रंग और उजास

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सोमवार, अक्तूबर 25, 2010

ताज़े फूल की तीखी खुश्बू सी...इस अंक में कवितायें

झारखण्ड की पथरीली पृष्ठभूमि से आने वाले युवा कवि अनुज लुगुन के पास अपने देखे-महसूसे संसार की सचाई है, विश्लेषण की समझ है और उसे कविता में बांटने का शिल्प वे अर्जित कर रहे हैं. पिछले अंक में आप ने अनुज लुगुन की कविताओं पर हमारे साथी और युवा आलोचक आशीष त्रिपाठी का नोट पढ़ा, अनुज का संक्षिप्त सा परिचय भी आप पिछली पोस्ट में पढ़ ही चुके है, लीजिए इस पोस्ट में सीधे अनुज लुगुन से संवाद करिये.. उनकी कविताओं से सीधे संवाद. कविता ‘एकलव्य से संवाद’ पर उनके नोट को कविता के पहले जस का तस प्रस्तुत करने से शायद ‘एकलव्य’ पर उनके नज़रिये के सूत्र शायद कुछ अधिक सुलझे ढंग से सामने आयेंगे.. इसलिए वो नोट भी कविता के साथ...


एकलव्य से संवाद .

एकलव्य की कथा सुनकर मैं हमेशा इस उधेड़बुन में रहा हूँ कि द्रोण को अपना अँगूठा दान करने के बाद उसकी तीरंदाजी कहाँ गई? क्या वह उसी तरह का तीरंदाज बना रहा या उसने तीरंदाजी ही छोड़ दी? उसकी परंपरा का विकास आगे कहीं होता है या नहीं? इसके आगे की कथा का जिक्र मैंने कहीं नहीं सुना। लेकिन अब जब कुछ-कुछ समझने लगा हूँ तो महसूस करता हूँ कि रगों में संचरित कला किसी दुर्घटना के बाद एकबारगी समाप्त नहीं हो जाती। हो सकता है एकलव्य ने अपना अँगूठा दान करने के बाद तर्जनी और मध्यमिका अंगुलियों के सहारे तीरंदाजी का अभ्यास किया हो। क्योंकि मुझे ऐसा ही
प्रमाण उड़ीसा के सीमावर्ती झारखण्ड के सिमडेगा जिले के मुण्डा आदिवासियों में दिखाई देता है। इस संबंध में मैं स्वयं प्रमाण हूँ। (हो सकता है ऐसा हुनर अन्य क्षेत्र के आदिवासियों के पास भी हो) यहाँ के मुण्डा आदिवासी अँगूठे का प्रयोग किए बिना तर्जनी और मध्यमिका अँगुली के बीच तीर को कमान में फँसाकर तीरंदाजी करते हैं। रही बात इनके निशाने की तो इस पर सवाल उठाना मूर्खता होगी। तीर से जंगली जानवरों के शिकार की कथा आम है। मेरे परदादा, पिताजी, भैया यहाँ तक कि मैंने भी इसी तरीके से तीरंदाजी की है। मेरे लिए यह एकलव्य की खोज है और यह कविता इस तरह एकलव्य से एक संवाद।

चित्र सौजन्य : zohawoodart.com (google photos.)

एक
घुमन्तू जीवन जीते
उनका जत्था आ पहुँचा था
घने जंगलों के बीच
तेज बहती अनाम
पहाड़ी नदी के पास
और उस पार की कौतुहूलता में
कुछ लोग नदी पार कर गए थे
और कुछ इधर ही रह गए थे
तेज प्रवाह के समक्ष अक्षम
तब तीर छोड़े गए थे
उस पार से इस पार
आखरी विदाई के
सरकंडों में आग लगाकर
और एक समुदाय बँट गया था
नदी के दोनों ओर
चट्टानों से थपेड़े खाती
उस अनाम नदी की लहरों के साथ
बहता चला गया उनका जीवन
जो कभी लहरों के स्पर्श से झूमती
जंगली शाखों की तरह झूम उठता था
तो कभी बाढ़ में पस्त वृक्षों की तरह सुस्त होता था
पर पानी के उतर जाने के बाद
मजबूती से फिर खड़ा हो जाता था
उनके जीवन में संगीत था
अनाम नदी के साथ
सुर मिलाते पपीहे की तरह
जीवन पल रहा था
एक पहाड़ के बाद
दूसरे पहाड़ को लाँघते
और घने जंगल में सूखे पत्तों पर हुई
अचानक चर्राहट से
उनके हाथों में धनुष
ऐसे ही तन उठती थी।

दो
हवा के हल्के झोकों से
हिल पत्तों की दरार से
तुमने देख लिया था मदरा मुण्डा
झुरमुटों में छिपे बाघ को
और हवा के गुजर जाने के बाद
पत्तों की पुन: स्थिति से पहले ही
उस दरार से गुजरे
तुम्हारी सधे तीर ने
बाघ का शिकार किया था
और तुम हुर्रा उठे थे-
'जोवार सिकारी बोंगा जोवार!’
तुम्हारे शिकार को देख
एदेल और उनकी सहेलियाँ
हँडिय़ा का रस तैयार करते हुए
आज भी गाती हैं तुम्हारे स्वागत में गीत
'सेन्देरा कोड़ा को कपि जिलिब-जिलिबा।‘
तब भी तुम्हारे हाथों धनुष
ऐसे ही तनी थी।

तीन
घुप्प अमावस के सागर में
ओस से घुलते मचान के नीचे
रक्सा, डायन और चुडै़लों के किस्सों के साथ
खेत की रखवाली करते काण्डे हड़म
तुमने जंगल की नीखता को झंकरित करते नुगुरों के संगीत की अचानक उलाहना को
पहचान किया था और
चर्र-चर्र-चर्र की समूह ध्वनि की
दिशा में कान लगाकर
अंधेरे को चीरता
अनुमान का सटीक तीर छोड़ा था
और सागर में अति लघु भूखण्ड की तरह
सनई की रोशनी में
तुमने ढूँढ निकाला था
अपने ही तीर को
जो बरहे की छाती में जा धँसा था।
तब भी तुम्हारे हाथों छुटा तीर
ऐसे ही तना था।
ऐसा ही हुनर था
जब डुम्बारी बुरू से
सैकड़ों तीरों ने आज उगले थे
और हाड़-मांस का छरहरा बदन बिरसा
अपने अद्भुत हुनर से
भगवान कहलाया।
ऐसा ही हुनर था
जब मुण्डाओं ने
बुरू इरगी के पहाड़ पर
अपने स्वशासन का झंडा लहराया था।

चार
हाँ एकलव्य!
ऐसा ही हुनर था।
ऐसा ही हुनर था
जैसे तुम तीर चलाते रहे होगे
द्रोण को अपना अँगूठा दान करने के बाद
दो अँगुलियों
तर्जनी और मध्यमिका के बीच
कमान में तीर फँसाकर।
एकलव्य मैं तुम्हें नहीं जानता
तुम कौन हो
न मैं जानता हूँ तुम्हारा कुर्सीनामा
और न ही तुम्हारा नाम अंकित है
मेरे गाँव की पत्थल गड़ी पर
जिससे होकर मैं
अपने परदादा तक पहुँच जाता हूँ।
लेकिन एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है।
मैंने तुम्हें देखा है
अपने परदादा और दादा की तीरंदाजी में
भाई और पिता की तीरंदाजी में
अपनी माँ और बहनों की तीरंदाजी में
हाँ एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है
वहाँ से आगे
जहाँ महाभारत में तुम्हारी कथा समाप्त होती है

पांच
एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है
तुम्हारे हुनर के साथ।
एकलव्य मुझे आगे की कथा मालूम नहीं
क्या तुम आए थे
केवल अपनी तीरंदाजी के प्रदर्शन के लिए
गुरू द्रोण और अर्जुन के बीच
या फिर तुम्हारे पदचिन्ह भी खो गए
मेरे पुरखों की तरह ही
जो जल जंगल जमीन के लिए
अनवरत लिखते रहे
जहर बुझे तीर से रक्त-रंजित
शब्दहीन इतिहास।
एकलव्य, काश! तुम आए होते
महाभारत के युद्ध में अपने हुनर के साथ
तब मैं विश्वास के साथ कह सकता था
दादाजी ने तुमसे ही सीखा था तीरंदाजी का हुनर
दो अँगुलियों के बीच
कमान में तीर फँसाकर।
एकलव्य
अब जब भी तुम आना
तीर-धनुष के साथ ही आना
हाँ, किसी द्रोण को अपना गुरु न मानना
वह छल करता है
हमारे गुरु तो हैं
जंगल में बिचरते शेर, बाघ
हिरण, बरहा और वृक्षों के छाल
जिन पर निशाना साधते-साधते
हमारी सधी हुई कमान
किसी भी कुत्ते के मुँह में
सौ तीर भरकर
उसकी जुबान बन्द कर सकती है।


अघोषित उलगुलान

अल सुबह दान्डू का कािफला
रुख करता है शहर की ओर
और साँझ ढले वापस आता है
परिन्दों के झुण्ड-सा,
अजनबीयत लिए शुरू होता है दिन
और कटती है रात
अधूरे सनसनीखेज किस्सों के साथ
कंक्रीट से दबी पगडंडी की तरह
दबी रह जाती है
जीवन की पदचाप
बिल्कुल मौन!
वे जो शिकार खेला करते थे निश्चिंत
जहर बुझे तीन से
या खेलते थे
रक्त-रंजित होली
अपने स्वत्व की आँच से
खेलते हैं शहर के
कंक्रीटीय जंगल में
जीवन बचाने का खेल
शिकारी शिकार बने फिर रहे हैं
शहर में
अघोषित उलगुलान में
लड़ रहे हैं जंगल
लड़ रहे हैं ये
नक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ
जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ
गुफाओं की तरह टूटती
अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ
इनमें भी वही आक्रोशित हैं
जो या तो अभावग्रस्त हैं
या तनावग्रस्त हैं
बाकी तटस्थ हैं
या लूट में शामिल हैं
मंत्री जी की तरह
जो आदिवासीयत का राग भूल गए
रेमण्ड का सूट पहनने के बाद।
कोई नहीं बोलता इनके हालात पर
कोई नहीं बोलता जंगलों के कटने पर
पहाड़ों के टूटने पर
नदियों के सूखने पर
ट्रेन की पटरी पर पड़ी
तुरिया की लवारिस लाश पर
कोई कुछ नहीं बोलता
बोलते हैं बोलने वाले
केवल सियासत की गलियों में
आरक्षण के नाम पर
बोलते हैं लोग केवल
उनके धर्मांतरण पर
चिंता है उन्हें
उनके 'हिन्दू’ या 'इसाई’ हो जाने की
यह चिंता नहीं कि
रोज कंक्रीट के ओखल में
पिसते हैं उनके तलबे
और लोहे की ढेंकी में
कूटती है उनकी आत्मा
बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए।
लड़ रहे हैं आदिवासी
अघोषित उलगुलान में
कट रहे हैं वृक्ष
माफियाओं की कुल्हाड़ी से और
बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल।
दान्डू जाए तो कहाँ जाए
कटते जंगल में
या बढ़ते जंगल में।

गुरुवार, अक्तूबर 21, 2010

ताज़े फूल की तीखी खुश्बू सी कविता...

मुहावरे में कहना हो तो बहुत चलता हुआ मुहावरा है, ज़मीन से जुड़े हुए कवि, पर यह सिर्फ मुहावरे की बात नहीं, यह बिलकुल सीधी सी सच्चाई है, अनुज लुगुन ज़मीन से जुड़े हुए कवि हैं. अनुज लुगुन हिंदी कविता के लिए तुलनात्मक रूप से बहुत नया नाम हैं, लगभग 20-21 बरस के इस युवा को इधर कुछेक पत्रिकाओं में छिट-पुट पढ़ा गया है पर अभी उन की ज्यादा कवितायेँ सामने नहीं आयी हैं. बनारस हिंदू विश्विद्यालय से हिंदी के परास्नातक अनुज बी.एच.यू. में ही आगे शोधरत हैं. यहाँ पर उनकी कविताओं को उनके सोंधेपन और उसके सीधे-सादे शिल्प परन्तु कठिन सवालों से मुठभेड़ के उनके माद्दे के लिए रेखांकित करते हुए प्रस्तुत किया जा रहा है.
यह पहली किश्त है जिस में अनुज की कविताओं के पहले, अनुज से और उन की कविताओं से ज्यादा करीब से परिचित हमारे साथी आशीष त्रिपाठी की एक टिप्पणी यहाँ प्रस्तुत है जो उन्होंने अनुज की कविताओं पर तैयार की है. आशीष जी की इस टिप्पणी के ठीक बाद अगली पोस्ट में आप अनुज लुगुन की कविताओं का मूल आस्वाद भी यहीं पर कर सकेंगे.. मैंने 'वसुधा-85' में जब इन कविताओं को पढ़ा तो एकबारगी मेरे मष्तिष्क में जो कुछ कौंधा वो यही था 'ताज़े फूल की तीखी खुश्बू..' हाँलाकि आशीष जी ने अपने नोट का शीर्षक कुछ और दिया है पर मेरी ओर से प्रस्तुत है 'ताज़े तीखे फूल की तीखी खुश्बू' भाग-1, बहुत जल्द भाग-2 में पढ़िएगा खुद अनुज को...

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चित्र सौजन्य : kriyayoga.com (google photos)

आदिवासी जीवन की कविताएँ : आशीष त्रिपाठी

अनुज लुगुन ने कविताएँ लिखना बस अभी शुरू किया है। मैंने पहली बार लगभग तीन साल पहले उनकी कविताएँ सुनी थीं। तब तक उनकी कोई कविता प्रकाशित नहीं हुई थी। भाषा की अनगढ़ता और कच्चेपन के बावजूद उन कविताओं में अनेक ऐसी पंक्तियाँ थीं, जिनमें एक संवेदनशील कवि की प्रतिभा की अनुगूँज सुनायी पड़ी थी। कुछ ऐसी बातें, उन कविताओं में थीं, जिन्होंने मुझे गहराई से सोचने के लिए बाध्य किया था। जो प्रश्न उठाये गये थे वे हमारे समकालीन समय और समाज के सामने दहकती आग की तरह मौज़ूद थे, और हम भी कहीं उस आग की चपेट में थे। इन तीन वर्षों में कुछ छोटी पत्रिकाओं में उनकी लगभग 10 कविताएँ छप कर आयी हैं। इन सभी कविताओं से उस पहले प्रभाव की पुष्टि हुई है।


अनुज लुगुन जैसे किसी बिल्कुल नये कवि की कवितायें पढ़ते हुए, मैं हमेशा इस उलझन में रहता हूँ, कि ऐसे कवियों में हमें सबसे पहले क्या देखना चाहिए? सवाल को दूसरी तरह से ऐसे भी किया जा सकता है कि कविता बुनियादी तौर पर किस एक या अनेक प्रक्रियाओं से अपना प्राथमिक 'अनुभव’ प्राप्त करती है? 'अनुभव प्राप्ति’ का कार्य मूलत: क्या है और किस प्रक्रिया से सम्पन्न होता है? कवि (खासतौर पर जबकि वह बिल्कुल नया हो) 'अनुभव प्राप्ति’ में अपनी मूलभूत जैविक दक्षताओं पर कितना आश्रित होता है और सांस्कृतिक क्षमताओं पर कितना? इन सवालों से टकराते हुए हमेशा ही मुझे लगता है कि अनुभव-अर्जन की बुनियादी क्रिया 'देखना है’ है। ज़्यादातर कवि अपने शुरुआती काव्यानुभव इसी 'देखना’ क्रिया से प्राप्त करते हैं, जिसमें ज़रूरत के मुताबिक सुनना, सूँघना, स्वाद लेना और छूने की क्रियायें मिलती जाती हैं। स्पष्ट है कि ये सब क्रियायें मूलत: मनुष्य की जैविक दक्षताओं पर टिकी हैं। इन क्रियाओं को हम 'ऐंद्रीय क्रियायें’ कह सकते हैं और इनसे प्राप्त होने वाले अनुभव-ऐंद्रीय अनुभव। यह भी स्पष्ट है कि नये से नये कवि के मामले में ये अपने शुद्ध रूप में नहीं रहते या रह जाते। सिर्फ प्रौढ़ कवि ही ऐंद्रीय अनुभवों को प्रकृत रूप में व्यक्त कर पाने का सामथ्र्य विकसित कर पाते हैं। अन्यथा ऐंद्रीय अनुभव बहुत जल्द ही सांस्कृतिक अनुभवों के साथ मिलकर एक नया रूप प्राप्त कर लेते हैं। जैसे कि 'देखना’ से प्राप्त परिणाम 'सोचना’ और 'विचारना’ प्रक्रियाओं से गुज़रकर एक समग्र और अपेक्षाकृत जटिल रूप में हमारे सामने आते हैं। मिश्रण की यह प्रक्रिया इतनी सहज और अनायास होती है कि उस पर नियंत्रण कर पाना प्राय: असंभव है। परंतु, हम अनुमान लगा सकते हैं कि कवि द्वारा व्यक्त अनुभव में ज़्यादा प्रभावशाली हस्तक्षेप किसका है-देखने का या विचारने का। आशय यह कि कवि का 'देखा हुआ’ ज़्यादा प्रभावी ढंग से प्रकट हुआ है या उस 'देखे हुए’ से संवाद्ध 'विचार’।

अनुज लुगुन की कविताओं में हम सहज ही लक्षित कर सकते हैं कि वे प्राय: अपने आदिवासी गाँव और परिवेश से देखने और विचारने की शुरुआत करते हैं। गाँव और देश में रहते हुए उन्होंने जो देखा, गाँव से बाहर आने के बावजूद वह उनकी आँखों में घूमता रहता है। जब वे फिर गाँव जाते हैं, तो उस पूर्व अनुभव में कुछ दृश्य और जुड़ जाते हैं। इन अनुभवों में एक संगतिपूर्ण तारतम्य है। ये एक ही दिशा में चलते हैं। नियमित और सघन सम्पर्क के कारण वह पुराना अनुभव भी बिल्कुल ताज़ा और जीवंत रहता है। यह जीवित स्मृति का अंग है, न कि 'आज’ से कटी हुई 'स्मृति’ का। इसीलिये यह नॉस्टेज्लिया नहीं है। यह पूरी तरह आज का जीवित अनुभव है। अनुज लुगुन की कविताओं में यह अनुभव पूरी तरह एक 'आदिवासी अनुभव’ की तरह आता है। इसमें नागर मध्यवर्गीयता का कोई स्पर्श नहीं है (हालाँकि मानक हिन्दी का प्रचलित रूप अपनाने के कारण अनेक शब्द और पद उसे इस ओर ले जाने की कोशिश करते हैं)। अनुज जीवन को एक ठेठ आदिवासी की तरह देखते हैं, समाज की बुनियादी वर्गीय चेतना और लोकतांत्रिक भारत की वस्तुगत परिस्थितियों की वैज्ञानिक समझ से सम्पन्न आदिवासी की तरह। यही उनकी कविता की बुनियादी ता$कत है। इसी से उनकी कविताओं का ढाँचा विकसित होता है।

अनुज की कविताओं में आदिवासी जीवन के प्रति गहरी आत्मीयता और आदिवासी समाज के बुनियादी मूल्यों पर सहज आस्था बेहद स्वाभाविक ढंग से प्रकट होती है। जैसे कि वह कविता की संधियों और दरारों में 'सीमेंटिंग एलीमेंट’ की तरह मौजूद है। परन्तु, इन कविताओं में आदिवासियत के प्रति कोई अवांछित 'गरिमा भाव’ नहीं मिलता। महिमामंडन और अतिकथन की सामंती और मध्यवर्गीय प्रवृत्तियाँ भी यहाँ प्राय: नहीं हैं। इन कविताओं में आदिवासी जीवन, परिवेश और चरित्रों की एक लड़ी मिलती है, परन्तु यह भी स्पष्ट है कि उसका चित्रण करना कवि का प्राथमिक लक्ष्य नहीं है। प्राथमिक लक्ष्य है हमारे समय में आदिवासियों पर पड़े अमानवीय और भयावह दबावों को प्रकट करना, जिनसे आदिवासी अपने जल, जंगल, जमीन और जनों को छोडऩे को विवश हैं, जिनसे कि उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। 'युवा संवाद’ के अगस्त 2009 के अंक में प्रकाशित अपनी बिल्कुल प्रारंभिक कविता 'जंगल के स्वत्व के बीच’ में ये सवाल प्रखरता से उठाकर अनुज ने अपने राजनीतिक सरोकारों को भी प्रकट किया था। 'कल के लिए’ के दिसम्बर'08-जून’09 के अंक में प्रकाशित 'बिरसु बाबा’ और 'अघोषित उलगुलान’ (यह कविता आप यहाँ ब्लॉग पर अगली पोस्ट में मूलतः पढ़ सकते हैं – ब्लॉगर) के साथ इस कविता को पढऩे पर अनुज की प्राथमिक चिन्तायें हमारे सामने बिल्कुल स्पष्ट हो जाती हैं। ये आज़ाद भारत में ताकतवर होते गये लोलुप पूँजीवाद के सामने लगभग बेबस आदिवासी की चिन्तायें हैं। इन कविताओं में लोकतांत्रिक समकालीन भारत की आदिवासी-संबद्ध राजनीति का खुलासा किया गया है। नक्सली और हिंदूवादी राजनीति के उद्घाटन के साथ ही अनुज ने इन कविताओं में स्वतंत्र राज्य बनने के बाद झारखण्ड में आदिवासियों द्वारा चलायी जा रही बुर्जुआ मुहावरे और शैली की राजनीति की विडंबनाओं पर गहरी टीप दी है। आज की ये राजनीतिक गतिविधियाँ तब और अधिक विडंबनापूर्ण मालूम पड़ती हैं जहाँ वे इनको बिरसा मुण्डा के उलगुलान के समानांतर रखकर देखते हैं।
अनुज की कविताओं में बिरसा मुण्डा (और उलगुलान) प्रतिरोध के महान प्रेरक नायकों की तरह स्वाभाविक ढंग से आते हैं। परन्तु आज का दृश्य विवशता से भरा है-

इसी जंगल के बीच/ अपने स्वत्व के लिए उठी थी/ बाबा बिरसा की चीख।/
लहरा उठा थी-/ सर ऽऽ ... स ऽऽ... र...ऽऽ....!!!/ सिद्धू-कान्हू और तिलका
की तनी धनुष से टूटा तीर।/ इनकी मूर्तियों तले चौराहे पर /उठती है आज भी चीख
इसी चीख के बीच गंदगी / कान बनद कर दुबक जाती है/ उसे पता है यह घर फूटने की चीख है।


'बिरसु बाबा’ कविता में बिरसू और बिरसा जैसे आमने-सामने खड़े हैं। एक जिंदगी के लिए लड़ता हुआ बेबस आदिवासी है तो दूसरा संघर्ष कर इतिहास-नायक बना आदिवासी। बिरसू और बिरसा का नाम-साम्य और अतीत-वर्तमान का परिस्थिति वैषम्य अपने में बहुत कुछ अभिव्यक्त करता है। परंतु दोनों जगह आदिवासी विकसित होती पूँजीवादी व्यवस्था के सम्मुख अंतत: पराजित होते हैं- यह अनुज से छिपा नहीं है। बिरसु विस्थापित आदिवासी मज़दूर की तरह ईंट भट्टे की चिमनी के भरभराकर गिरने से मरते हैं तो बिरसा बाबा गोरे और दिक्कु लोगों के ज़हर से। यह ज़रूर हुआ है कि 'बाबा बिरसा की मूर्ति से होकर/ गुजरने वाली लाल-पीली-नीली बत्ती’ में बैठा में कोई आदिवासी बिरसु की दुर्घटना में मरी बेटी के नाम मुआवजा पास कर सकता है। कोई स्कीम या पैकेज की घोषणा कर सकता है। परंतु यह आदिवासी नेता वस्तुत: पूँजीवादी बुर्जुआ व्यवस्था का एजेंट है, बस

अनुज की कविताओं की भाषा और कहन पर 'धूमिल’ का प्रभाव मौजूद है

वह कौन दैत्य है/ जो लोहा खा जाता है
कौन साधु है/ जिसके कमंडल में जाकर कोयला राख हो जाता है
--------
जंगल के स्वत्व का केन्द्र बना है/ दिल्ली या फिर रांची
जहाँ से उठी घोषणाओं की हवा से/ जंगल के पत्ते झर जाते हैं
जो सिंह की दहाड़ से भी/ ज्यादा खतरनाक मालूम पड़ती है


संभवत: व्यवस्थाजनित दंश को प्रभावी तरीके से व्यक्त करने के लिए अनुज को धूमिल की कथन-पद्धति ज़्यादा अनुकूल लगी है, परंतु यह भी स्पष्ट है कि उनकी नयी कविताओं में इससे बाहर आने की कोशिश है।
आदिवासी जीवन से गहरे तक संबद्ध होने के कारण अनुज की कविताओं में नक्सली वामपंथियों का संदर्भ अनेक बार आता है। स्पष्ट है कि नक्सली राजनीति का एकतर$फा समर्थन नहीं है। उसे आदिवासी जीवन में उभरी उम्मीद की किरण भी माना गया है, तो उसके कारण पडऩे वाले दवाबों को भी अनदेखा नहीं किया गया है:-

इसी जंगल के बीच/ लगती है अदालत/जहाँ जमींदार की जमीन पर/ लाल झंडा गाड़कर/ उसकी ज़मीन बांट दी गई/ इसी अदालत में मुनिया के साथ हुई बदसलूकी की सजा/मौत दी गई/ इसी अदालत में/ जनता को दिखी थी/पहली बार अपनी परछाई/ और इसी अदालत का सबसे बड़ा मुखिया/ आज जनता की अदालत में / थैली में लेवी की रसीद लिए/कटघरे में खड़ा है/ जिसे न कटवाने पर/ वह गर्दन काट लेता है।
----------
उसके बाद आ धमकती है/ बड़ी-बड़ी बूटों की टापें/ कंधों में संगीन लटकाए/ छा जाता है लाल-लाल अंधेरा/ सखुआ के वृक्ष तले/ घेर लिया जाता है पूरा गाँव/ और मंगा का धड़ अलग कर दिया जाता है/ उस पर पुलिस की मुखबिरी का आरोप था/ करता क्या वह/उसकी जुबान टिक नहीं पायी थी/ पुलिसिया रौब के सामने.

अनेक जगहों पर नक्सली कार्यकर्ताओं और अफसरोंशाहों-ठेकेदारों-नेताओं को समान रूप से आदिवासियों से दूर और एक हद तक आदिवासी-विरोधी माना गया है, जिनके बीच आदिवासी पिस रहे हैं परन्तु यहीं 'लालगढ़’ जैसी कविता लिखकर अनुज नक्सली आंदोलन की उपस्थिति को वाजिब मानते हैं।
अनुज लुगुन की कविताओं में 'एकलव्य से संवाद’ (यह कविता आप यहाँ ब्लॉग पर अगली पोस्ट में मूलतः पढ़ सकते हैं – ब्लॉगर) का विशिष्ट स्थान है। पारंपरिक आख्यान के प्रसिद्ध चरित्र एकलव्य को आज के आदिवासी समाज में प्रचलित धनुष-विद्या के आधार पर प्राय: पुन: खोजा गया है। उच्चवर्गीय रुचि बोध और विचारधारा वाली कथा का यह आदिवासी प्रत्याख्यान है। आदिवासी समाज की जिजीविषा और संघर्ष शक्ति को उचित महत्व के साथ यहाँ रेखांकित किया गया है। यह कविता स्वतंत्र विवेचन की माँग करती है, जिसका यहाँ स्पेस नहीं है।


अनुज को अभी एक कवि के रूप में प्राय: अदेखी दुनिया को अधिक विस्तार और गहराई के साथ सामने लाना है। इस काम में भाषा और कहन के अनेक अवरोध हैं, परंतु नागार्जुन-केदार और त्रिलोचन का काव्य-संसार उन्हें अनेक रास्ते सुझा सकता है। विशिष्ट जीवन को प्रकट करने के लिए पर्याप्त संवेदना उनके पास है। मुंडारी और संथाली भाषाओं का रचनात्मक उपयोग करके वे इसे ज़्यादा गहराई से सामने ला सकते हैं।
'झारखण्ड के पहाड़ों का अरण्यरोदन’ और कुछ ऐसी ही ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं के अतिरिक्त संभवत: ये पहली कविताएं हैं, जिन्होंने आज के आदिवासी-सवालों को प्रखरता से उठाया है। इनके कवि का हिंदी समाज गहरी बेचैनी भरी उम्मीद के साथ इस्तकबाल करता है।
(संपर्क : हिन्दी विभाग, बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी, वाराणसी, मो. 09450711824)

गुरुवार, अक्तूबर 07, 2010

कविता में किताबों की बातें..

हिंदी कविता के दो बड़े नाम इस बार एक साथ. चंद्रकांत देवताले और कुमार अम्बुज. एक कवि की निगाह में दूसरे की कविता. अम्बुज जी और देवताले जी दोनों ही मेरे प्रिय कवियों में हैं. देवताले जी से तो मेरे कविता से परिचय की शुरुआत का ही परिचय है.. कह सकता हूँ कि हिंदी कविता से मेरे परिचय का झरोखा खोलने वालों में देवताले जी हैं.. गुरु की गरिमा के साथ वे हमारे अपने हैं. अम्बुज जी की कवितायेँ हमेशा मेरे लिए चुम्बकीय आकर्षण सी रही हैं.. 'किवाड़', 'एक कम' जैसी उनकी पचीसों कविताओं का मुरीद हूँ.. कई बार वे बिलकुल अद्भुत ही होते हैं.. सहज और अद्भुत एक साथ. अम्बुज जी तो पिछले दिनों में खुद भी ब्लॉग पर (kumarambuj.blogspot.com) सक्रिय हैं और उनकी सक्रियता से ही हम लोग भी प्रेरित होते हैं.

यहाँ 'वसुधा - 85' के सौजन्य से चंद्रकांत देवताले जी की एक कविता प्रस्तुत है. कविता पर मैं कुछ नहीं बोलूँगा, यह बिलकुल उचित भी नहीं होगा, जबकि उस पर कुमार अम्बुज बोल रहे हैं.. ज्यादा कोई भूमिका बनाये बिना सीधे अम्बुज जी की टिप्पणी के साथ देवताले जी की कविता पढें.. हाँ, एक बात ज़रूर.. जो कुछ मित्रों ने कही भी थी कि, अपेक्षाकृत लंबी कविता के साथ टिप्पणी भी एक ही पोस्ट में शामिल करने से हो सकता है ब्लॉग के अनुसार पोस्ट का आकार लंबा लगे... फिर भी कविता और उस पर टिप्पणी को अलग करना मुझे ज्यादा ठीक विकल्प नहीं लग रहा था. शायद दो अलग पोस्ट डालने पर आस्वाद का असल आनन्द खंडित होता, इसलिए यहाँ एक साथ प्रस्तुत हैं अम्बुज जी और देवताले जी.


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कुमार अंबुज


अँधेरे में से अपने हक की रोशनी
करीब 15 साल पहले चंद्रकांत देवताले दैनिक भास्कर में स्तंभ लिखते थे और उसमें उन्होंने एक बार अपनी कविता प्रकाशित करायी, जो बाद में उनके कविता संग्रह 'उजाड़ में संग्रहालय’ में संकलित हुई है। उस स्तंभ में पहली बार पढ़ी इस कविता की स्मृति जब-तब पीछा करती है। देवताले जी की कविता जीवन के अनंत प्रसंगों से बनती है और आसपास की, रोजमर्रा की छोटी-बड़ी घटनाएँ उनके काव्य विषय हैं। उनके पास अपेक्षाकृत लंबी कविताओं की सहज उपस्थिति है। शब्द स्फीति भी जैसे वहाँ काव्य उपकरण बन जाती है और उनके शिल्प का, कवि की नाराजगी, असंतोष, व्यग्रता और सर्जनात्मक बड़बड़ाहट का हिस्सा होती है। एक कवि जो अकथनीय को भी कह देना चाहता है, इसके अप्रतिम उदाहरण चंद्रकांत देवताले की कविता में देखे जा सकते हैं। परंपरागत आलोचकीय समझ एवं औजार यहाँ अपर्याप्त और कमजोर सिद्ध हो सकते हैं।
पुस्तक मेले के प्रसंग से किताबों, पुस्तकालयों, पाठकों और लेखकों के साथ बदलते समाज की प्राथमिकताओं तथा विडम्बनाओं को समेटती इस कविता का फलक व्यापक है और लगभग हर पैराग्राफ में यह नए आयामों में विस्तृत ही जाती है, बिना अपने केन्द्रीय विषय को विस्मृत किए।
पहली दो पंक्तियाँ ही कविता का प्रसंग और वातावरण तैयार कर देती हैं और फिर आवेग से कविता आगे बढ़ती है। शब्दों और किताबों की महत्ता को, मुश्किलों को नए सिरे से आविष्कृत करती है। इस उपभोक्तावादी, प्रदर्शनकारी, महँगे जमाने में इन किताबों तक पहुँचना आसान नहीं रहा। किताबें, जो ज्ञान, मुक्ति और इसलिए रोशनी का घर हैं। जो अनेक तालों की चाबियाँ हैं। पुस्तकालयों की दुर्दशा और वहाँ का विजुअल दृष्टव्य है, जिनकी जगह या जिनके आसपास अब शराबघर, जुए के अड्डे या तरह-तरह की दुकानें हैं। इस कदर ठसाठस भरी पार्किंग है कि किताबों तक पहुँचना नामुमकिन है। लेकिन किताबें हैं कि इस युग में भी छपती ही जा रही हैं, अपने ताम-झाम और उत्तर आधुनिकता के साथ कदमताल करतीं। अंतर्विरोध और हतभाग्य यही कि हमारे जैसे महादेश के अधिसंख्य लोग आजादी के अर्धशतक के बावजूद इन पुस्तक मेलों में नहीं जा सकते और फैले हुए विराट अँधेरे में से अपने हक की रोशनी नहीं उठा सकते। चाहे फिर वह कफन या गोदान हो या किसी अन्य संज्ञा से उसे पुकारें।
इन्हीं के बीच एक अधिक सक्षम, लोकप्रिय खण्ड है जो सफलता और धन कमाने के उपायों की किताबें रचता है। दुनिया को जीतने के रहस्य, अंग्रेजी जानने के तरीके बताता है और फिर साज-सज्जा से लेकर मोक्ष, व्यंजन पकाने की विधियाँ और बागवानी तक की किताबों की श्रृंखला है, जिसमें बच्चों की किताबें भी हैं लेकिन वे चमक-दमक और रईसी का जीवन जी रहे मध्यवर्ग या उच्चवर्ग के बच्चों को ही नसीब हो सकती हैं। वंचित बच्चों की संख्या विशाल है।
यह कविता सजगता के साथ सबल और निर्बल, सक्षम और अक्षम, सुविधासंपन्न और वंचितों के बीच में लगातार एक तनाव रचती है। यह दो किनारों को मिलाती नहीं है, लगातार याद दिलाती है कि दो सिरे हैं और इनका होना हमारे समय का एक अविस्मरणीय लक्षण है। ये दो सिरे अनेक रूपों में दिखते हैं। औद्योगिक मेला और पुस्तक मेला, ताकतवर आवाज और कमजोर का रोना, अँधेरा और रोशनी, हाथी और कनखजूरे, इतिहास और भविष्य, पुच्छलतारा और आत्मा, किताबें जो तैरा सकती हैं दुनिया को लेकिन खुद डूब रही हैं, साक्षरता अभियान और निरक्षरता, लोकप्रिय और साहित्यिक पुस्तकें जैसे अनेक विलोम-संदर्भों से यह कविता अपना वितान, अपना आग्रह संभव करती है।
हमारे करीब फैली पुस्तकों-पाठकों की समस्या के रैखिक से दिखते यथार्थ को भी यह कविता तमाम जटिलताओं और करुण हास्यास्पदता के बीच रखकर जाँचती परखती है। कविता अपने अंत में विचारकों, लेखकों, प्रकाशकों को भी सवालों के घेरे में लेती है और इधर के एक सामान्य लेकिन बार-बार उठाये जानेवाले प्रश्न को प्रखरतापूर्वक रखती है: 'इन्हें जो लिखेंगे क्या वे ही पढ़ेंगे? कहेंगे जो वे ही सुनेंगे?’ और वे तमाम लोग जो फिर पीछे छूट गए हैं, क्या वे कभी जान पाएँगे कि उनका भी कोई घर भाषा के भीतर हो सकता है? इस कविता का विशिष्ट पहलू यह भी है कि यह सीधे-सीधे अपने वर्तमान से, समकालीनता से टकराती है लेकिन अपनी परिधि को संकुचित नहीं रहने देती।
अपने समय, समाज के शब्दों और किताबों के साथ होनेवाली दुर्घटना को लेकर, अन्यथा उसकी उपलब्धियों पर विचार करते हुए कितनी बेचैनी और सजगता हो सकती है, यह कविता इसी का विमर्श तैयार करती है। यह विमर्श अभी भी प्रासंगिक बना हुआ है। (संपर्क-094244-74678)



चन्द्रकांत देवताले


करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब किताबें

औद्योगिक मेले के बाद अब यह पुस्तकों का
मेला लगा है अपने महानगर में,
और भीड़ टूटेगी ही किताबों पर
जबकि रो रहे हैं बरसों से हम, कि नहीं रहे
किताबों को चाहने वाले, कि नहीं बची अब
सम्मानित जगह दिवंगत आत्माओं के लिए घरों में
कहते हैं छूंछे शब्दों के विकट शोर-शराबे में
हाशिए पर चली गई है आवाज़ छपे शब्दों की
यह भी कहते हैं कि संकट में फँसे समाज और जीवन की
छिन्न-भिन्नताओं के दौर में ही
उपजती है ताकतवर आवाज़ जो मथाती है
धरती की पीड़ा के साथ, पर इन दिनों सुनाई नहीं देती
मज़बूत और प्राणलेवा बन्द दरवाज़े हैं
अँधेरे के जैसे, वैसे ही रोशनी के भी
इन पर मस्तकों के धक्के मारते थे मदमस्त हाथी कभी
अब किताबें हाथी बनने से तो रहीं
पर बन सकती हैं चाबियाँ-
कनखजूरे निकल कर
इनमें से हलकान कर सकते हैं मस्तिष्कों को
फूट सकती है पानी की धारा इनमें से
और हाँ! आग भी निकल सकती है
इन्हीं में है अपनी पुरानी बन्द दीवार घड़ी
बमुश्किल साँस लेता हुआ
मनुष्यों का इकट्ठा चेहरा
हमारे युद्ध और छूटे हुए असबाब
हवाओं के किटकिटाते दाँतों में फँसे हमारे सपने
रोज़मर्रा के जीवन में धड़कती हमारी अनन्तता
और उन रास्तों का समूचा इतिहास
जिनसे गुज़रते यहाँ तक आए
और हज़ारों सूरज की रोशनी के नीचे
धुन्ध और धुएँ के बिछे हुए वे रास्ते भी
भविष्य जिनकी बाट जोहता है
पता नहीं अब कौन सा पुच्छलतारा
आकाश से गुजरा
कि विचारों के गर्भ-गृह के सबसे निकट होने की
ज़रूरत थी जब
आदमी पेट और देह से सट गया
और अपनी प्रतिभा के चाकुओं से जख्मी करने लगा
अपनी ही आत्मा
जो पवित्र स्थानों को मंडियों में बदल सकते हैं
उनके सामने पुस्तकों-पुस्तकालयों की क्या बिसात
जहाँ पुस्तकालय थे कभी, वहाँ अब शराबघर हैं
जुए के अड्डे, जूतों-मोजों की दुकानें हैं
और जहाँ बचे हैं पुस्तकालय वहाँ बाहर
पार्किंग ठसाठस वाहनों की
जिनसे होकर किताबों तक पहुँचना लगभग असम्भव है
भीतर सिर्फ आभास है पुस्तकालय होने का
और किताबें डूब रही हैं और जाहिर है कह नहीं सकतीं
'बचाओ! बचाओ-दुनियावालों तुम्हारे
पाँव के नीचे की धरती और चट्टान खिसक रही है।‘
अपने उत्तर आधुनिक ठाटबाट के साथ
धड़ल्ले से छपती हैं फिर भी किताबें
सजी-धजी बिकती हैं थोक बाजार में गोदामों के लिए
करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब किताबें
सर्कस का-सा भ्रम पैदा करते खड़ी हो सकती हैं
उनमें से निकल सकते हैं जेटयान, गगनचुम्बी टॉवर
कारखाने, खेल के मैदान, बगीचे, बाघ-चीते
और लकड़बग्घा हायना कहते हैं जिसे
पुस्तकें ऐसी भी जिनसे तकलीफ न हो आँखों को
खुद-ब-खुद बोलने लग जाए
चाहो जब तक सुनते रहो
दबा दो फिर बटन-अँधेरा और आवाज़ बन्द हो जाए
जिन्हें अपनी पचास साला आज़ादी ने
नहीं छुआ अभी तक भी इतना
कि वे घुस सकें पुस्तक-मेले में
उठा लें अपने हक की रोशनी 'कफन’, 'गोदान’
या मुक्तिबोध के 'अँधेरे में’ से
और वे भी जो फँसे हैं
साक्षरता-अभियान के आँकड़ों की
भूल-भुलैया में नहीं जानते
कि करोड़ों के नसीब के भक्कास अँधेरे
और गूँगेपन के खिलाफ कितना ताकतवर गुस्सा
छिपा है किताबों के शब्दों में
और दूसरे घटिया तमाशों के लिए हज़ारों के
टिकट बेचने-खरीदने वालों की जि़न्दगी में
चमकते ब्रांडों के बीच गर होती जगह थोड़ी-सी
सही किताबों के लिए
तो वे खुद देख लेते छलनाओं की भीतरघात से
हुआ फ्रेक्चर
घटिया गिरहकट किताबों के हमले से
जख्मी छायाओं की चीख सुन लेते
अपने फायदे या जीवन की चिन्ता की
जिस सीढ़ी पर होंगे जो
खरीदेंगे-ढूंढ़ेंगे वैसी ही रसद अपने लिए
सफलता और धन कमाने
और दुनिया को जीतने के रहस्यों के बाद
अंग्रेज़ी सीखने और इसका ज्ञान बढ़ाने वाली
किताबों पर टूटेगी भीड़
इन्हीं पुस्तकों में छिपा होगा कहीं न कहीं
अपनी आबादी और मातृभाषा को
विस्मृत करने का अदृश्य पाठ
फिर प्रतियोगी परीक्षाएँ, साज-सज्जा
स्वास्थ्य, सुन्दरता, सैक्स, व्यंजन पकाने की
विधियाँ, कम्प्यूटर से राष्ट्रोत्थान
धार्मिक खुराकों से मोक्ष और फूहड़ मनोरंजन
टाइम पास-जैसी किताबों के बाद भी
बचेगी लम्बी फेहरिस्त जो होगी
क्रिकेट, खेलकूद, बागवानी, बोनसाई,
अदरक, प्याज, लहसुन, नीम इत्यादि-इत्यादि के
बारे में रहस्यों को खोलने वाली
बीच में होगा आकर्षक बगीचा बच्चों के लिए
चमकती, बजती, महकती और बोलती पुस्तकों का
मुट्ठी भर बच्चे ही चुन पाएँगे जिसमें से
और जो बाहर रह जाएँगे असंख्य
उनके लिए सिसकती पड़ी रहेंगी
चरित्र-निर्माण की पोथियाँ
और अन्तिम सीढ़ी पर प्रतीक्षा करते रहेंगे
दिवंगत-जीवित कवि, कथाकार, विचारक
वहाँ भी होंगे चाहे संख्या में बहुत कम
जिनके लिए सिर्फ संघर्ष है आज का सत्य
इन्हें जो लिखेंगे क्या वे ही पढ़ेंगे?
कहेंगे जो वे ही सुनेंगे?
और जिनके लिए जीवन के महासागर से
भरी गई विराट मशकें
साँसों की धमन भट्टी से दहकाए शब्द
क्या वे कभी जान पाएँगे कब जान पाएँगे
कि उनका भी घर है भाषा के भीतर!!


संपर्क: चंद्रकांत देवताले, एफ-2/7, शक्ति नगर, उज्जैन (म.प्र.) ; मो. 09826619360


"प्रगतिशील वसुधा'' के वर्ष में सामान्यतः 4 अंक प्रकाशित होते हैं,
वसुधा के कई बहुत महत्त्व के विशेषांक भी चर्चा में रहे हैं.
यहाँ प्रस्तुत 'वसुधा-85'अप्रैल-जून 2010 का अंक है.
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अंक की प्राप्ति या सम्पादकीय संपर्क के लिए आप - vasudha.hindi@gmail.com
पर e-mail कर सकते हैं, या
0755-2772249; 094250-13789 पर कॉल कर सकते हैं.
प्रो. कमला प्रसाद
एम.आई.जी.31,निराला नगर,भदभदा रोड,भोपाल (म.प्र.) 462003
को लिख सकते हैं ....
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