रंग और उजास

रंग और उजास

सोमवार, अक्तूबर 25, 2010

ताज़े फूल की तीखी खुश्बू सी...इस अंक में कवितायें

झारखण्ड की पथरीली पृष्ठभूमि से आने वाले युवा कवि अनुज लुगुन के पास अपने देखे-महसूसे संसार की सचाई है, विश्लेषण की समझ है और उसे कविता में बांटने का शिल्प वे अर्जित कर रहे हैं. पिछले अंक में आप ने अनुज लुगुन की कविताओं पर हमारे साथी और युवा आलोचक आशीष त्रिपाठी का नोट पढ़ा, अनुज का संक्षिप्त सा परिचय भी आप पिछली पोस्ट में पढ़ ही चुके है, लीजिए इस पोस्ट में सीधे अनुज लुगुन से संवाद करिये.. उनकी कविताओं से सीधे संवाद. कविता ‘एकलव्य से संवाद’ पर उनके नोट को कविता के पहले जस का तस प्रस्तुत करने से शायद ‘एकलव्य’ पर उनके नज़रिये के सूत्र शायद कुछ अधिक सुलझे ढंग से सामने आयेंगे.. इसलिए वो नोट भी कविता के साथ...


एकलव्य से संवाद .

एकलव्य की कथा सुनकर मैं हमेशा इस उधेड़बुन में रहा हूँ कि द्रोण को अपना अँगूठा दान करने के बाद उसकी तीरंदाजी कहाँ गई? क्या वह उसी तरह का तीरंदाज बना रहा या उसने तीरंदाजी ही छोड़ दी? उसकी परंपरा का विकास आगे कहीं होता है या नहीं? इसके आगे की कथा का जिक्र मैंने कहीं नहीं सुना। लेकिन अब जब कुछ-कुछ समझने लगा हूँ तो महसूस करता हूँ कि रगों में संचरित कला किसी दुर्घटना के बाद एकबारगी समाप्त नहीं हो जाती। हो सकता है एकलव्य ने अपना अँगूठा दान करने के बाद तर्जनी और मध्यमिका अंगुलियों के सहारे तीरंदाजी का अभ्यास किया हो। क्योंकि मुझे ऐसा ही
प्रमाण उड़ीसा के सीमावर्ती झारखण्ड के सिमडेगा जिले के मुण्डा आदिवासियों में दिखाई देता है। इस संबंध में मैं स्वयं प्रमाण हूँ। (हो सकता है ऐसा हुनर अन्य क्षेत्र के आदिवासियों के पास भी हो) यहाँ के मुण्डा आदिवासी अँगूठे का प्रयोग किए बिना तर्जनी और मध्यमिका अँगुली के बीच तीर को कमान में फँसाकर तीरंदाजी करते हैं। रही बात इनके निशाने की तो इस पर सवाल उठाना मूर्खता होगी। तीर से जंगली जानवरों के शिकार की कथा आम है। मेरे परदादा, पिताजी, भैया यहाँ तक कि मैंने भी इसी तरीके से तीरंदाजी की है। मेरे लिए यह एकलव्य की खोज है और यह कविता इस तरह एकलव्य से एक संवाद।

चित्र सौजन्य : zohawoodart.com (google photos.)

एक
घुमन्तू जीवन जीते
उनका जत्था आ पहुँचा था
घने जंगलों के बीच
तेज बहती अनाम
पहाड़ी नदी के पास
और उस पार की कौतुहूलता में
कुछ लोग नदी पार कर गए थे
और कुछ इधर ही रह गए थे
तेज प्रवाह के समक्ष अक्षम
तब तीर छोड़े गए थे
उस पार से इस पार
आखरी विदाई के
सरकंडों में आग लगाकर
और एक समुदाय बँट गया था
नदी के दोनों ओर
चट्टानों से थपेड़े खाती
उस अनाम नदी की लहरों के साथ
बहता चला गया उनका जीवन
जो कभी लहरों के स्पर्श से झूमती
जंगली शाखों की तरह झूम उठता था
तो कभी बाढ़ में पस्त वृक्षों की तरह सुस्त होता था
पर पानी के उतर जाने के बाद
मजबूती से फिर खड़ा हो जाता था
उनके जीवन में संगीत था
अनाम नदी के साथ
सुर मिलाते पपीहे की तरह
जीवन पल रहा था
एक पहाड़ के बाद
दूसरे पहाड़ को लाँघते
और घने जंगल में सूखे पत्तों पर हुई
अचानक चर्राहट से
उनके हाथों में धनुष
ऐसे ही तन उठती थी।

दो
हवा के हल्के झोकों से
हिल पत्तों की दरार से
तुमने देख लिया था मदरा मुण्डा
झुरमुटों में छिपे बाघ को
और हवा के गुजर जाने के बाद
पत्तों की पुन: स्थिति से पहले ही
उस दरार से गुजरे
तुम्हारी सधे तीर ने
बाघ का शिकार किया था
और तुम हुर्रा उठे थे-
'जोवार सिकारी बोंगा जोवार!’
तुम्हारे शिकार को देख
एदेल और उनकी सहेलियाँ
हँडिय़ा का रस तैयार करते हुए
आज भी गाती हैं तुम्हारे स्वागत में गीत
'सेन्देरा कोड़ा को कपि जिलिब-जिलिबा।‘
तब भी तुम्हारे हाथों धनुष
ऐसे ही तनी थी।

तीन
घुप्प अमावस के सागर में
ओस से घुलते मचान के नीचे
रक्सा, डायन और चुडै़लों के किस्सों के साथ
खेत की रखवाली करते काण्डे हड़म
तुमने जंगल की नीखता को झंकरित करते नुगुरों के संगीत की अचानक उलाहना को
पहचान किया था और
चर्र-चर्र-चर्र की समूह ध्वनि की
दिशा में कान लगाकर
अंधेरे को चीरता
अनुमान का सटीक तीर छोड़ा था
और सागर में अति लघु भूखण्ड की तरह
सनई की रोशनी में
तुमने ढूँढ निकाला था
अपने ही तीर को
जो बरहे की छाती में जा धँसा था।
तब भी तुम्हारे हाथों छुटा तीर
ऐसे ही तना था।
ऐसा ही हुनर था
जब डुम्बारी बुरू से
सैकड़ों तीरों ने आज उगले थे
और हाड़-मांस का छरहरा बदन बिरसा
अपने अद्भुत हुनर से
भगवान कहलाया।
ऐसा ही हुनर था
जब मुण्डाओं ने
बुरू इरगी के पहाड़ पर
अपने स्वशासन का झंडा लहराया था।

चार
हाँ एकलव्य!
ऐसा ही हुनर था।
ऐसा ही हुनर था
जैसे तुम तीर चलाते रहे होगे
द्रोण को अपना अँगूठा दान करने के बाद
दो अँगुलियों
तर्जनी और मध्यमिका के बीच
कमान में तीर फँसाकर।
एकलव्य मैं तुम्हें नहीं जानता
तुम कौन हो
न मैं जानता हूँ तुम्हारा कुर्सीनामा
और न ही तुम्हारा नाम अंकित है
मेरे गाँव की पत्थल गड़ी पर
जिससे होकर मैं
अपने परदादा तक पहुँच जाता हूँ।
लेकिन एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है।
मैंने तुम्हें देखा है
अपने परदादा और दादा की तीरंदाजी में
भाई और पिता की तीरंदाजी में
अपनी माँ और बहनों की तीरंदाजी में
हाँ एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है
वहाँ से आगे
जहाँ महाभारत में तुम्हारी कथा समाप्त होती है

पांच
एकलव्य मैंने तुम्हें देखा है
तुम्हारे हुनर के साथ।
एकलव्य मुझे आगे की कथा मालूम नहीं
क्या तुम आए थे
केवल अपनी तीरंदाजी के प्रदर्शन के लिए
गुरू द्रोण और अर्जुन के बीच
या फिर तुम्हारे पदचिन्ह भी खो गए
मेरे पुरखों की तरह ही
जो जल जंगल जमीन के लिए
अनवरत लिखते रहे
जहर बुझे तीर से रक्त-रंजित
शब्दहीन इतिहास।
एकलव्य, काश! तुम आए होते
महाभारत के युद्ध में अपने हुनर के साथ
तब मैं विश्वास के साथ कह सकता था
दादाजी ने तुमसे ही सीखा था तीरंदाजी का हुनर
दो अँगुलियों के बीच
कमान में तीर फँसाकर।
एकलव्य
अब जब भी तुम आना
तीर-धनुष के साथ ही आना
हाँ, किसी द्रोण को अपना गुरु न मानना
वह छल करता है
हमारे गुरु तो हैं
जंगल में बिचरते शेर, बाघ
हिरण, बरहा और वृक्षों के छाल
जिन पर निशाना साधते-साधते
हमारी सधी हुई कमान
किसी भी कुत्ते के मुँह में
सौ तीर भरकर
उसकी जुबान बन्द कर सकती है।


अघोषित उलगुलान

अल सुबह दान्डू का कािफला
रुख करता है शहर की ओर
और साँझ ढले वापस आता है
परिन्दों के झुण्ड-सा,
अजनबीयत लिए शुरू होता है दिन
और कटती है रात
अधूरे सनसनीखेज किस्सों के साथ
कंक्रीट से दबी पगडंडी की तरह
दबी रह जाती है
जीवन की पदचाप
बिल्कुल मौन!
वे जो शिकार खेला करते थे निश्चिंत
जहर बुझे तीन से
या खेलते थे
रक्त-रंजित होली
अपने स्वत्व की आँच से
खेलते हैं शहर के
कंक्रीटीय जंगल में
जीवन बचाने का खेल
शिकारी शिकार बने फिर रहे हैं
शहर में
अघोषित उलगुलान में
लड़ रहे हैं जंगल
लड़ रहे हैं ये
नक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ
जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ
गुफाओं की तरह टूटती
अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ
इनमें भी वही आक्रोशित हैं
जो या तो अभावग्रस्त हैं
या तनावग्रस्त हैं
बाकी तटस्थ हैं
या लूट में शामिल हैं
मंत्री जी की तरह
जो आदिवासीयत का राग भूल गए
रेमण्ड का सूट पहनने के बाद।
कोई नहीं बोलता इनके हालात पर
कोई नहीं बोलता जंगलों के कटने पर
पहाड़ों के टूटने पर
नदियों के सूखने पर
ट्रेन की पटरी पर पड़ी
तुरिया की लवारिस लाश पर
कोई कुछ नहीं बोलता
बोलते हैं बोलने वाले
केवल सियासत की गलियों में
आरक्षण के नाम पर
बोलते हैं लोग केवल
उनके धर्मांतरण पर
चिंता है उन्हें
उनके 'हिन्दू’ या 'इसाई’ हो जाने की
यह चिंता नहीं कि
रोज कंक्रीट के ओखल में
पिसते हैं उनके तलबे
और लोहे की ढेंकी में
कूटती है उनकी आत्मा
बोलते हैं लोग केवल बोलने के लिए।
लड़ रहे हैं आदिवासी
अघोषित उलगुलान में
कट रहे हैं वृक्ष
माफियाओं की कुल्हाड़ी से और
बढ़ रहे हैं कंक्रीटों के जंगल।
दान्डू जाए तो कहाँ जाए
कटते जंगल में
या बढ़ते जंगल में।

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