रंग और उजास

रंग और उजास

शुक्रवार, मई 28, 2010

कुछ सूफियाना सा..

इस बार कुछ शेर हैं, जिन से बात शुरू करता हूँ..

तू सुन के मेरी इल्तिज़ा क्या करेगा
जो पहले से सोचा हुआ था, करेगा
... और

आइना तुम भी हो, आइना मैं भी हूं
देखूं तो आती है लौट कर रोशनी


मौला ऐसा सलीका हमें बख्श दे
हम लुटाते रहें उम्र भर रोशनी
... ...

शेर हमारे साथी योगेन्द्र मिश्र की ग़ज़ल से हैं.

योगेन्द्र, रीवा के हमारे युवा समूह में बहुविध चर्चित नाम रहे हैं, बहुत सारे क्षेत्रों में योगेन्द्र की प्रतिभा को स्वीकार किया जाता रहा है. गंभीर से गंभीर काम को पूरी गंभीरता से निभाने के लिए भी और गंभीर से गंभीर बात को मन की मौज हो तो हवाओं में उड़ा सकने की उन की विलक्षण योग्यता आज भी हम मित्रों के बीच चर्चा का विषय होती है, उन के पास अद्भुत और अधिकतर अकाट्य तर्क क्षमता है जो कुछ अर्थों में उनके ओशो के शिष्य होने का सही परिचय देती है. कभी-कभी कुतर्क में भी वे सिद्ध हैं, उनकी एक खास अदा रही है(शायद इसे उनकी मज़ा लेने की अदा कहना चाहिए) कि वे देर तक आप का समर्थन करते हुए यदि आपके सामने वाले से सहमत होने की सही फीस (सहमत होने की ये फीस उस समय 5 रू. हुआ करती थी) मिले तो फीस के मुताबिक आपके विरोधी से भी उतनी ही दमदार सहमति दिखा सकते हैं, कॉलेज के समय में ये मजे लेने का उनका खेल, हमारे रंगसमूह के खासे मनोरंजक खेलों में से एक रहा है. वैसे ये खेल सिर्फ बातों-बातों का ही खेल बना रहा.

योगेन्द्र, दर्शन शास्त्र और हिन्दी के मेधावियों में से हैं. वे एक अच्छे रंगकर्मी के साथ-साथ कॉलेज के समय से एक अच्छे वक्ता के रूप में जाने जाते हैं, तथ्य और तर्क को सम्मिश्रित कर के एक लगभग चकित कर देने वाला प्रस्तुतिकरण कौशल योगेन्द्र की पहचान का हिस्सा है. भीतर से संवेदनशील और संघर्षशील अपने मूल भोले स्वभाव को वे एक खास किस्म के आक्रामक ऊपरी व्यवहार के भीतर सहेजे रखना चाहते हैं. योगेन्द्र ने जिन परिस्थितियों में अपने व्यक्तित्व को साधा और सहेजा है, उसके बारे में ज्यादा कुछ कहने से बेहतर सिर्फ इतना ही समझना काफी है कि जहां लोग फिसल कर अंधी खोह(ब्लैक होल) में गुम जाया करते हैं वहां उन्होने तमाम संघर्षों के बीच खुद के लिए स्वयं एक रोशन राह बनाई है.


रोजी-रोटी के लिए वे पुलिस की नौकरी करते हैं और आज भी ग़ज़लें लिखते हैं, कई पुलिस वाले यूं तो उपन्यास लिखते ही हैं, पर योगेन्द्र ग़ज़लें लिख रहे हैं, और खूब लिख रहे हैं. उनकी नौकरी और उनके मूल स्वभाव के बारे में शायद यही कहना ठीक है कि गलत जगह पर सही आदमी.. देखने की बात यही है कि वे पुलिसिया दांव-पट्टी से खुद को और अपनी ग़ज़ल को कैसे और कब तक बचाते हैं.. चलिए ये तो हम समय के साथ देखेंगे ही पर आइये अभी उनकी दो बहुत खूबसूरत ग़ज़लें यहां देखें...

योगेन्द्र की ग़ज़लों में एक खास किस्म का सोंधापन है जो उनकी संवेदना, संघर्ष, प्रतिबद्धता और उनके भीतर के सूफियाने की संगत का मिला-जुला सा कुछ बन कर सामने आता है. उनके रचनाकर्म की पहचान उनकी ये दोनों ग़ज़लें मुझे उनके भीतर का बेहतर परिचय समझ आती हैं सो उन्हें आप सब के साथ बांटता हूं... फिर बतायें कि ....

1.

दम-ब-दम रोशनी, दर-ब-दर रोशनी
मेरे मेहबूब की रहगुज़र रोशनी

उसने देखा तो दिल में दिये जल उठे
उसकी ऑंखों में थी इस कदर रोशनी

जाने कितने उठाये सितम दौर के
तब कहीं बन सकी हमसफर रोशनी

तुम न जाओ कहीं, सिर्फ बैठे रहो
और बिखरती रहे रात भर रोशनी

आइना तुम भी हो, आइना मैं भी हूं
देखूं तो आती है लौट कर रोशनी

मौला ऐसा सलीका हमें बख्श दे
हम लुटाते रहें उम्र भर रोशनी

वक्त की कोख में पलती रहती है पर
सबको आती नहीं है नज़र रोशनी



2.

तू सुन के मेरी इल्तिज़ा क्या करेगा
जो पहले से सोचा हुआ था, करेगा

मेरे दिल की भी तू लगायेगा बोली
तू बाज़ार में है भला क्या करेगा

मेरे पास दिल है, दुआयें हैं तेरी
कोई शख्स मेरा बुरा क्या करेगा

जो तक्मील करता नहीं अपने वादे
वो हक़ मे किसी के दुआ क्या करेगा

जो तासीर तेरी वो तक़दीर होगी
तू जन्नत का ले के पता क्या करेगा

अभी ख्वाब ज़िंदा हैं मेरे ज़ेहन में
अभी से मेरा फैसला क्या करेगा
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