्यक्त करता है। परंतु दोनों जगह आदिवासी विकसित होती पूँजीवादी व्यवस्था के सम्मुख अंतत: पराजित होते हैं- यह अनुज से छिपा नहीं है। बिरसु विस्थापित आदिवासी मज़दूर की तरह ईंट भट्टे की चिमनी के भरभराकर गिरने से मरते हैं तो बिरसा बाबा गोरे और दिक्कु लोगों के ज़हर से। यह ज़रूर हुआ है कि 'बाबा बिरसा की मूर्ति से होकर/ गुजरने वाली लाल-पीली-नीली बत्ती’ में बैठा में कोई आदिवासी बिरसु की दुर्घटना में मरी बेटी के नाम मुआवजा पास कर सकता है। कोई स्कीम या पैकेज की घोषणा कर सकता है। परंतु यह आदिवासी नेता वस्तुत: पूँजीवादी बुर्जुआ व्यवस्था का एजेंट है, बस

अनुज की कविताओं की भाषा और कहन पर 'धूमिल’ का प्रभाव मौजूद है

वह कौन दैत्य है/ जो लोहा खा जाता है
कौन साधु है/ जिसके कमंडल में जाकर कोयला राख हो जाता है
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जंगल के स्वत्व का केन्द्र बना है/ दिल्ली या फिर रांची
जहाँ से उठी घोषणाओं की हवा से/ जंगल के पत्ते झर जाते हैं
जो सिंह की दहाड़ से भी/ ज्यादा खतरनाक मालूम पड़ती है


संभवत: व्यवस्थाजनित दंश को प्रभावी तरीके से व्यक्त करने के लिए अनुज को धूमिल की कथन-पद्धति ज़्यादा अनुकूल लगी है, परंतु यह भी स्पष्ट है कि उनकी नयी कविताओं में इससे बाहर आने की कोशिश है।
आदिवासी जीवन से गहरे तक संबद्ध होने के कारण अनुज की कविताओं में नक्सली वामपंथियों का संदर्भ अनेक बार आता है। स्पष्ट है कि नक्सली राजनीति का एकतर$फा समर्थन नहीं है। उसे आदिवासी जीवन में उभरी उम्मीद की किरण भी माना गया है, तो उसके कारण पडऩे वाले दवाबों को भी अनदेखा नहीं किया गया है:-

इसी जंगल के बीच/ लगती है अदालत/जहाँ जमींदार की जमीन पर/ लाल झंडा गाड़कर/ उसकी ज़मीन बांट दी गई/ इसी अदालत में मुनिया के साथ हुई बदसलूकी की सजा/मौत दी गई/ इसी अदालत में/ जनता को दिखी थी/पहली बार अपनी परछाई/ और इसी अदालत का सबसे बड़ा मुखिया/ आज जनता की अदालत में / थैली में लेवी की रसीद लिए/कटघरे में खड़ा है/ जिसे न कटवाने पर/ वह गर्दन काट लेता है।
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उसके बाद आ धमकती है/ बड़ी-बड़ी बूटों की टापें/ कंधों में संगीन लटकाए/ छा जाता है लाल-लाल अंधेरा/ सखुआ के वृक्ष तले/ घेर लिया जाता है पूरा गाँव/ और मंगा का धड़ अलग कर दिया जाता है/ उस पर पुलिस की मुखबिरी का आरोप था/ करता क्या वह/उसकी जुबान टिक नहीं पायी थी/ पुलिसिया रौब के सामने.

अनेक जगहों पर नक्सली कार्यकर्ताओं और अफसरोंशाहों-ठेकेदारों-नेताओं को समान रूप से आदिवासियों से दूर और एक हद तक आदिवासी-विरोधी माना गया है, जिनके बीच आदिवासी पिस रहे हैं परन्तु यहीं 'लालगढ़’ जैसी कविता लिखकर अनुज नक्सली आंदोलन की उपस्थिति को वाजिब मानते हैं।
अनुज लुगुन की कविताओं में 'एकलव्य से संवाद’ (यह कविता आप यहाँ ब्लॉग पर अगली पोस्ट में मूलतः पढ़ सकते हैं – ब्लॉगर) का विशिष्ट स्थान है। पारंपरिक आख्यान के प्रसिद्ध चरित्र एकलव्य को आज के आदिवासी समाज में प्रचलित धनुष-विद्या के आधार पर प्राय: पुन: खोजा गया है। उच्चवर्गीय रुचि बोध और विचारधारा वाली कथा का यह आदिवासी प्रत्याख्यान है। आदिवासी समाज की जिजीविषा और संघर्ष शक्ति को उचित महत्व के साथ यहाँ रेखांकित किया गया है। यह कविता स्वतंत्र विवेचन की माँग करती है, जिसका यहाँ स्पेस नहीं है।


अनुज को अभी एक कवि के रूप में प्राय: अदेखी दुनिया को अधिक विस्तार और गहराई के साथ सामने लाना है। इस काम में भाषा और कहन के अनेक अवरोध हैं, परंतु नागार्जुन-केदार और त्रिलोचन का काव्य-संसार उन्हें अनेक रास्ते सुझा सकता है। विशिष्ट जीवन को प्रकट करने के लिए पर्याप्त संवेदना उनके पास है। मुंडारी और संथाली भाषाओं का रचनात्मक उपयोग करके वे इसे ज़्यादा गहराई से सामने ला सकते हैं।
'झारखण्ड के पहाड़ों का अरण्यरोदन’ और कुछ ऐसी ही ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं के अतिरिक्त संभवत: ये पहली कविताएं हैं, जिन्होंने आज के आदिवासी-सवालों को प्रखरता से उठाया है। इनके कवि का हिंदी समाज गहरी बेचैनी भरी उम्मीद के साथ इस्तकबाल करता है।
(संपर्क : हिन्दी विभाग, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, वाराणसी, मो. 09450711824)
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