रंग और उजास

रंग और उजास

'वसुधा' के अंक..

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"प्रगतिशील वसुधा''

के वर्ष में सामान्यतः 4 अंक प्रकाशित होते हैं, वसुधा के  बहुत महत्त्व के कई विशेषांक भी चर्चा में रहे हैं.
 यहाँ प्रस्तुत 'वसुधा-86'
जुलाई-सितम्बर'10 का अंक है.
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अंक की प्राप्ति या सम्पादकीय संपर्क के लिए आप - vasudha.hindi@gmail.com
पर e-mail कर सकते हैं
या
0755-2772249; 094250-13789 पर कॉल कर सकते हैं.

प्रधान  संपादक

प्रो. कमला प्रसाद
एम.आई.जी.31,निराला नगर, भदभदा रोड, भोपाल (म.प्र.) 462003 को लिख सकते हैं ....
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यहाँ पर आप 'वसुधा 86'  में प्रकाशित सामग्री सूची देख सकते हैं,

सम्पादकीय के साथ ही चयनित कवितायेँ, लेख आदि पढ़ सकते हैं...


वसुधा 86 में प्रकाशित सामग्री... 


अनुक्रम

प्रकाशकीय : राजेंद्र शर्मा
एक पत्र : चंद्रकांत देवताले

सम्पादकीय
कब्रिस्तान है शहर हमारा फिर भी कोई आवाज नहीं: कमला प्रसाद
श्रद्धांजलि-स्मरण
मराठी कवि की असल बंदिश: नारायण सुर्वे: अरुण खोपकर
नारायण सुर्वे की कविताएँ: अनुवाद-संजय भिसे
शताब्दी-स्मरण
फैज़ अहमद फैज: एक जि़न्दा आवाज़: अतीकुल्लाह
प्रगतिशील लेखकों से कुछ बातें: फैज़ अहमद फैज़ का व्याख्यान
मजाज़ के जीवन और शायरी पर एक परिचयात्मक नोट: अर्जुमन्द आरा
छंदों में रंगों की बारिश: शमशेर की कविता: राधावल्लभ त्रिपाठी
विशिष्ट कवि: नरेन्द्र जैन
कुछ छूट जाता, हमेशा...: नरेन्द्र जैन से राजेंद्र शर्मा की एक अंतरंग बातचीत
नरेन्द्र जैन की कविताएँ
नरेन्द्र जैन के अनुवाद: आरहन वैली की कविताएँ
उपन्यास अंश
... कि बुरे फंसे: मंजूर एहतेशाम
कहानी
झुनझुना: सच्चिदानन्द चतुर्वेदी
कविताएँ
मलय,  नंद चतुर्वेदी,  नरेश सक्सेना,  सुरेश सलिल,  देवीशरण ग्रामीण
कविता की स्मृति
कुमार अंबुज अरुण कमल एवं राजेश जोशी की कविताओं पर
कहानी
कोई जादू है क्या...! : चरण सिंह पथिक,  बॉन फायर: नलिनी शर्मा
युवा कहानी: एकल पाठ
कहानी के संभव शिल्प में यथार्थ: नीरज खरे
कविताएँ
प्रेमशंकर शुक्ल,  सुरेश सेन निशांत,  ओमप्रकाश वाल्मीकि
शशिनारायण स्वाधीन,  जी.एस. रोशन
युवा-संवाद
मन के अमरूद में उतरा पृथ्वी का स्वाद: आशीष त्रिपाठी
मनोज कुमार झा की कविताएँ
संस्मरण
बाजिलो काहार बीना मधुर स्वरे: रमाकान्त श्रीवास्तव
व्यंग्य
भस्मासुर की वापसी: अली जावेद
परसाई का पुनर्पाठ
दुख के रूप: वेद प्रकाश
साहित्यिकी
एक नव्य इतिहासवादी अर्थमीमांसा: विनोद शाही
मराठी संत कवि तुकाराम के अभंग: अनुवाद- चंद्रकान्त देवताले
कविताएँ यूरोप से: अनुवाद- आग्नेय
कविताएँ पाकिस्तान से: चयन- शहरयार
सामाजिकी
आदिवासी संस्कृति-वर्तमान चुनौतियों का उपलब्ध मोर्चा: हरिराम मीणा
माओवादियों के सामने विकल्प: प्रभात पटनायक
मर्दसत्ता की घेरेबंदी और स्त्री विमर्श: वीरेन्द्र यादव
विज्ञान की बात में विधाता का क्या काम?: शशांक दुबे
किताब के बहाने
कबीर का काव्य: एक नयी ऐतिहासिक चेतना: प्रभात त्रिपाठी
आधी, मगर क्या खूब किताब है: मणिशंकर अय्यर
किताब चर्चा
नामवर जी की आलोचना नये नये रूप में: खगेन्द्र ठाकुर
लोकतंत्र के दरकते स्तंभों की दास्तान: डॉ. संजीब कुमार दुबे
जीवन-स्मृतियों का संयोजन: पे्रमकुमार
सार्थक रचनात्मकता का हस्तक्षेप: भालचन्द्र जोशी
वैश्विक बाजार बने देश की विसंगतियों पर व्यंग्य: कमल जैन
समकालीन कविता के अनिवार्य अध्याय: भरत प्रसाद
कविता में राजनीति की विधा: अजय तिवारी
मनुष्यता के पक्ष में खड़ी कविता: सुरेश पंडित
कविता के भीतर सुरक्षित आग: ए. अरविंदाक्षन
पसीने में भीगी रोटियाँ: सुधांशु उपाध्याय
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संपादकीय :
कब्रिस्तान है शहर हमारा, फिर भी कोई आवाज नहीं

पिछले कुछ दिनों में मीडिया के ज़रिए हिन्दुस्तानी अवाम का विशेष ध्यान खींचने वाली जो खबरें मिली हैं- उनमें काश्मीर घाटी का कर्फ्यू और लगातार मौतें, नक्सली हत्यायें और अयोध्या विवाद का फैसला प्रमुख हैं। राष्ट्रमंडल खेलों के औचित्य को लेकर विवाद ज़रूर हुआ है, पर उससे ज़्यादा चिन्तनीय उसकी तैयारी में हुए महाभ्रष्टाचार की खबर है। भ्रष्टाचार की छोटी या बड़ी खबरों को आजकल लोग हंसकर टाल देते हैं, इसलिए कि इसको  धीरे-धीरे और अन्दर-अन्दर अनिवार्य व्यवहार की तरह देखा जाने लगा है। खेत की रखवाली के लिए लगी बाड़ें स्वयं ही खेत खाती हैं तो फिर कोई किससे शिकायत करे। इतनी फुरसत-ज़रूरत किसी को नहीं, कि वह व्यवस्था के भ्रष्ट होने के कारणों का अनुसन्धान करे और फिर व्यवस्था बदलने के अभियान में शरीक हो। वही मीडिया जो राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी में भ्रष्टाचार की खबरें छाप रहा था, अब खेल शुरू होने पर प्रबंधन की तारीफों के पुल बांध रहा है। मीडिया की चिन्ता भ्रष्टाचार निवारण में नहीं उसे बेंचने में है। कोई भी अनाचार या हादसा बेंचने में ही उसका लाभ होता है। लड़ाई निर्णायक हो-किसी अन्याय के विरुद्ध, इसमें उसकी भला दिलचस्पी क्यों होगी। देखते-देखते राष्ट्रमंडल खेलों के महाभ्रष्टाचार की गल्प समाप्त और अब उत्सव गीत शुरू। आरोपी ही कीर्ति के शिखर पर हैं। इसलिए इस बहुचर्चित समस्या पर बातें अभी छोड़ दें। दूसरी ऐसी समस्याओं पर विचार करना जरूरी है-जो पीछा नहीं छोड़तीं। हर सुबह और-और  खतरनाक होकर पेश आती हैं। उन्हें विनोद की तरह नहीं टाला जा सकता।
पहली और क्रूर समस्या जम्मू-काश्मीर से जुड़ी है। जानते हैं, पूरा काश्मीर हिन्दुस्तान के पास नहीं है। एक बड़ा भाग पाकिस्तान के कब्जे में है- जिसे आज़ाद काश्मीर के  नाम से जाना जाता है। पाकिस्तान ने हिन्दुस्तान के प्रति शत्रुता के चलते उसी में से कुछ हिस्से चीन और अमरीका को सौंप दिए हैं। दोनों देशों की अपनी वैश्विक नीतियाँ हैं। पाकिस्तान उनकी रणनीतियों के खेल में सबसे कमज़ोर माध्यम है। आज़ादी के तत्काल बाद से ही काश्मीर बँटा-बँटा है और वही भारत-पाक के बीच ज़हरीली सियासत का केन्द्र है। पाकिस्तान में अब तक की जो राजनीतिक दिशा बनी, उसके चलते हिन्दुस्तान में स्थायी बेचैनी तो है ही उस देश में तो लोकतंत्र की ही कुर्बानी होती गई है। लगातार सैनिक तानाशाही जघन्य अपराध के खेल खेलती रही है। कहा जाता है कि दुनिया में बिना किसी मेहनत यानी आसानी से यदि कहीं किसी देश पर सेना कब्जा कर सकती है-तो वह पाकिस्तान है। इतना ही नहीं-पाकिस्तान की सरकारी खु$िफया सैनिक इकाई आई.एस.आई. ने अपने मुख्य काम की तरह हिन्दुस्तान में गड़बड़ी फैलाने तथा काश्मीर को हड़पने के लिए प्रशिक्षित आतंकवादियों की फौज तैयार की है। अलकायदा-तालिबानजैसे विश्व घोषित खतरनाक संगठन इसी देश की ज़मीन की उपज हैं। रोजगार की तलाश में भटकते पाकिस्तानी युवाओं को माता-पिता की जानकारी के बिना बल्कि दुनिया से छिपा-छिपाकर इन्हीं संगठनों में भर्ती किया जाता रहा? पाकिस्तान की अपनी ही दोगली राजनीतिक गतिविधियों, बयानों-घोषणाओं तथा वैश्विक दुरभि संधियों के कारण अब तक की प्रतिष्ठा उसके अपने ही प्रपंचों में उलझती गई है। आज दुष्परिणाम यह कि उन्हीं के पाले-पोसे आतंकवादी उन्हीं के लिए भस्मासुर हो गए हैं। कट्टरपंथियों को लगता है कि और कहीं संभव हो न हो-पाकिस्तान की सत्ता में वे तत्काल काबिज़ हो सकते हैं। नकारात्मक राजनीति ने अभी तक पाकिस्तान को एक राष्ट्र भी नहीं बनने दिया और उधर तालिबान का जो खेल अफगानिस्तान में खेला जा रहा है, वह वहाँ के लोकतंत्र के लिए भयानक खतरा है। जहाँ तक आज़ाद काश्मीर की स्थिति है, वह तो केवल षड्यंत्र की जगह है। जनता की सुध-बुध किसी को नहीं है। स्वयं पाकिस्तान के लिए वह कचड़ाघर की तरह है
हिन्दुस्तान में शामिल काश्मीर की ओर देखें। जम्मू, लद्दाख को मिलाकर जम्मू-काश्मीर राज्य बना है। तीनों हिस्सों में अभी तक आन्तरिक सामंजस्य का अभाव है, इसलिए उनकी अलग-अलग राजनीतिक स्थितियाँ हैं। हाल-हाल में जिस विकरालता ने देशवासियों को बेचैन किया है वह विशेषत: काश्मीर क्षेत्र की है। काश्मीर के शायर रफीक नाज़ ने आज के अपने काश्मीर की स्थितियों का बयान यों किया है-
कब्रिस्तान है शहर हमारा, फिर भी कोई आवाज नहीं।
आये कितने ही सैलाब, फिर भी कोई आवाज नहीं।
शायर की यह पीड़ा अवाम के हालात देखकर व्यक्त हुई है। काश्मीरियत के खोने की पीड़ा  है यह। काश्मीर से बाहर लोगों के सामने जो काश्मीर की नयी तस्वीर है, वह मीडिया की बतायी हुई है-सियासत में उलझे काश्मीर की। इस इलाके की एक सियासत है- नेशनल कांफ्रेंस, कांग्रेस, पी.डी.पी. भाजपा तथा अन्य छोटी-छोटी-पैंथर्स, वामदल तथा अन्य दलों द्वारा संचालित। भारतीय संविधान के भीतर सक्रिय दलों की राजनीति। दूसरी सियायत विशेष रूप से हुर्रियत कांफ्रेंस के दो धड़ों- कट्टरपंथी और उदारवादी-समूहों के ज़रिए खेली जाती है। इनका रास्ता संविधान से बाहर है। इन्हें आज़ादी चाहिए। जनमत संग्रह चाहिए। स्वतंत्र रहें या पाकिस्तान में मिलें। स्वतंत्रता, स्वशासन जैसे शब्दों से इनका लेना-देना नहीं है। जनता के दुख-दर्द से इनका लेना-देना नहीं है, इन्हें केवल भारत से बाहर होने की राजनीति करनी है। उनके तार पाकिस्तानी सियासत से जुड़े पृथकतावादी हैं। काश्मीर घाटी में आतंकी खेल से इन्हें परहेज नहीं हैं। यहाँ की आवाम को 60 वर्षों से इन दो तरह की आवाजों के अलावा कुछ सुनायी नहीं पड़ा। उनके मन की आवाज को किसी ने नहीं पहचाना। उनकी वास्तविक मनोदशा की पहचान मीडिया में छपी खबरों कैसे आती? दो दिन के लिए गए सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल ने जो पहल की उसमें जनता की आवाज को पहचानने की कितनी क्षमता रही होगी?  कौन सी पार्टी अपना चश्मा उतारकर निकलती है? उसे लौटकर अपनी पार्टी का ही लाभ देखना होता है। जनता की हकीकत तो र$फीक नाज़ के शब्दों में-कब्रिस्तान जैसी ही है। कल्लाश्मीर से लौटकर आये गैर सरकारी लोगों की बातें सुनें तो घाटी के भीतर और बाहर रात-दिन खुली जंग है। तीन महीनों से क$फ्र्यू है। अनंतनाग, पुलबामा, खारीगाँव, बदरी-डुरू आदि सभी जगह अशांति है। हर क्षण मौतें हैं। गुस्सायी युवा पीढ़ी किसी पर भी पत्थर बरसा रही है। बुजुर्ग आसमान को निहारते बैठे हैं, गमज़दा हैं। खुदा से रहम की भीख मांगते हैं। सी.आर.पी.एफ. के ज़वानों को केवल डंडे मारने और गोली दागने का प्रशिक्षण है। हालांकि उनकी भी जि़न्दगी सुरक्षित नहीं है। रात-दिन ड्यूटी है-ड्यूटी गोली दागने में बीतती है। लोगों के घर कैदखाने हैं। समूचा आलम खौ$, तनाव, लाचारी, किल्लत, ज़हालत, भगदड़, हड़बड़ी से सना है। स्कूल बंद। रोजगार बंद। सडक़ों के जुलूस में शामिल होना लोगों की मजबूरी है। न जाओ तो तोडफ़ोड़। अपने ही शत्रु। घायलों के लिए एम्बुलेन्स नहीं। घाटी में लाशों को ढोने के लिए कंधे भी नसीब नहीं। युवा की लाश निकलती है तो शादी के गीत गाने की मार्मिक परम्परा है यहाँ। कितना त्रासद होता है यह दृश्य। यह नज़ारा आम हो गया है। पसरे सन्नाटे में दूध, सब्जी, राशन कहाँ मिले। पड़ोस ने पड़ोस की मदद की तो शुक्रिया। जीना मुहाल। लोगों के दिल से पूंछो-क्या चाहिए? एक ही आवाज है- अमन! हमें जीने दो।’ ‘आज़ादीशब्द मालूम है अर्थ नहीं। अर्थ छिपा है- जनता के दिल की आवाज में, व्यक्तिगत-सार्वजनिक समस्याओं के निदान में, काश्मीरियत में, ज़मीन से बिछुड़े विस्थापितों की पुकार में, सियासत के दिए घाव में। काश्मीरियों ने अभी तक लोकतंत्र की सुबह ही नहीं देखी। इसलिए उनके ऊपर आसमान में छाए धुंये को साफ करने की जरूरत है। खतरनाक खेल खेलने वालों को निष्प्रभावी बनाने के अलावा कोई चारा नहीं है। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्वतंत्रता काश्मीरियों के गौरव से जुड़ी है। सारे समाधान जनता के दिलों की पहचान से जुड़े हैं। हर रोज हर पल अपनापे की चाहत है। कितना विचित्र है कि जिस धरती ने इतने विद्वान, दार्शनिक, काव्यशास्त्री और आचार्य पैदा किए, जिसके सौंदर्य को छूने के लिए दुनिया तरसती रही है, जो धरती हिन्दुस्तान का तेजोमय मस्तक कहलाती थी, वह आज बौने-बौने लोगों की गिर$फ्त में है। बौने लोग ही वहां के नेता हैं। रात-दिन की क्रूरता का खेल झेलता समाज है। प्रतिरोध का कोई तार्किक आधार किसी के पास नहीं है। काश, इस धरती का कोई पुत्र विरासत का उत्तराधिकारी बनकर जनता की रहनुमायी करे।

(2)
नक्सलबाड़ी से शुरू हुई नक्सलपंथियों की क्रांतिधर्मिता आज अपने उद्देश्यों से भटक  गई है। कितने तो टुकड़े हो गए हैं। एक टुकड़ा माओवादी कहलाता है। माओवादी-नक्सलवादी दो अलग-अलग पद हैं। आए दिन इन समूहों के नाम से ऐसी घटनाएँ जुड़ रही हैं जो दिल दहला देती हैं। दंतेवाड़ा में 72 सुरक्षाकर्मियों की हत्या और ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस को पलट देने से हुईं सैकड़ों निर्दोषों की मौतों को कौन ज़ायज़ ठहरायेगा। मनुष्य की हत्याओं को कोई जनोन्मुख सिद्धान्त अंगीकार नहीं कर सकता। जब यह आन्दोलन शुरू हुआ था तब धारणा थी कि नक्सल क्रांतिकारी-मूलत: आदिवासियों के साथ होते शोषण और अन्याय के विरोध में उनके अधिकारों के रक्षक हैं। उनकी अस्मिता के हिमायती हैं। इसी अभिप्राय से वे आदिवासियों के शोषकों को सबक सिखाते हैं। बड़े-बड़े अधिकारियों, मंत्रियों और अमीरों पर निशाना साधते हैं। उनका संघर्ष वर्गयुद्ध है। वे सशस्त्र क्रांति लाना चाहते हैं। इतने वर्षों में इनके कृत्य उस तरह नहीं रहे। अपने ही वर्ग के हत्यारे बन गए हैं। इनकी सोच इतनी भटकी है कि बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के खिला$फ वे सत्तालोलुप अराजक बूज्र्वानेता ममता बैनर्जी के पक्ष में खड़े हैं। रेल और बसें उड़ा देते हैं। निरपराधों को अगुआ करते हैं। आदिवासी समूहों में भी उनकी गतिविधियों के प्रति पहले जैसा सद्भाव नहीं बचा। उनके साथ अभी तक जो सहानुभूति रखते थे वे भी असहज महसूस करते हैं। साथ खड़े होने का नैतिक आधार खोते जा रहे हैं। राज्य सरकारें भी नक्सलपंथियों के बहाने चाहे जिन निरपराधियों को सजा देती हैं। राजकीय हिंसा को जायज ठहराने वाले लोगों को बढ़ावा मिला है। पिछले दिन अरुन्धती राय ने नक्सपंथियों के पक्ष में लेख लिखा था-जिसको लेकर पूरे देश में अब तक गंभीर बहस जारी है। स्वयं वामपंथियों के बीच भी यह गंभीर विचार मंथन का दौर है। वसुधा ने इस विचार विमर्श में भाग लिया है। नक्सलपंथी आंदोलन के औचित्य-अनौचित्य पर लम्बी बहस से अब ज़्यादा उचित यह लगता है कि आदिवासी समाज के अगल-बगल झाँककर देखें। नक्सल समस्या उन्हीं की नींव पर जमी है। उन्हीं के नाम से कथित लोकतंत्री सरकारें शोषण का जाल बिछाती रही हैं। अत: आज ज़रूरत है कि आदिवासी समाज की  बुनियाद को समझा जाए और उसी में से नक्सलपंथियों को निष्प्रभावी बनाने के रास्ते खोजे जायें। इसे बहुत दूर तक केवल कानून की समस्या न जाना जाए। वसुधा ने इसी अंक में ऐसी महत्वपूण सामग्री प्रकाशित की है। व्यापक पाठक समाज इसमें साझेदारी करेगा तो संभवत: निदान की खोज संभव हो सकेगी।

(3)
30 सितम्बर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट की तीन सदस्यीय जजों की लखनऊ बेंच ने अयोध्या विवाद का फैसला सुनाया। विवाद की शुरुआत तो सन् 1885 में हुई थी, निर्मोही अखाड़ा के बाबा रघुवरदास ने सरकार से ज़मीन का कब्जा मांगा था पर उसका फैसला होने पर चुप्पी स्थापित हो गई। सन् 1950 में अयोध्यावासी हाशिम अंसारी द्वारा मालिकाना हक का वाद फिर से सामने आया तो सरकार ने ज़मीन का अधिग्रहण कर स्थानीय नगर पालिका को सौंप दिया। इससे विवाद शांत नहीं हुआ। सन् 1961 में सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड ने मालिकाना हक का नया दावा पेश किया। सन् 1978 में राम जन्मभूमि मंदिर और रामलला विराजमान के नाम से भी दावा पेश किया गया जो 1983 में खारिज हो गया। सन् 1989 में उत्तर प्रदेश सरकार के अनुरोध पर मुकदमा जिला न्यायालय से हाईकोर्ट स्थानान्तरित हुआ। इन्हीं दिनों विश्व हिन्दू परिषद ने रामलला विराजमानका नया मामला दायर किया। कुल मिलाकर मुकदमे आते गए और लंबित होते गए। 6 दिसम्बर 1992 को तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण अडवाणी की रथयात्रा के साथ बाबरी मस्जिद के नाम से जाना जाने वाली इमारत अवैधानिक तरीके से ध्वस्त कर दिया गया। इस घटना से पूरे देश की राजनीति में तूफान जैसा आ गया। जगह-जगह साम्प्रदायिक दंगे हुए। विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, शिवसेना के कार्यकर्ताओं का हिंसक रवैया-लोकतंत्र के लिए मुसीबत बनने लगा। गुज़रात के जिस गोधराकाण्ड की आग अभी तक नहीं बुझी-उसका सूत्र सम्बन्ध अयोध्या में शामिल कार सेवकों से ही रहा है। उसके बाद पूरे गुजरात राज्य में जो हुआ था- उसकी इतिहास में कोई मिसाल नहीं है। इस घटना के बाद बाबरी मस्जिद बनाम राम मंदिर का मसला साम्प्रदायिक राजनीति के केन्द्र में आ गया। ऐसे में पूर्व से चली आती कानूनी लड़ाई को तीव्र करने की ज़रूरत महसूस हुई। आसान नहीं था इसका सुलझाना। हाईकोर्ट के ज़ज़ भी बदलते रहे। नये ज़ज़ नए सिरे से सुनवाई करते रहे। ऐतिहासिक साक्ष्य के लिए ए.एस.आई के निर्देशन में एक खुदाई समूह बनाया गया। ढाँचे के नीचे की खुदाई की गई। इस समूह में जो इतिहासकार शामिल थे, उनको लेकर कई इतिहासविदें को आपत्तियाँ थीं। लोगों को याद होगा, अब खुदाई के समाचार अखबारों में आ रहे थे, उन्हीं दिनों इतिहासकारों के बीच गंभीर विवाद छिड़ा हुआ था। ए.एस.आई. द्वारा विवादों को किनारे करके अंतत: न्यायालय को 572 पृष्ठों की रिपोर्ट सौंपी गई। न्यायालय को लंबित मामलों को मिलाकर अन्तर्सम्बद्ध चार मामलों को सुलझाना था जिसके भीतर सैकड़ों बिन्दुओं की प्रश्नावली थी। मुख्य मामले थे-बाबरी मस्जि़द और परिसर का मालिकाना ह$क- हिन्दुओं-मुसलमानों में से किसका है। दो-क्या बाबरी मस्जि़द की इमारत हिन्दु मंदिर को तोडक़र सोलहवीं सदी में बनी है। तीन-क्या 1949 के पहले मुसलमान इसे मस्जि़द के रूप में इस्तेमाल करते थे। चार-क्या हिन्दू मतावलम्बी राम जन्मभूमि मानकर इसमें पूजा करते आ रहे थे?
लखनऊ पीठ के तीनों जजों ने अलग-अलग फैसला दिया। एक फैसला सर्वसम्मत था कि रामलला की मूर्ति जहाँ रखी है,  (22/23 दिसम्बर 1949 की रात में चोरी से रखी गयी) वहीं रहेगी। परिणामत: उस ज़मीन का स्वामित्व हिन्दुओं के पास रहेगा। निर्मोही अखाड़ा के वाद को मान्य करते हुए राम चबूतरे और सीता रसोई की जमीन का ह$क उसे दिया गया। परिसर की 2.77 एकड़ विवादित जमीन को दो हिस्सों में बांटने के बाद शेष जमीन का ह$क मुसलिम समाज को निर्धारित किया। इसके अलावा सुन्नी वक्$फ बोर्ड की ओर से दायर वाद बहुमत (2+1) से खारिज कर दिया गया। एक जज ने कहा कि ए.एस.आई. की रिपोर्ट के मुताबिक मस्जि़द का निर्माण हिन्दू मंदिर की तरह के ढाँचे के ऊपर किया गया है जो इस्लामी नियमों के खिलाफ है। दूसरे जज़ ने बाबरी मस्जिद के अस्तित्व को लगभग अस्वीकार कर दिया। तीसरे ज़ज़ ने माना कि हिन्दू ढाँचा पूर्व में था ज़रूर पर मस्जि़द उसके ऊपर नहीं बनी है। उसके मलबे का उपयोग किया गया होगा। त्वरित रूप से कोर्ट के फैसले का भावनात्मक रूप से पूरे देश में व्यापक स्वागत हुआ है। इससे आशंकित राष्ट्र ने राहत की सांस ली है। सरकारों ने कानून व्यवस्था के लिहाज से प्रसन्नता व्यक्त की है। कई समाचार पत्रों ने जमीन को तोडक़र दिलों को जोड़ दियाशीर्षक से समाचार छापे हैं। निश्चय ही न्यायालय ने भारतीय समाज की गरिमा को खंडित होने से बचाने की पहल की है। न्यायाधीशों ने विशेष टिप्पणियों में अपने ऐसे इरादे व्यक्त भी किए हैं। दिलचस्प और काव्यात्मक टिप्पणी जस्टिस एस.यू. खान की है। उन्होंने कहा कि अयोध्या का सारा विवाद बारूदी सुरंग पर खड़ा है। देवदूत भी इस पर पैर रखने से डरते रहे हैं। न्यायाधीशों का काम सुरंगों पर दौड़ना नहीं,  उन्हें साफ करना रहा है। फैसले के द्वारा यदि 1992 दोहराया जाता तो देश खड़ा नहीं हो सकता था। इस तरह उन्होंने मुकदमे के कानूनी पाठसे अधिक मेल मिलापकी भावना को पढ़ा है।
अयोध्या फैसले ने इतने लम्बे अर्थात् लगभग पन्द्रह हजार पृष्ठों के विवरणों में से भावनात्मक एकता के सूत्र निकाले हैं, दोनों समुदायों को समझौते के लिए उत्प्रेरित किया है, मसले को राजनीति के दायरे से घसीटकर कानून की परिधि में ला दिया है, यह उसका सकारात्मक पक्ष है। अब शायद ही कोई राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्र में इसे शामिल कर पाए। असंतोष के जो भी पहलू इस फैसले के भीतर छिपे हैं, उसका निदान केवल कानूनी दुनिया अर्थात् उच्चतम न्यायालय के पास है।
फैसले के भीतर माननीय न्यायाधीशों ने ऐसी बातें लिखी हैं-जो शायद गलत नज़ीर बन सकती हैं। वे उनके अधिकार क्षेत्र की नहीं, प्रत्यक्ष रूप से वाद से जुड़ी हुई नहीं रही हैं और विरोधाभासी हैं। मसलन् सुन्नी वक्फ बोर्ड का वाद खारिज़ कर दिया गया तो किस आधार पर ज़मीन के बंटवारे में तीसरा हिस्सा मुसलमानों को दिया जायेगा, उसको लेने वाला पात्र कौन होगा? न्यायालय ने शायद ए.एस.आई की विवादित रिपोर्ट पर फैसले को टिकाकर न्याय की दुनिया में ही आगे के लिए असमंजस के बीज डाल दिए हैं। एक ज़ज़ महोदय ने तो अनावश्यक रूप से लिख दिया कि उसी ढाँचे की जगह राम का जन्म हुआ था। अयोध्या में राम का जन्म ऐेतिहासिक तथ्य नहीं है। काव्य-गं्रथों में प्रतीक रूप से यह माना जाता रहा है। स्वयं तुलसी जैसे कवि ने लिखा है- जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं।श्रुतियों में राम जन्म की तिथि और स्थान के प्रसंग गाए जाते रहे हैं। श्रुतियाँ तो लोक विश्वास और लोक ज्ञान के समान मानी जाती रही हैं। राम जन्म स्थल के बारे में जो धारणाएँ हैं उन्हें पूजापाठ और रामलीला के उत्सवों के लिए विश्वास और आस्था के रूप में चलने देना एक बात है। फैसले में निर्णायक वक्तव्य देना उपयुक्त नहीं है। फैसले का एक अन्य पहलू 6 दिसम्बर 1992 में ढाँचे के ढहाये जाने की आपराधिक क्रिया को कमजोर बनाता है। जिन लोगों ने अवैधानिक रूप से उसे ध्वस्त किया था, उनकी बांछें अभी से खिलने लगी हैं।  लालकृष्ण अडवानी के कथन कि उनकी रथयात्रा की सार्थकता प्रमाणित हुई है, इसका ही संकेत है। जैसे-जैसे फैसले का व्यवस्थित पाठ हो रहा है, कानूनविद उसमें एक पक्ष की ओर झुकी अनुगूंज सुन रहे हैं। फलत: भावनात्मक सामंजस्य की राहें उसके प्रभाव को तटस्थ नहीं रहने देतीं। अच्छा हो- कि जो माहौल बना है, उसकी छाया में राजनेताओं और राजनीतिक दलों को अलग रखकर दोनों मज़हबों के लोग गरिमापूर्ण समझौता कर लें। इससे बारूद की सुरंग के साफ होने के रास्ते खुल जायेंगे।

(4)
शताब्दी समारोह
हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के लक्षित महान रचनाकारों के शताब्दी आयोजन शुरू हो चुके हैं। प्रगतिशील लेखक संघ ने जो पहल की थी उसके अच्छे नतीजे आ रहे हैं। प्रतिदिन कहीं न कहीं से खबरें मिलती हैं। आयोजकों और आमंत्रित वक्ताओं के संदेश आते हैं। कुछ छोटे-छोटे कस्बों से इन रचनाकारों की रचनाओं की जानकारी चाही जाती है। उनकी सुविधा के लिए यह बताना उचित लगता है कि राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली के पेपर बैक संस्करण में प्रतिनिधि कविताएँ-शमशेर बहादुर सिंह- सं. नामवर सिंह मूल्य 50=00 प्रतिनिधि कविताएँ- नागार्जुन-सं. नामवर सिंह मूल्य 50=00 प्रतिनिधि कविताएँ- फैज़ अहमद फैज़ सं. फैज़, मूल्य 60=00  फैज़ सं. शमशेर बहादुर सिंह मूल्य 200=00 तथा प्रतिनिधि शायरी- मजाज लखनवी-सं. नरेश नदीम मूल्य 60=00 सामूहिक रूप से प्रकाशन के दिल्ली केन्द्र से या अन्य पुस्तक विक्रेताओं से प्राप्त की जा सकती हैं। केदारनाथ अग्रवाल की प्रतिनिधि रचनाओं का प्रकाशन भी राजकमल से हो चुका है, और सम्पूर्ण साहित्य, इलाहाबाद के साहित्य भंडारप्रकाशन से उपलब्ध है। हिन्दी के प्रमुख शताब्दी पुरुषों की चुनी हुई महत्वपूर्ण रचनाएँ पाठकों के बीच उपलब्ध कराकर चर्चा, गोष्ठी और समारोहों के सिलसिलों को सार्थक बनाया जा सकता है। हमारी समझ है कि इन महान रचनाकारों को केन्द्र में रखकर साहित्य और विचारधारा, साहित्य और सौंदर्यबोध, साहित्य और भारतीय परम्परा, साहित्य और सामाजिक संघर्ष, साहित्य और लोकतंत्र जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर नए सिरे से विचार मंथन किया जाना चाहिए। इन रचनाकारों को सामने रखने पर बहस इस दिशा में भी मुड़ती है कि क्या कोई रचनाकार केवल अपनी प्रतिभा के बल बूते महान बनता है या कोई प्रयत्न भी जरूरी होता है? प्रयत्न केवल साहित्य मांजने से ही जुड़ा रहता है, या सामाजिक जीवन के अनुभवों की ज़रूरत होती है? जनसंघर्षों से लेखक के अनुभवों का कोई रिश्ता बनता है? श्रम सौन्दर्य की साहित्य में कैसी विशिष्ट पहचान बनती है? बीसवीं शताब्दी के जो रचनाकार महान माने जाते हैं जैसे निराला, मुक्तिबोध, अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन, $फैज़ के अलावा और भी अनेक हैं, उनके जीवन स्रोतों और रचना श्रेतों को खंगाला जा सकता है। गौर करने की बात यह भी है कि भारतीय समाज की जातीय और सौन्दर्य तात्विक विशेषताओं को किन रचनाकारों ने किस तरह आत्मसात किया है और किन रचनाकारों का संसार पश्चिम मुखी और नितान्त मध्यवर्गीय है? किनके लेखन में आलम्बनों को पहचानना कठिन है अथार्त् अमूर्त है?
शताब्दी रचना- पुरुषों के महत्व को स्वीकारने वाले कई शिविर हैं। वे भी-जो कहते हैं कि इनकी महानता को माक्र्सवाद की परिधि में नहीं लेना चाहिए। और वे-जो इनकी महानता के पीछे माक्र्सवादी जीवन दृष्टि, सामाजिक जीवन बोध और सौंदर्य चेतना के सामंजस्य को पहचानते हैं? मुझे लगता है कि इस समय तमाम प्रगतिशील पाठकों को गंभीरता से इन रचनाकारों का गंभीर परीक्षण करना चाहिए। देखना चाहिए कि इन रचनाकारों ने केवल समाज की राजनीतिक स्थितियों को ही प्रतिबिम्वित नहीं किया, इनकी रचनाएँ मनुष्य की असीमित और अनन्त बाह्यान्तरिक गहराईयों को स्पर्श करती हैं। हमें चुनौती के रूप में उन रचनाकारों के गंभीर पाठ के रास्ते खोलने चाहिए। हमारी जिम्मेदारी है कि गोपाल सिंह नेपाली, उपेन्द्रनाथ अश्क और अज्ञेय की रचनाओं का भी पुनर्पाठ करें। सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक और सौंदर्यबोधात्मक संज्ञान की सम्पूर्णता में इन्हें पहचानने की समवेत कोशिश की जानी चाहिए।
फैज़ जैसे महान साहित्यकार ने महान साहित्य के मानदण्ड की बात करते हुए ठीक ही लिखा है- लेखनी के संघर्ष और कर्म के संघर्ष का योग होने पर अनुभव और अभिव्यक्ति दोनों अपनी पूर्णता की मंजिल तक पहुंचते हैं, और सही साहित्य का यही उद्देश्य है। एहसास और विवेक, ज्ञान और कर्म, अनुभवीकरण और उद्देश्य पूर्ण-यही साहित्य की विशेषताएं साहित्य के स्थायित्व और साहित्यकार की महानता को मापने का मानदंड हैं।
- कमला प्रसाद







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"प्रगतिशील वसुधा''
के वर्ष में सामान्यतः 4 अंक प्रकाशित होते हैं,  वसुधा के कई बहुत महत्त्व के विशेषांक भी चर्चा में रहे हैं.
यहाँ प्रस्तुत 'वसुधा-85'
अप्रैल-जून 2010 का अंक  है.

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अंक की प्राप्ति या सम्पादकीय संपर्क के लिए आप  - vasudha.hindi@gmail.com

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या
0755-2772249
094250-13789
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प्रो. कमला प्रसाद
एम.आई.जी.31,
निराला नगर,
भदभदा रोड,
भोपाल (म.प्र.) 462013

को लिख सकते हैं ....

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यहाँ पर आप वसुधा 85 में प्रकाशित सामग्री सूची देख सकते हैं, 
सम्पादकीय के साथ ही चयनित कवितायेँ, लेख आदि पढ़ सकते हैं...






वसुधा 85 में प्रकाशित सामग्री...  अनुक्रम.



प्रकाशकीय

राजेंद्र शर्मा - 5


सम्पादकीय

कि भला, यह भी कोई काम हुआ: कमला प्रसाद - 7


श्रद्धांजलि

'कथा’, मार्कण्डेय और मैं : संतोष चतुर्वेदी - 15

उठ गया नावक फेगन....: अली जावेद - 20

साहित्य का मर्म और जालान का रंग कर्म: कृपाशंकर चौबे - 24

एक अंतरंग तलाश : महेश आनंद - 26



रवि बाबू की डेढ़ सौ वीं जयंती

प्रगतिशील लेखक संघ से सरोकार का सन्दर्भ: अली सरदार जाफरी - 29

रवीन्द्रनाथ का उपन्यास 'गोरा’ और देशभक्ति का कठिन सवाल : तनिका सरकार - 33

शताब्दी स्मरण

डॉ. राम मनोहर लोहिया की इतिहास दृष्टि: खगेन्द्र ठाकुर - 51

केदारनाथ अग्रवाल: झूठे मरे तो कैसे: अजय तिवारी - 62


विशिष्ट कवि

लीलाधर जगूड़ी की कविताएं - 72
अनुभव के आकाश में कविता: ओम निश्चल - 82
कवि लीलाधर जगूड़ी से ओम निश्चल की बातचीत: हर नया कवि पुराने कवि से जन्म लेता है - 90

शख्शियत

बंजारा: जावेद सिद्दीकी - 108

वह आदमी...: श्याम मुन्शी - 121



कविताएं

विनोद कुमार शुक्ल 124, अष्टभुजा शुक्ल 124, केवल गोस्वामी - 130


कविता की स्मृति

कुमार अंबुज: अंधेरे से अपने हक की रोशनी - 131

चन्द्रकांत देवताले: करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब किताबें - 133


व्याख्यान

हमारा समय और साहित्य: डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल - 137

कहानी

काला चींटा: द्वारकेश नेमा -153


कविताएं

हेमंत देवलेकर 163, शहंशाह आलम 164, शशिभूषण द्विवेदी 166, रमेश प्रजापति 169,

विभोर मिश्रा 170, शंभुदयाल 171, नासिर अहमद सिकंदर 172, बृज श्रीवास्तव 173, पवन मेराज - 174


युवा-संवाद

आदिवासी जीवन की कविताएँ: आशीष त्रिपाठी - 177

अनुज लुगुन की कविताएँ - 181


विसंवाद

कामरेडों के साथ एक रूमानी सफर: अनिर्वाण गुप्ता – 186


कहानियां

कन्हैयालाल वल्द रामरतन सिंह: उमाशंकर चौधरी - 190

रोजाना: सोनू उपाध्याय - 205


कविताएँ

मल्लिका अमरशेख 212, ज्योति चावला 214, रंजना जायसवाल 215, हरप्रीत कौर 217,

पूनम सिंह 218, रंजना श्रीवास्तव - 219


परसाई का पुनर्पाठ

'एक घण्टे का साथ’: एक कतरे में दरिया: वेद प्रकाश - 220


विशेष संदर्भ

हिन्दी भवन की स्थापना: विश्वनाथ त्रिपाठी - 232


कविताएँ

दामोदर खड 240, तेजराम शर्मा 241, जसबीर चावला 242, भगत सिंह सोनी -243


सामयिकी

वैश्विक पूँजी का प्रेत: हरिराम मीणा - 244



भाषांतर

ओडिय़ा कहानी: भोग दखल: चन्द्रशेखर रथ - 251


चिली से कविताएं

डेविड रे, मुरियल रक्सर -260

पाकिस्तान से कविताएं

जेहरा निगाह - 261



कुछ महत्वपूर्ण किताबें

कविता जो लिथड़ी होगी धूल में: विजय कुमार - 264

वाद-संवाद की कविताएँ: बृज श्रीवास्तव - 269

भूमंडलीय यथार्थवाद की कहानियाँ: रमेश उपाध्याय - 274

बोल दे उसको जो कि हिय में बहुत बेचैन है: राजेश जोशी - 280



गज़ल एवं गीत

भगवतशरण झा 'अनिमेष’ 284, अनिरुद्ध नीरव 285, नचिकेता - 286

वसन्त सकरगाए 287, प्रेम किरण 288, विनय मिश्र - 289


कुछ और ताजा किताबें

पूर्णविराम के विरोध में खड़ी अंतर्वस्तु: हरपाल सिंह 'अरुषÓ - 290

विरोधी समय का सार्थक हस्तक्षेप: अरविन्द अवस्थी - 296

कविता रचती है एक महावर्तमान को: ए. अरविंदाक्षन : 298

शब्द के गलियारों में गूँजती है कविता: भालचन्द जोशी - 302

केशव तिवारी की कविता: डॉ. शिवकुमार मिश्र - 305
मृत्यु से रचनात्मक विद्रोह की कविता: जयकौशल - 308

जीवन के गहरे भावबोध को जगाती कविताएँ: राजेश सक्सेना - 311

यथार्थ और स्वप्न की जुगलबंदी: सेवाराम त्रिपाठी - 314

जेहन के दरवाजे पर दस्तक देती उमराव जान: राजेश्वर वशिष्ठ - 318

अंधेरे कोनों की पड़ताल: रमाकांत श्रीवास्तव - 321

राजनीति, समाज और अल्पसंख्यक: सुशील कुसुमाकर - 327

प्रगतिशील लेखक संघ की गतिविधियाँ -330



एक चयन... अंक-85 से.


संपादकीय



कि भला, यह भी कोई काम हुआ..

हिन्दुस्तान आज़ाद हुआ तो जो समस्याएँ विभाजन ने पैदा कीं-उनका निदान अभी तक नहीं हुआ। इसलिए कि उनके कारणों का सामना नहीं किया गया। कारणों का सामना करने में सत्ता पर काबिज़ों को खतरा होता है। आज़ाद भारत में जो समस्याएँ विकराल रूप में प्रकट हुईं, उन्हें केवल टालते हुए रिझाया गया। समस्याओं से ग्रस्त जनता के दुख में आँसू बहाए गए और गुस्से को ठंडा करने के लिए लोक लुभावन, चित्त-विजयी नारे लगाए गए। लोकतंत्र में से लोक को गायब किया जाता रहा। तंत्र को कब्जे में रखना कठिन नहीं होता। वह तो क्रय-विक्रय की वस्तु है। श्रमिक समाज को संगठित होने से रोकने के लिए परियोजना बनाकर धीरे-धीरे काम किया गया। बीसवीं सदी के उठान में श्रमिक संगठनों के विकसित उज्जवल सामाजिक-प्रारूप को खंडित किया गया। रूस सहित अनेक कम्युनिस्ट देशों का बिखराव हुआ तो जैसे जहान में पूंजीवाद-साम्राज्यवाद को खुला मैदान अकेले खेलने को मिल गया। इक्कीसवीं सदी में जब हम पीछे के कुछ वर्षों के घटनाक्रम पर निगाह डालते हैं- तो दिखता है कि कैसे-कैसे नारे बदले, सत्ताएँ बदलीं और लोकतंत्र में- आर्थिक साम्राज्यवाद, धार्मिक-सम्प्रदायवाद-आतंकवाद, नस्लवाद का वर्चस्व बढ़ता गया। प्रतिरोधी शक्तियाँ हाथ पर हाथ धरे बैठी रहीं। समय के तेजस्वी प्रखर, विचारक एज़ाज़ अहमद ने ठीक ही रेखांकित किया, 'जनवादी, धर्मनिरपेक्ष, उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रवाद की पराजय और या ह्यस ने भारत से लेकर मिस्र और अल्जीरिया तक बहुत से देशों में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और पूर्वजानुग (एटविस्टिक) हिस्टोरिया के उन्मादी, अविवेकवादी रूपों को जन्म दिया है।‘ यह सब जो हो गया है, उससे अभी उबरने का रास्ता नज़र नहीं आता। आता भी है तो कौन उबारेगा, किसके भरोसे उबारेगा, नेतृत्व कौन करेगा-यह प्रश्न मुंह बाये खड़ा है? इतना तो तय है कि संघर्ष होगा। उबारने वाली शक्तियाँ मरी नहीं हैं। जि़न्दा हैं पर अधूरी-बिखरी हैं। समय के रसायन को धारणा में नहीं बदल पा रहीं। पुराने फार्मूले काम नहीं आ रहे। साम्राज्यवाद के पैरोकार संबोधित करते हैं, 'विचारों को छोड़ो। इतिहास की नसीहतों से मुक्त हो जाओ। पूरी तरह मुक्त और आज़ाद बन जाओ। खाओ-पीओ मौज़ उड़ाओ। तुम्हारी थाली में सारे पदार्थ मौजूद हैं। भोग के बाद तुम्हें जन्नत का रास्ता मिलेगा।‘ जन्नत भेजने वाले रास्ते पर राजदूत सक्रिय हैं। हर मोहल्ले-मोहल्ले में अलग-अलग गणेश हैं। जन्नत के रास्तों की खोज के लिए अनुसंधान केन्द्रों की भरमार है। इसी रास्ते को 'उदारवादी’ कहा जा रहा है। गरीबी, बीमारी, अशिक्षा, बेरोजगारी, महंगाई की माँगे करना इस रास्ते में पिछड़ापन कहा जायेगा। समाजवाद का नाम लेंगे तो नाक सिकोड़ते मज़ाक उड़ाया जायेगा।


आजकल एक और समस्या ने सारे देश का ध्यान खींचा है। राष्ट्रीय जनगणना अभियान के अन्तर्गत जाति को शामिल करने के मुद्दे पर जनता, बुद्धिजीवी, मीडिया और विधायिका में तीखी मत भिन्नता चल रही है। पक्ष-विपक्ष के बयान छप रहे हैं। इस प्रश्न पर विचार करते हुए राजनीतिक यथार्थ का जो विकृत रूप सामने खड़ा हो जाता है, वह किसी को विवेक से निर्णय नहीं लेने देता। कितने राजनेताओं और राजनीतिक दलों को भूमिस्थ होने का डर सताने लगता है। कितना आसान है जाति विशेष का नेता बन जाना। विधायक-सांसद बन जाना। जननेता बनने के संघर्ष में शामिल लोगों की जि़न्दगी खप जाती है, पंचायत के सदस्य नहीं बन पाते। इससे उलट जातीय नेता अमरबेल की तरह झांैड़ जाते हैं। ज़मीन में गड़े पेड़-पौधों के हिस्से का जल पीकर उन्हें डंठल बना देते हैं। उत्तरप्रदेश और बिहार इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। आज राजनीतिक दलों में पिछड़ी जातियों, दलितों-आदिवासियों-अल्पसंख्यकों के वोट जाति और धर्म के आधार पर मिलते हैं, गरीबी के आधार पर नहीं। तोड़कर मुखर रूप से राष्ट्रीयता और मनुष्यता के तत्वों को विकसित करने की चिन्ता कहीं नहीं दिखती। कोई इस भ्रम को नहीं तोड़ता कि जो सामाजिक यथास्थितिवाद है, उसका कारण जातिवाद भी है। जातिवादी दबाव की स्थितियों की विचित्रता को देखते हुए मुझे लगता है कि वर्तमान स्थिति में उन लोगों की राय की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए जो अपनी पहचान जाति और धर्म के आधार पर नहीं बताना चाहते। जाति प्रेमियों के दुराग्रह के सामने सभी को जाति में बदलना उचित नहीं है। संविधान में लक्षित जाति-धर्म-वर्गहीन समाज बनाने के लिए कहीं से शुरुआत तो करनी होगी। लोगों को विकल्प देना होगा। जनगणना में भी ऐसे कालम रखने होंगे जिसमें छूट का प्रावधान हो। अन्तत: गरीबी-अमीरी की खाई समाप्त कर समतावादी समाज की ओर बढऩा ही प्रगति का लक्षण कहलायेगा।






दो

भोपाल अब दुनिया में मशहूर 'गैस काण्डवाला’ एक शहर है, हिन्दुस्तान के एक सूबे की विशेष नगरी और राजधानी। उसमें 2-3 दिसम्बर 1984 की रात यूनियन कार्बाइड नामक बहुराष्ट्रीय कम्पनी के कारखाने से काराबिल मिथाइल आइसो साइनाइड (मिक) नामक ज़हरीली गैस रिसी थी। मैं उस काली रात के भयानक दृश्य का गवाह हूँ। अचानक रात दो बजे अपार जनसैलाब की आवाज सुनी- 'भागो-भागो शहर में ज़हर फैल गया है।Ó बूढ़ी माँ को कंधे में टॉग बाल-बच्चों समेत तीन-चार किलो मीटर घिसटते जा पाए थे कि वापस लौटने की घोषणा होने लगी। कहा गया कि गैस रिसन को रोक दिया गया है। खतरा टल गया है। घर लौट तो आए पर सुबह-सुबह शहर में चीखें-चीत्कारें सुनाई पडऩे लगीं। घर से बाहर निकले तो लाशों का ढेर लगा था। अस्पतालों में ज़गह नहीं थी। एक रात में तीन हजार मौते हो गई थीं। अब तक इनकी संख्या 25 हजार हो गई है। चिकित्सकों को ज़हरीली गैस का इलाज नहीं मालुम था। तब से अब तक की कहानी लम्बी है। इस हादसे से दुनिया हिल गई थी। आज घटना के 26 वर्ष बाद मारे गए लोगों की छोड़ें, जि़दा लोगों की समस्याओं की न ठीक से पहचान हुई और न उचित समाधान की चेष्टा हुई। चालाकी और घूंसखोरी का जाल ही बिछता रहा। सरकारों का रवैया क्रूर और अमानवीय सिद्ध हुआ। उन्होंने इतना ही किया कि सत्ता में दरारें न पड़ें। सरकारों ने विदेशी कम्पनियों के हित में काम किया। जवाबदेही से बचते रहे। इतनी बड़ी घटना के बावजूद केन्द्र सरकार द्वारा अमरीकी नाभिकीय समझौते के तहत संभावित खतरों से अमरीका को मुक्त रखने की साजिश रची जा रही है।


अभी 7 जून 2010 को भोपाल के एक जिला न्यायालय का फैसला आया है। फैसले के आधार पर समस्या को समझना चाहें तो गैस कांड मामूली घटना थी। न्यायालय के फैसले पर जो जन प्रतिक्रिया हुई, मीडिया ने जिस तरह उसे पेश किया- उससे केन्द्र और प्रदेश सरकारों की काली कारगुजारियों का पर्दाफाश हुआ। आनन-फानन इंदिरा गांधी, तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी, गृहमंत्री पी.बी. नरसिंह राव, सी.बी.आई. का पूरा तंत्र तथा मप्र के मुख्यमंत्री, भोपाल के कलेक्टर, एसपी, मुख्य सचिव आदि के नाम साजिश के अभिकर्ता के रूप में सामने आए। आनन-फानन केन्द्र और राज्य सरकारें आक्रोश को शीतल करने के उपाय करने लगीं। कहा जाने लगा कि यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन प्रमुख एंडरसन के प्रत्यर्पण की कार्यवाही होगी। मुकदमे की धाराओं की समीक्षा करते हुए फिर से पुनरीक्षण याचिका दायर की जायेगी। गैस पीडि़तों की ऊँट के मुंह में जीरा जैसी नई मुआवजे की राशि घोषित की गई। पुनर्वास, पर्यावरण, चिकित्सा के नए उपायों का वादा किया गया। समस्या की जटिलता को देखते हुए घोषणाएँ शाब्दिक छलावा के अलावा कुछ नहीं हैं। छब्बीस वर्ष की यह कालावधि गैस प्रभावित जनता को ठगने की कहानी है। विशेषज्ञों के अनुसंधान को देखें, और प्रभावित क्षेत्र के आसपास ज़ाकर स्वयं देखें-तो अभी भी मौज़ूद समस्या की विकरालता अनुभव होगी। कारखाने का ज़हरीला कचरा फैला हुआ है। पानी और हवा में ज़हर घुला है। नई-नई बीमारियों से जनता परेशान है। पीढिय़ाँ विकलांग हो रही हैं। 5 लाख लोगों की जिन्दगी तबाह है। सवाल उठता है कि यह कैसा लोकतंत्र है- जिसमें लाखों की संख्या में विलखते चीखते जन समूह को छोड़ सत्ताएँ हत्यारे के साथ समझौते की राशि गिनती हैं। चोरी-चोरी कानून को ठेंगा दिखाती हैं। अपराधी को राजकीय विमान से अमरीका भाग जाने की व्यवस्था करती हैं। सत्ता के दोनों रूप-छिप-छिप कर साजिश रचना और हत्यारे का बचाव करना तथा प्रकट रूप में आँसुओं की झड़ी दिखाना, दिखते हैं। सहानुभूति के शब्दों की बरसात हो रही है और प्रत्यक्ष व्यवहार में समुचित समाधान जैसा कहीं कुछ नहीं। राहत के नाम पर धोखा। दरअसल हत्या या मौत के बदले सरकारें मुआवजे के नाटक दाता की तरह करने की अभ्यासी हो चली हैं। स्थिति का मनोवैज्ञानिक किन्तु खतरनाक पहलू यह है कि जिस जन-क्षेत्र में उन दिनों कुहराम मचा था उसी से तत्काल होने वाले चुनाव में सत्तादल का उम्मीदवार जीत गया था। यह कैसे हुआ? जनता ने अपराधियों को ही क्यों पसन्द किया। वादों की घोषणाओं और मुआवजे के लेपन का असर एक ओर तथा जनता के सच्चे हमदर्द प्रतिपक्ष पर जनता का अविश्वास दूसरी ओर, दोनों स्थितियाँ जनतंत्र की हैं। न्यायिक फैसले के बाद सरकारें क्षतिपूर्ति में लग जाती हैं। दोषियों को छिपाने-बचाने का खेल उसी में शामिल है। आज के वातावरण को देखते हुए भविष्य में साजिश का नया प्रारूप क्या शक्ल ग्रहण करेगा, जनसंघर्ष की धार कुंठित करने में सत्ताएँ कितनी सफल होंगी, यही देखना शेष है। इसी के साथ देखना यह भी है कि विपक्ष का जनोन्मुख संघर्ष कितना निर्णायक होता है? अपराधियों को दण्ड दिलाने, कचरे को जलवाने, स्वास्थ्य सुविधाओं को जनता के अनुकूल बनवाने, प्रभावित समूची जनता को उचित मुआवजा दिलाने के लिए संघर्ष को कितना व्यापक और निर्णायक बनाया जा सकेगा। भोपाल जैसी साजिश और कहीं न हो-इसके लिए क्या कानून बनाए जाते हैं? विधायिका-न्यायपालिका क्या सबक लेती है? आगे यह भी फिर से पहचाना जायेगा।






तीन


इक्कीसवीं सदी का पहला दशक समाप्ति पर है। प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना सन् 1936 में हुई थी। अत: इस वर्ष संगठन की 75वीं वर्षगॉठ मनायी जायेगी। ज़ाहिर है अबकी परिस्थितियाँ बदली हुई हैं। प्रगतिशील लेखक संघ से ही निकलकर जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच बन गए हैं। परिस्थितियाँ कहती हैं कि विरासत का मूल्यांकन साथ-साथ मिलकर करना होगा। विरासत के ही वाहक-शमशेर बहादुर सिंह, (13 जनवरी), फैज अहमद (13 फरवरी), केदारनाथ अग्रवाल (1 अपै्रल), नागार्जुन (25-26 जून) तथा असरारुल हक 'मज़ाज’ (19 अक्टूबर) की शताब्दी है। महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की 150वीं जयन्ती शुरू हो चुकी है। तेलगू कवि श्री-श्री का भी यह शताब्दी वर्ष है। तेलगू लेखक विभिन्न तरीकों से इनकी शताब्दी मना रहे हैं। सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय’ प्रगतिशील लेखक संघ की बिरादरी में सीधे नहीं आते तथापि उनकी जीवन यात्रा एवं रचना यात्रा का प्रारंभिक क्षितिज प्रगतिशील स्रोतों से जुड़ा रहा है। आरंभ में वे हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के चन्द्रशेखर, सुखदेव, भगवती चरण वर्मा जैसे क्रांतिकारियों के साथ थे। वर्षों किसान मोर्चे पर कम्युनिस्ट नेताओं के साथ काम किया। दिल्ली में आयोजित लेखकों के फासिज्म विरोधी अधिवेशन में संयोजक की भूमिका अदा की। बाद में भी साम्प्रदायिक शक्तियों से उनका मेल नहीं हुआ। वे अपनी तरह के अमूर्त लोकतंत्र के अन्वेषी थे। उपेन्द्रनाथ अश्क की शताब्दी का यही वर्ष है।


हिन्दुस्तान की आज़ादी की लड़ाई उस समय चरम पर थी-जब दूसरा विश्वयुद्ध अपने क्रूरतम रूप में मौज़ूद था। यह युद्ध लोकतंत्र बनाम फासीवाद के बीच लड़ा जा रहा था। अन्तत: लोकतंत्र की विजय हुई और हिन्दुस्तान की आज़ादी का मार्ग प्रशस्त हुआ। आज फासिज्म और लोकतंत्र की लड़ाई फिर नए रूप में हाजि़र है। अत: अभी की स्थिति में लोकतंत्र की विजय और फासिज्म के पराजय की 65वीं वर्षगाँठ को याद करते हुए गंभीरता से बदले संदर्भों को पहचानने की ज़रूरत है। इस दृष्टि से सन् 2010-11 एवं 2011-12 को तमाम स्मृतियों से जोड़ते हुए हम सब संस्कृतिकर्मी सामाजिक-परिवर्तनों के लिए संघर्षरत अन्य संगठनों-संस्थाओं के साथ मिलकर ऐतिहासिक बना सकते हैं। प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा जैसे संगठनों तथा अन्य धर्म निरपेक्ष संस्थाओं-व्यक्ति-समूहों की जिम्मेदारी है कि वे इन संदर्भों को एक सकारात्मक के रूप में देखें। मानें कि बदली वेशभूषा में सम्प्रदायवाद-साम्राज्यवाद लोकतंत्र का अपहरण करने को आमादा है। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में जो प्रगतिशील शक्तियों की विजय का सिलसिला चला था वह ठहरा हुआ है। उसके सामने भी पुरावलोकन की चुनौती है। ऐसी परिस्थितियों में सांस्कृतिक आन्दोलनों की रूपरेखा वही नहीं रह सकती जो इसके पहले चरण में थी। विगत 75 वर्षों के इतिहास ने दुनिया को जिस क्रूरतामय यथार्थ के समक्ष लाकर खड़ा कर दिया है, संघर्ष का जो नया मैदान मौज़ूद है उसे पहचानना और लडऩा है। इस प्रयास में भीतरघातियों के कुचक्र से बचना है। धैर्य नहीं खोना है। लड़ाई विकलप से होती है, निहत्थी नहीं।


आप जानते हैं, कि सांस्कृतिक परिदृश्य में आज तरह-तरह की परस्पर-विरोधी शक्तियाँ काम कर रही हैं। अधिकाधिक प्रचार-प्रसार करने वाले मीडिया पर पूँजीवादी शक्तियों और सत्ताओं का कब्जा है। उसका सहयात्री क्षेत्र अमर्यादित महत्वाकांक्षी उच्च वर्ग-मध्य वर्ग है। जनता की चित्तवृत्तियों-सांस्कृतिक परम्पराओं से उनका लेना-देना नहीं है। लेेना-देना है तो यह कि जनता की सांस्कृतिक रुचि वही हो जाए जो मीडिया परोसे। जनता सुन्दरियों की प्रतियोगिता देखे, राखी सावंत के स्वयम्बर में दिलचस्पी ले और हत्या-बलात्कार को जीवन-क्रीड़ा माने, ऐसे में हमारा दायित्व है कि समारोहों को उत्सव की जगह शताब्दी-नायकों के सामाजिक-जीवन संघर्ष को ध्यान में रखकर सांस्कृतिक आन्दोलन की रूपरेखा रचें, बतायें कि उन लेखकों की महानता के पीछे स्वत: स्फूर्त प्रतिभा ही नहीं, जन-प्रतिवद्धता और निर्वैयक्तिक जीवन-प्रणाली कारक रही है। उन्होंने स्थिति-रक्षा के संघर्ष को अपनी सीमा नहीं बनाया। वर्गों की खोल को तोड़ा। साहित्य के लिए साहित्य के उपासक नहीं थे। एक महान मानवीय उद्देश्य को सामने रखकर आजीवन जूझते रहे। कोशिश करनी है कि इनकी रचनाएँ बार-बार पढ़ी जायें, पुस्तक प्रेमी और काव्य रुचि वाले व्यक्तियों के सहयोग से इन पर केन्द्रित आलेख -वक्तव्य तैयार हों, विचार-मंथन चले, पुस्तिकाएँ छापकर वितरित की जायें, जगह-जगह सार्थक संवाद बने। युवा रचनाकारों की भागीदारी से यह प्रयास अर्थवान सिद्ध होगा। प्राय: बाजार में इनकी रचनाओं के चयन सस्तीदरों पर उपलब्ध हैं। यदि एक साथ सामूहिक क्रय की व्यवस्था की जाए-तो अधिकांश पाठकों को पाठ-सामग्री मिल सकती है। एन.सी.ई.आर.टी. और साहित्य अकादमी जैसी संस्थाओं ने अधिकांश महत्वपूर्ण लेखकों पर डाक्यूमेन्टरीज तैयार करायी हैं। मूल्य अधिक नहीं है। इन्हें क्रय कर कार्यक्रमों के दौरान दिखाया जा सकता है। जिन कृतिकारों की आवाज की सी.डी. उपलबध हों- उसे हासिल कर सुनने-सुनाने की व्यवस्था हो सकती है। आसपास के साथी पोस्टर तैयार करें और प्रदर्शित करें। रंगकर्मी कविताओं के नाट्य मंचन की व्यवस्था करें। इन्टरनेट और ब्लॉग का उपयोग करने वाले साथियों से सहयोग लिया जा सकता है। कई जगह मित्र-समूहों ने इन रचनाकारों की रचनाओं को संगीतबद्ध किया है। $फैज़ तो पहले से ही संगीत की दुनिया में प्रिय शायर हैं। इन सब माध्यमों का उपयोग सांस्कृतिक आन्दोलन को प्रभावी, सार्थक और स्वाभाविक बनायेगा। याद रहे सांस्कृतिक आन्दोलनों के लिए मेले-ठेले और अन्य मनोरंजन के सार्वजनिक केन्द्र महत्वपूर्ण स्थान होते हैं। चन्दे से काम करने वाले यदि अहं के शिकार न हों तो पैसे की कमी नहीं होती। मदन मोहन और मालवीय ने चन्दा मांगकर बनारस वि.वि. बनाया था। लक्ष्य यह कि इन रचनाकारों के साहित्य-प्रचार से बाजारू साहित्य पर हमला बोला जा सकता है। यही वैकल्पिक सांस्कृतिक जवाब है- उपभोक्तावादी संस्कृति को।


अभी 24-25 जून को प्रगतिशील लेखक संघ दरभंगा इकाई की पहल पर दरभंगा और नागार्जुन के गाँव-तरौनी में 'नागार्जुन शताब्दी समारोह’ की शुरूआत हुई। बिहार के विभिन्न क्षेत्रों से आए लोगों के अलावा प्रदेश के बाहर से विश्वनाथ त्रिपाठी, कमला प्रसाद, खगेन्द्र ठाकुर, गीतेश शर्मा, चौथीराम यादव, वेदप्रकाश, अरुण कुमार आदि आमंत्रित थे। ब्रजकुमार पाण्डेय, राजेन्द्र राजन के नेतृत्व में रामकुमार झा के संयोजन में बनी तैयारी समिति ने इस आयोजन को जन-उत्सव में बदल दिया। इप्टा के साथियों ने कविताओं की नाट्य प्रस्तुति की। देर रात तक कवि सम्मेलन चला। बाबा के पुत्र-शोभाकान्त और श्यामाकान्त ने अपने पुस्तैनी घर में भोजन कराया। वह डीह देखी-जहाँ रतिनाथ की चाची रहती थीं। बाबा के पुरजन-परिजनों की आँखों में जो नमी और स्नेह था, वह स्मृति योग्य है। उत्सव में आगे की गतिविधियों के संकल्प लिए गए। तरौनी को लेखकों के तीर्थ बनाने का उत्साह देखा। उल्लेखनीय है कि अगले दिन जसम ने भी दरभंगा और तरौनी में नागार्जुन शताब्दी समारोह का आयोजन किया। समाचार पत्रों के सहयोगी रवैये के कारण क्षेत्र दो दिन नागार्जुनमय बन गया था। यहाँ यह बताना उचित होगा कि केदारनाथ अग्रवाल की निवास भूमि बॉदा में भी प्रलेस द्वारा एक अपै्रल को उनकी स्मृति में शताब्दी समारोह की शुरुआत की जा चुकी है। इसे व्यवस्थित रूप से आगे बढ़ाने के लिए एक अलग से राष्ट्रीय समिति भी गठित की गई है, अशोक त्रिपाठी इसका संयोजन कर रहे हैं। हम इसे सहयोगी प्रयास मान सकते हैं। फैज अहमद फैज पर केन्द्रित राष्ट्रीय समिति तो बनी ही है, अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप भी तैयार किया जा रहा है। इंग्लैण्ड और कनाडा में कार्यक्रम शुरू हो गए हैं। इन देशों में प्रगतिशील लेखक संघ की 75वीं वर्षगॉठ भी मनायी जा रही है। विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर को सारी दुनिया तो याद करेगी ही भारत, बंगलादेश और पाकिस्तान में संयुक्त आयोजनों की तैयारी चल रही है।‘


प्रगतिशील लेखक संघ ने अपनी सभी राज्य इकाइयों से संदर्भित कार्यक्रमों की अपने-अपने स्तर पर रूपरेखा बनाने के लिए निवेदन किया है। देशभर में संगठन के साथियों एवं सहयोगियों द्वारा प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं से कहा जा रहा है कि वे आगामी दिनों में सुविधा के अनुरूप अलग-अलग विशेषांक प्रकाशित करें। जैसे राजस्थान प्रलेस के अध्यक्ष हेतु भारद्वाज ने अक्सर का केदारनाथ अग्रवाल पर विशेषांक निकालने का संकल्प लिया है। उत्तर प्रदेश प्रलेस के अध्यक्ष जयप्रकाश धूमकेतु भी 'अभिनव कदम’ का किसी एक पर विशेषांक निकालेंगे। इसी तरह दिल्ली प्रलेस से जुड़े चारुमिग 'अनभै सॉचा’ का भी। लेखक मित्रों से अनुरोध है कि दायित्व की तरह समाचार पत्रों में आलेख लिखें। स्कूल-कॉलेजों को कार्यक्रमों के लिए उत्प्रेरित करें। समानधर्मी संस्थाओं को साथ लें। जिनके पास कथित रचनाकारों के पत्र या अप्रकाशित सामग्री हो-उसे सहेजें, पत्रिकाओं में भेजें और संस्मरण लिखें, संस्मरणों का संग्रह बहुत महत्वपूर्ण हो सकता है।


अशोक वाजपेयी की ओर से अज्ञेय और शमशेर के शताब्दी समारोहों की कल्पनाशील पहल की गई है। जारी किए गए फोल्डर में प्रस्तावित गतिविधियों का ब्यौरा दिया गया है। निश्चय ही यह कदम स्वागत योग्य है। लोग पूछते हैं कि वाजपेयीजी ने शेष लोगों को क्यों छोड़ दिया। मैं कहता हूँ कि वाजपेयीजी की सूची में जो लेखक हैं, प्रकाशकों की मदद से उन कवियों पर अनेक पुस्तकें प्रकाशित होंगी, जिनका लाभ व्यापक पाठक समाज को मिलेगा, उसके महत्व को कौन अस्वीकार कर सकता है। वे लेखक-कवि वाजपेयी जी को प्रिय नहीं हो सकते-जिनकी रचनाशीलता में सीधे वामपंथी विचारों की गूंज है और सामाजिक संघर्ष का रिश्ता बनता है- वाजपेयी जी के नेतृत्व में की गई पहल से अनेक संस्थाएँ अज्ञेय-शमशेर पर कार्यक्रम करेंगी तथा पुस्तकों का प्रकाशन होगा। इसे पूरक प्रयत्न माना जाना चाहिए। उनकी प्रस्तावित रूपरेखा को देखने से इसकी विशेषताएँ समझी जा सकती हैं। हम जनधर्मी संगठनों की भूमिका इससे भिन्न तो होगी ही। हमें गाँव-गाँव कस्बे-कस्बे तक इस अभियान को ले जाना है और जनता को संबोधित करना है। आपसी सहयोग से एक बृहद्तर मंच की तरह काम करना है। जलेस-जसम के साथी जहाँ-जहाँ मिलना चाहेंगे, वहाँ हम विशेष साझा मंच बना सकते हैं। समय का यही तकाज़ा है।


लेखक-समाज के बीच घटती विश्वसनीयता के लिए प्राय: चिन्ता की जाती है। आइए, पीछे लौटकर इस पर विचार करें...






चार


ग्राम समाज के साक्षरता के अभाव में अधिकांश जीवन व्यापार आपसी आदान-प्रदान, विनिमय, और 'वचनबद्धता’ पर टिके थे। किसी को वचन देने का अर्थ- निभ्र्रान्त प्रतिबद्धता। गरीब से गरीब हलवाहे ने मालिक से कर्ज लिया और काम करने लगा। कहां की लिखा पढ़ी। जीवन खप जायेगा-पर 'लेना’ अस्वीकार नहीं करेगा। उसके संस्कारों में झूठ बोलना पाप था। प्राय: 'वचन देने-लेने की प्रतिज्ञाएँ आम जीवन में चौतरफा सुनाई पड़तीं। व्यवस्था शोषक थी-पर 'वाणी’ की पवित्रता अचूक थी। झूठ बोलने वाले को पंचायतें ऐसा दण्ड देतीं कि अपराधी का उबरना कठिन होता। तुलसी की पंक्ति 'रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाहिं वरु वचन न जाई’ इसी लोक परम्परा की देन है। आधुनिक युग, जो धीरे-धीरे लोकयुग के वजाय पूंजीवादी-महाजनी युग होता गया है-वाणी की पवित्र विश्वसनीयता पर प्रहार किया है। समूचा जीवन-व्यवहार लिखा-पढ़ी पर निर्भर है। वचन-जीवी समाज आमतौर पर लिखा-पढ़ी की ठगी का शिकार है। इस परिवर्तन ने समाज को अनैतिक बनाया है। किसी का 'करना’ नहीं देखा जाता 'लिखना’ या 'लिखकर देना’ या 'लिखित प्रतिज्ञा’ महत्वपूर्ण है। कानून इसी की वकालत पर जीता है। हत्यारा इसीलिए बचता है कि उसके विरुद्ध लिखित सबूत नहीं है। चाक्षुष प्रमाण नहीं हैं? भला कोई ऐसा मूर्ख होगा जो लोगों को दिखा-दिखा कर या लिखा-पढ़ी करके हत्या करे। इस व्यवस्था में अपराधी की एक ही ज़रूरत होती है कि हत्या के पीछे कोई गवाह न छोड़े। कालाधन इसी की छाया में छिपता है। लेखकों-कलाकारों का समाज इससे कैसे अछूता रहे। परस्पर रिश्तों, रचनात्मक मूल्यांकनों और सामाजिक संघर्ष के माध्यमों में लिखित की ही गणना है। उन्हें छूट मिल गई है कि मौखिक रूप से चाहे जितना झूठ बोलें, मुँह देखी बातें करें, चापलूसी करें, रोज-रोज बयान बदलें, निन्दा-स्तुति का अभ्यास करें लाभ-लोभ में जियें, कूटनीतिक चरित्र विकसित करें, इन बातों की उपस्थिति दर्ज नहीं की जाती। सहजता-सरलता मूर्खता की निशानी है। सफलता सार्थकता पर हावी है। चल पड़ा है कि लेखन कर्म को जीवन-व्यवहार से जॉचने की जरूरत नहीं है। लेखक की कोई सामाजिक भूमिका नहीं होती। इसीलिए कलमी क्रांतिकारियों की फौज़ खड़ी हो गई है। ऐसे लेखक क्रांतिकारी लेखन से बाजार पाट रहे हैं।


अक्सर नकली क्रांतिकारी और सबको छोड़ लेखक संगठनों पर हमला करते हैं। हमला करने के लिए उनके पास उन संगठनों के समूचे क्रियाकलाप की जानकारी नहीं होती। उनहोंने कभी यह भी नहीं जाना कि संगठनों की भूमिका कहाँ-कहाँ है? वे व्यापक रूप से अभिनंदित पूर्वज लेखकों जैसे प्रेमचन्द या मुक्तिबोध के कुछ उद्धरण लेते हैं और संदर्भों से काटकर मनमानी व्याख्या करके जो अर्थ निकलते हैं, उसी को आज के संगठनों पर चिपका कर नाकारा सिद्ध कर देते हैं। नामवर सिंह आदि जैसे कुछ प्रतिष्ठित लेखकों को निशाना बनाते हैं। उनके किसी वक्तव्य में से कुछ पंक्तियाँ निकाल लेंगे, नुक्ताचीनी करेंगे और अच्छा-सा-क्रांतिकारी जुमला फेंक देंगे। जिसका अपना राजनीतिक-कूटनीतिक व्यापार है। आमतौर पर आजकल सनसनी की खबरें अधिक ध्यान आकर्षित करती हैं। पानी के बुलबुले की तरह आरोप उछाला और समस्याओं के सागर में डूब गया। कल का बुलबला आज पुराना हो गया। आरोप खोजी लेखकों की एक ज़मात-हर शहर में है। ईर्षा-द्वेष का रसायन आरोपों की अन्तर्वस्तु में घुला-मिला प्रथम दृष्टि में लुभावना लगता है। छद्म नामों से लिखे गए लेखकों के असली नाम नहीं छिपते। ऐसे समूह खुद को वामपंथी कहकर सबसे ज़्यादा क्षति वामपंथ को ही पहुंचाते हैं। उन्हें न तो संगठनों में काम करने का अनुभव होता और न कार्यकर्ता की हैसियत से जीने का सामूहिक भावबोध होता। गुटबन्दी में जीना सामूहिक भावबोध नहीं कहा जाता। दरअसल हमले का अधिकारी वही होता है-जो स्वयं उस रास्ते से गुज़रा हो। आरोपों की परीक्षा 'लिखने से नहीं’ 'करने में’ होती है। उसी में ईमान-धरम की पोल खुलती है। संगठनों का काम 'लिखने’ के अलावा बहुत-बहुत 'करने’ का होता है। जितना करो, उससे कम लिखो। यह उत्सवों-समारोहों-अधिवेशनों में ही नहीं दिखता, दिनचर्या में शामिल रहा है। संगठन वैचारिक-सांस्कृतिक तैयारी और संघर्ष की पाठशाला होते हैं। संगठनों के कार्यकर्ता क्या-क्या करते हैं उनकी सामूहिकता का क्या प्रारूप है, समस्याओं की कैसी पहचान है, उनके विमर्श के सूत्र क्या हैं, पत्र-पत्रिकाएँ कैसी हैं- बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ संगठनों के कर्म सूत्र छिपे होते हैं। उनके कृत्य के परिणाम जितने 'लिखने’ में मुखरित होते हैं, उससे ज़्यादा सत्संग-जन्य व्यक्तित्वांतरणों और पूरे माहौल में लक्षित होते हैं। बहुत से वरिष्ठ लेखकों को जानकारी है कि म.प्र. में बहुत दिनों तक 15-15 दिवसीय रचना शिविर कस्बों से बाहर आयोजित होते थे। 60-70 तक युवा लेखक उसमें शामिल होते। कहा जाता था-कि जितने युवा लेखक इस प्रदेश से राष्ट्रीय स्तर पर उभरे, वे शिविरों से आए थे। आज भी इस प्रदेश तथा अन्य प्रदेशों में शिविर होते हैं पर दो-दो दिनों के। ये शिविर एकाग्रतापूर्वक कोलाहल से दूर किए जाते हैं। ये योजना के अंग हैं। इनके परिणाम आरोपियों को नहीं दिखेंगे। जहाँ तक प्रेमचन्द जैसे महान लेखकों की शिक्षा-नसीहतों का सवाल है सभी लेखक उन्हें मानते हैं पर जान लें कि उन्होंने संगठन की नींव ही रखी थी उसमें उतना काम नहीं किया। मुक्तिबोध प्रगतिशील लेखक संघ में थे-पर बहुत अधिक एक्टिविस्ट् नहीं थे। उनके मित्रों ने बताया कि वे व्यक्तिगत जीवन में उतने साहसी भी नहीं थे। लेखन में जितने साहसी हैं, जीवन में उतने ही डरे हुए संशयात्मा थे। किसी भी आदमी को जासूस समझ बैठते थे। उन्होंने जो भी कहा है उसमें पवित्र आदर्शों की अनुगूंज ही मिलेगी। कौन नहीं जानता कि संगठनों के कार्यकर्ताओं को प्रत्यक्ष रूप से साहसी होने की ज़रूरत होती है। कभी हड़ताल, जुलूस, धरने की भी ज़रूरत भी पड़ सकती है। जेल जाना पड़ सकता है। लिखने की धार का सम्बन्ध इसी साहसिकता से है। करनी के ब$गैर लेखन में दिखती क्रांति का कोई अर्थ नहीं होता। जैसे कला के लिए कला की निन्दा की जाती है-इसे विलासी-चोंचले कहा जाता है, उसी तरह विरोध के लिए विरोध को केवल विध्वंस समझना चाहिए। नागार्जुन की ये पंक्तियाँ इसी अवसर पर याद आयेंगी-


कि भला यह भी कोई


काम हुआ, कि अनाप-शनाप


खयालों की महीन लफ्फाजी ही


करता चले कोई-


यह भी कोई काम हुआ भला!


- कमला प्रसाद




अष्टभुजा शुक्ल


सतयुग, कविता और एक रुपया


जैसे कि एक रूपये माने चूतियापा यानि कि कुछ भी नहीं

वैसे ही एक रूपये माने बल्ले बल्ले यानि कि बहुत कुछ

और कभी कभी सब कुछ

निन्यानबे पैसे सिर्फ बाटा वालों के लिए अब भी एक कीमत है

हकीकत यह है कि एक रूपया

एक कौर या सल्फॉस की गोली से भी कम कीमत का है

एक रूपये का एक पहलू एक रूपये से भी कम है

तो दूसरा पहलू अशोकस्तम्भ यानि कि समूचा भारत

और भारतीयता की कीमत बाटा के तलवों से भी नीचे है

उसके नीचे नंगी इच्छाएँ कफन के लिए सिसक रही हैं

आधा भारत एक रूपये से शुरू होकर सिर्फ धकधकाता है

और भिवानी की तरह सिकुड़कर एक रूपये तक सिमट जाता है

गर्मियों में इतनी ठंडी किसी कोने में रख देने की चीज है

जैसे बेइमानियाँ बहुत जतन से रखी जाती हैं

वहीं पर अब एक रूपये कबूल करने में गोल्लक मुँह बिचकाता है

और बिजली नहीं रहती तो जनरेटर से फोटो कॉपी करने वाले

एक का तीन वसूलते हैं

एक रूपये तेल का दाम बढऩे से दस मिनट लेट से निकलते हैं

लोग घर से कि इतनी तेज उडऩे लगेंगी सवारी गाडिय़ाँ

कि दुर्घटनाओं की खबरों से पटे मिलेंगे सुबह के अखबार

न एक रूपये में अगरबत्ती न नहाने धोने का सर्फ साबुन

न आत्मा की मैल छुड़ाने वाला कोई अध्यात्म

उखड़ी हुई कैची का रिपिट लगाने में भी एक रूपया नाकाफी

एक पन्ने पर एक रूपया एक रूपया लिखकर भर डालने के लिए भी

कोई एक रूपये का मेहनताना लेने के लिए तैयार नहीं होगा

बल्कि मुफ्त में वह काम करके अपमानित कर देगा

एक रूपये को जैसे इसे केन्द्र में रखकर लिखी गई

यह कविता नामक चीज जिससे पटा हुआ बाजार

ऐसी कविताएँ यदि मर जाएँ बिना किसी बीमारी के

तो दो घंटे भी ज़्यादा होंगे कुछ आलोचना को रोने के लिए

इससे सिर्फ इतना भर नुकसान होगा कि

विलुप्त हो जाएगी कवियों की नस्ल और तब खाद्यान्न का संकट

कुछ कम झेलना पड़ेगा इस महादेश की शासन व्यवस्था को

ऐसी कविताओं की एक खासियत ये आलोचनाहंता है

दूसरी यह हो सकती है कि किसी प्रकार की उम्मीद की

जुंबिश से भी ये समाज को काफी दूर रखती हैं

जैसे हमारे समय का कवि खुद को काफी दूर रखता है अपने समाज से

आने वाला समय शायद साहित्य के इतिहास को कुछ इस

तरह रेखांकित करेगा कि हमारा समय एक कविता-शून्य समय था

इसीलिए यह कविता के लिए सबसे बेचैन रहने वाले समय के रूप में

जाना जाएगा और विख्यात होगा उतना ही जितना कि

अपने तमाम अवमूल्यन के लिए कुख्यात हो चुकी है एक रूपये की मुद्रा

फिर भी अरबों की संख्या भी नहीं काट सकती एक विषम संख्या को

क्योंकि एक एक, आधारभूत विषम संख्या है

वैसे ही जब मर जाएगी एक रूपये की मुद्रा तो उसकी अन्त्येष्टि में

माचिस की एक तीली भी खर्च नहीं करनी पड़ेगी लेकिन

तबाही मचेगी वह कि रहने वाले देखेंगे तांडव

और मन ही मन मनाएंगे कि हे प्रभू, हे लोकपाल, हे पूँजीपुत्र

कि कीमतें चीजों की या कवियों की

किसी भी विधि से, अनुष्ठान से या किसी अनियम से भी

घट जाती एक रूपये तो वापस आ जाता बल्ले बल्ले

वापस आ जाती हमारी बिकी हुई कस्तूरी, केवड़ा

और जितनी भी महकने वाली चीजें, हमारी दुनिया से गायब हो चुकी हैं

वैसे ज्यादा से ज्यादा सच बोलने के इन दिनों में

झूठ क्या बोला जाय पाप बढ़ाने के लिए

क्योंकि अपराध तो वैसे ही आदतन इतना बढ़ चुका है

कि घटते घटाते कम से कम हाथी जितना बचेगा ही

इसलिए कहना पड़ता है कहकुओं को कि

एक रूपये के मर जाने से दुनिया किसी संकट में नहीं फँसेगी

क्योंकि उसके विकल्प के रूप में अब चलायी जा सकती है

हत्या, बेरोजगारी, बलात्कार और आत्महत्या में से कोई भी एक चीज़

और समाज की जगह थाना, एन.जी.ओ., कैफे साइबर, बार

या कोई राजनीतिक पार्टी इत्यादि

लेकिन उखड़ी उखड़ी बातों के झुंड से

अगर निकल आए काम की एक कोई पिद्दी-सी बात भी

तो मानना पड़ेगा कि कविता की धुकधुकी अभी चल रही है

और अगर एक रूपये कीमतें घट जाएँ किसी भी अर्थशास्त्र से

तो फिर वापस आ जाएगा सतयुग

वानर सबके कपड़े प्रेस करके आलमारियों में रख देंगे

शेर आएगा और कविता लिखते कवियों को बिना डिस्टर्ब किए

साष्टांग करके गुफा में वापस लौट जाएगा

सफाईकर्मियों को शिमला टूर पर भेजकर

राजनीति के कार्यकर्ता गलियों में झाडू लगाएँगे

पुलिस की गाड़ियां प्रेमियों को समुद्रतट पर छोड़ आएँगी

पागुर करते पशु धरती पर छोटे छोटे बताशे छानेंगे

बादल कहेंगे हे फसलों तुम्हें कितने पानी की दरकार है

और वह साला सतयुग राम नाम का जाप करने

या रामराज्य पर कविता लिखने वाले महा महाकवियों की वाणी से नहीं

बल्कि चीज़ों की कीमतें एक रूपये घट जाने से आयेगा...



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“..जब तक भूखा इंसान रहेगा, धरती पर तूफान रहेगा..” नियाज़ हैदर की एक नज़्म की ये दो पंक्तियाँ पिछले कई दशकों से जनआन्दोलनों का प्रिय नारा बनी हुई हैं। वे जितने बीहड़ किस्म के कम्युनिस्ट थे उतने ही प्रकाण्ड विद्वान। सुख सुविधा और अवसरों को ठोकर मारने वाले। यायावर, अन्वेषी तथा ज़बरदस्त सृजनात्मक समताओं से सम्पन्न। शायर, लेखक, रंगकर्मी की हैसियत अपनी जगह, कट्टर किस्म के स्वाभिमानी भी थे किसी मामले में नीतिगत असहमति के कारण देश के सबसे मजबूत प्रधानमंत्री से हाथ मिलाने से इंकार कर दिया था।








बंजारा


जावेद सिद्दीकी






अगर सूट पहने हुए होते और ज़रा थोड़े से गोरे होते तो कोई भी कसम खा लेता कि कार्ल मार्क्स जि़न्दा हो गये हैं। वही झाड़-झन्कार दाढ़ी, वही बड़ा सा सिर, आगे से उड़े बाल और सिर के पिछले हिस्से में खिचड़ी बालों की मोटी झालर जो कानों के ऊपर से लटक कर दाढ़ी में शामिल हो गयी थी। बदन भी कुछ वैसा ही था, यानी छोटे भी थे और मोटे भी। खुदा जाने नियाज़ हैदर ने अपना हुलिया खुद बनाया था या बन गया था। सच्चाई जो भी हो वह देखने में ही निहायत मार्क्सिस्ट लगते थे। मैंने पहली बार नियाज़ हैदर को मुज़फ्फर अली के घर पर देखा था। मैं और शमा ज़ैदी, मुज़फ्फर के जुहू वाले बंगले के खूबसूरत लॉन में बैठे थे जिसमें गद्दे और गाव तकिये लगे थे। गद्दों पर चाँदनियाँ बिछी थीं और रंगीन शीशों वाले दरवाज़ों पर बारीक काम की चिकें पड़ी हुई थीं। मुज़फ्फर सदैव इस बात की कोशिश करते हैं कि उनके घर में दाखिल होने वाला हर शख्स फौरन समझ जाये कि मुज़फ्फर अपना लखनऊ हर जगह अपने साथ लेकर चलते हैं। हमारी ये मुलाकातें लगभग प्रति दिन होती थीं क्योंकि उमराव जान की शूटिंग सिर पर थी और स्क्रिप्ट के नोंक पलक ठीक किए जा रहे थे। अचानक सुभाषिनी ने दरवाजे में से मुंह निकाला और ऐलान किया 'बाबा आ रहे हैं’ बाबा का नाम सुनते ही मुज़फ्फर संभल कर ठीक होकर बैठ गये, आँखों में एक शरारत भरी सी चमक आयी और होटों पर मुस्कुराहट दौड़ गयी। शमा ने सिर टेढ़ा करके दरवाज़े की तरफ देखा और अपना कलम (पेन) बन्द करके थैले में डाल दिया।


बड़ी अहम और गरमा गरम बहस चल रही थी, इसमें इस तरह ब्रेक लगना मुझे अच्छा नहीं लगा। गुस्से में जिस तरह आधा लेटा था उसी तरह लेटा रहा। आये जिसको भी आना है, मुझे क्या?


चिक के पीछे से पहले एक निहायत मोटा सा डण्डा आया और फिर बाबा। खादी का ढीला-ढाला घुटनों तक लम्बा कुर्ता जो पहले कभी लाल रहा होगा मगर धुलते-धुलते बादामी हो गया था। बड़े पायचों का मैला सा पाजामा, कन्धे पर खादी का झोला और मामूली सी दो पट्टी वाली चप्पल। हुलिया वही था जो ऊपर बयान कर चुका हूँ। बाबा ने छोटी-छोटी चमकती हुई आँखों से सबको देखा, गले से हँसी जैसी एक आवाज़ निकाली और बोले 'आहा शमा बीबी भी हैं।‘


शमा ने आदाब किया और कहा 'ये जावेद हैं।‘


मुज़फ्फर ने डण्डा लेकर कोने में रखा और जहाँ खुद बैठते थे वहाँ बैठने का इशारा करते हुए अदब से कहा 'बैठिये बाबा।‘


बाबा ने एक निगाह, जो बज़ाहिर निगाह से कम थी मेरी तरफ डाली, हल्के से सिर हिलाया और गाव तकिये से इस तरह लग कर बैठ गये जैसे मजलिस पढऩे वाले हों। सुभाषिनी अन्दर आ गयीं: 'क्या लेंगे बाबा?’


'भई हमारी माचिस खत्म हो गयी है।‘


'अरे माचिस लाओ!’ मुज़फ्फर ने आवाज़ लगायी। माचिस आई, बाबा ने कुर्ते की जेब से बीड़ी का बन्डल निकाला एक बीड़ी चुनी और माचिस जलाकर पहले बीड़ी को सेंका और फिर सुलगाकर एक लम्बा कश लगाया। फिर बीड़ी को उंगलियों में इस तरह पकड़ लिया जैसे बिस्मिल्लाह खाँ शहनाई पकड़ते हैं, और फरमाया 'कहाँ तक पहुँची कहानी?’ 'स्क्रिप्ट तो पूरी हो गयी है, शहरयार का इन्तेज़ार है, आ जायें तो गाने भी फाइनल हो जायें।‘


'जावेद ने डायलाग बहुत अच्छे लिखे हैं बाबा।‘ मुज़फ्फर ने कहा।


'अच्छा आपने पहले क्या लिखा है मियाँ?’


'शतरंज के खिलाड़ी के डायलाग भी हम दोनों ने लिखे थे।‘ शमा ने बताया।


'बेहूदा फिल्म थी, प्रेमचन्द की कहानी का सत्तिया नास कर के रख दिया जाहिल! हाँ डायलाग ठीक-ठाक थे कम से कम ज़बान की कोई गलती नहीं थी।‘


गुस्से में मेरे होठों तक एक शब्द आया 'ईडियट मगर मुँह से निकला: 'शुक्रिया’


नियाज़ हैदर इधर-इधर की बातें करते रहे और मैं उन्हें घूरता रहा। ये हैं कौन? बातें तो ऐसी कर रहा है जैसे सारा अदब अभी-अभी पीकर आ रहा हो। ढोंगी।


बीच में थोड़ी सी तवज्जो बंट गयी थी, शायद मुज़फ्फर का बेटा शाद आ गया था और बाबा उससे बातें करने लगे थे। मैंने मौका पाकर शमा से पूछा: 'ये कौन हैं शमा?’


'अरे! तुम नहीं जानते, ये नियाज़ बाबा हैं, नियाज़ हैदर’ नियाज हैदर? मैं दिल ही दिल में अपना सिर पकड़ के बैठ गया। मुझे क्या मालूम था कि ऐसे होते हैं नियाज़ हैदर। ये थी बाबा से मेरी पहली मुलाकात।


इसके बाद बाबा से लगातार मुलाकातें होती रहीं। कभी मुज़फ्फर अली के घर पे, कभी शमा के घर पे, कभी कैफी साहब के यहाँ, और कभी पृथ्वी थियेटर पर। और जैसे-जैसे नियाज़ बाबा के साथ मुलाकातें बढ़ीं, मेरी नियाज़ मन्दी भी बढ़ती गई। जैसे-जैसे मैं उनके करीब आता गया या यूँ कहना चाहिए, जैसे-जैसे वह मेरे करीब आते गये मुझ पर राज खुलता गया कि बाबा तो बड़े बा कमाल आदमी हैं। और इस बात पर हैरत और अफसोस भी हुआ कि दुनिया उनके बारे में कितना कम जानती है। बाबा अच्छाइयों और बुराइयों का अजीबो गरीब मजमूआ (संकलन) थे। उनकी बातें सुनकर कभी डर लगता था और कभी अकीदत से सिर झुका लेने को जी चाहता था।


अल्लाह जाने कहाँ तक पढ़ा था, कोई डिग्री विग्री भी थी या नहीं, मगर बहुत कम सब्जेक्ट ऐसे थे जिन पर वह नहीं बोल सकते थे। भाषायें भी बहुत सारी जानते थे। उर्दू, फारसी, अरबी और अंग्रेजी तो जानते ही थे, थोड़ी बहुत संस्कृत, कुछ लैटिन और तेलुगू भी जानते थे। और बोलियों ठोलियों का तो जि़क्र ही क्या, अवधी से लेकर भोजपुरी तक अच्छी तरह समझते थे, बल्कि समझा भी सकते थे। याददाश्त इस $गज़ब की थी कि $खौफ आने लगता था। शायर का नाम लीजिए और कलाम का नमूना हाजि़र है। इ$कबाल उनके पसंदीदा शायर थे। मेरा $ख्याल है उन्हें इकबाल का सारा फारसी और उर्दू कलाम याद था।


बाँग-ए-दरा से ज़र्ब-ए-कलीम तक यूँ मज़े ले लेकर सुनाया करते थे, जैसे अभी रट के आये हों। बाबा के अपने कलाम में भी ल$फ्ज़ों का जो आहंग मिलता था, उनमें इ$कबाल की गूंज सुनाई देती थी। ये कमज़ोरी थी या खूबी, जानबूझ कर ऐसा करते थे या लाशुऊर (अवचेतन) अपना खेल दिखाता था। कुछ कहा नहीं जा सकता। मैं अक्सर उन्हें छेडऩे के लिये इ$कबाल के खिलाफ कुछ कह दिया करता था। एक बार मैंने कहा: 'इकबाल तो शायर-ए-इस्लाम हैं, मेरी समझ में नहीं आता कि आप और सरदार जाफरी जैसे कट्टर माक्र्सवादी उनकी पूजा क्यों करते हैं?’ बाबा गुस्से में लाल-पीले हो गये और पूरे दो घण्टे का एक बड़ा लेक्चर दिया जिसमें ये साबित किया कि इकबाल तरक्की पसन्द शायर थे।


उनकी फारसी का भी यही आलम था। एक दिन मैंने काआनी (फारसी का एक शायर) के कसीदे का जि़क्र किया जो मैंने मुंशी कामिल के कोर्स में पढ़ा था, और जिसका एक ही शेर याद रह गया था:


बगर दूँ तीरहे अब्र बा आमदा बरुश्द अज़ दरिया


जवाहर खेज़ व गौहर बेज़ व गौहर रेज़ व गौहर ज़ा


सुनते ही बाबा की आँखों में चमक आ गयी, सम्भल कर बैठे, एक हाथ से बालों को ठीक किया, दूसरे हाथ से हवा में बीड़ी लहराई और काआनी का करीब सौ शेर का कसीदा फर-फर सुना दिया। यही नहीं बल्कि इस ज़मीन में उर्फी और नज़ीरी ने भी जो कुछ कहा था वह भी सुना दिया। आप सोच सकते हैं कि क्या हालत हुई होगी। कबीर के दोहे, तुलसी की चौपाइयाँ और गालिब के शेर तो बातों के बीच में पके हुये आमों की तरह टपकते ही रहते थे। बाबा के गैर मामूली हाफ्ज़े (स्मरण शक्ति) और अध्ययन का असर उनकी तहरीर में साफ झलकता है, उन्होंने बहुत कम लिखा मगर जो कुछ भी लिखा खूब लिखा।


जब कुदसिया ज़ैदी ने बरतोल बर्तोल्त के नाटक- काकेशियन चाक सर्किल का अनुवाद- 'सफेद कुण्डली’ के नाम से किया तो गीत नियाज़ बाबा से लिखवाये। इस नाटक में उनके लिखे हुये कई गीत: 'सुन मेरा अफसाना रे भाई, 'चार सूरमा, 'चार जरनैल, चले ईरान, और ‘सिपहइया जल्दी आना, एक ज़माने में फिल्मी गानों की तरह मशहूर हो गये थे। बाबा की लेखनी में भी बड़ा दम-खम था। मुज़फ्फर अली का सीरियल जान-ए-आलम और श्याम बेनेगल की फिल्म 'आरोहण’ में भाषा और बयान पर बाबा की पकड़ का अंदाज़ा किया जा सकता है।


बाबा को किस्से कहानियाँ सुनाने का बड़ा शौक था। खास बात ये थी कि सुनी सुनाई नहीं सुनाते थे। अधिकतर किस्से उनके ऊपर गुज़री हुई घटनाओं या सामने होने वाले वाक्यात होते थे। एक बार उन्होंने एक कम उम्र तवायफ की कहानी सुनाई और इस तरह सुनाई थी कि आज तक मुझे याद है और दिल पर उसका असर भी है।


बाबा ने बताया कि हैदराबाद में नाचने गाने और वैश्यावृत्ति करने वालों के बाज़ार का नाम महबूब की मेंहदी है। और यहाँ एक बड़ी मज़ेदार रस्म होती है, जिसे 'दरीचे की सलामी’ कहा जाता है। जब कोई कमसिन तवायफ इस उम्र को पहुंचती है जब जिस्म के हिस्से उभरने लगते हैं, होंठ मुस्कराने लगते हैं और आँखों में एक शरारत भरी चमक आ आती है तो उसे 'दरीचे की सलामी’ के लिये तैयार किया जाता है। कई दिन पहले से जश्न शुरू होता है। साहिबे-ज़ौक और साहिब-ए-नज़र सरपरस्तों को खबर भिजवायी जाती है, दूर-दूर तक निमंत्रण भेजे जाते हैं। करीबी, रिश्तेदार, पड़ोसी और हम पेशा औरतें जमा होना शुरू हो जाती हैं। रतजगे होते हैं, पकवान पकते हैं, मुसलमान वेश्याओं के कोठों पर मजलिसें और मीलाद शरीफ भी होते हैं। जिस लड़की की रस्म होने वाली होती है उसकी नाक में एक बड़ी सी नथ पहनाकर सात दरगाहों पर ले जाया जाता है फिर उसे दुल्हन बनाया जाता है, हालात के मुताबिक आभूषण, कपड़े पहनाये जाते हैं, फूलों के आभूषणों से सजाया जाता है और जब सूरज के जाने और शमाओं के आँखें खोलने का समय होता है तो कमसिन वैश्या की आरती उतारी जाती है, नज़र का टीका लगाया जाता है। और वह उस दरीचे को जो आगे के जीवन में उसे रोज़ी-रोटी और खुशी देने वाला है, झुककर सात सलाम करती है। और उस झरोखे में बैठकर एक नयी रोशनी में उन असंख्य तमाशबीनों को देखती है जिन में से बहुत से वह होते हैं जिनकी आँखों में दिल होते हैं और बहुत से वह भी होते जिनके पास दिल नहीं होते मगर जेब में माल बहुत होता है और फिर नथ उतारने वालों की बोली लगती है।


बाबा ने जिस लड़की की कहानी सुनाई थी उसका (क्लाइमेक्स) ये नहीं था। उन्होंने कहा कि जब उस लड़की को दरीचे पर लाके बिठाया गया तो वह बहुत देर तक चुपचाप बैठी रही। अचानक वह खड़ी हुई, उसने दरीचे की जाली को हाथ लगाकर अपने माथे से छुआ और एक दम से नीचे छलांग लगा दी। इस बाज़ार में पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था, इसलिये चारों तरफ सनसनी फैल गयी। जिसने सुना वह दौड़ा आया ताकि उस पागल लड़की को देख सके जिसने शोहरत और दौलत के शिखर से कूद कर आत्महत्या करने की कोशिश की थी। वह लड़की मरी नहीं, बच गयी। मगर उसकी टांगें टूट गयी थी। बाद में वह लड़की, लंगड़ी खुर्शीद के नाम से मशहूर हुई और अपने समय में 'महबूब की मेंहदी’ की बेहद मशहूर गानेवालियों में उसकी गिनती होती है।


मुझे बाबा का सुनाया हुआ एक और किस्सा याद आ रहा है।


हुआ यूँ कि बाबा दिल्ली में थे। एक दिन उसका फोन आया और उन्होंने बताया कि वह बम्बई आ रहे हैं। उन्होंने अपनी रवानगी (प्रस्थान) का दिन और तारी$ख बताई और तय किया कि दो दिन बाद मुझसे मुला$कात करेंगे। दो दिन गुज़र गये, चार दिन गुज़र गये, ह$फ्ता होने को आया मगर बाबा का कोई पता नहीं था। मैंने इधर-उधर मालूम किया तो बताया गया कि बाबा आये ही नहीं हैं। मैंने दिल्ली फोन किया तो $खबर मिली कि वह वहाँ से चल चुके हैं। अब हम सब ज़रा परेशान हुए हालाँकि परेशानी की कोई बात नहीं थी क्योंकि वह अक्सर ऐसी हरकतें किया करते थे। निकलते थे कहीं जाने के लिये और पहुंच जाते थे कहीं और। मगर डर यह भी था कि वह ट्रेन में अकेले थे। उन्हें सांस की बीमारी थी, और ब्लड प्रेशर की भी। अगर रास्ते में कुछ हो गया तो क्या होगा, मगर सिवाये सब्र करने और परेशान होने के रास्ता भी क्या था। इसलिये चुप-चाप बैठे रहे और दुआएँ करते रहे कि बड़े मियाँ खैरियत से पहुंच जायें।


कोई दस दिन बाद अचानक शमा के घर पर नुमूदार हुए। मैं और शमा तो उन पर बरस ही पड़े, 'ये कोई तरीका है, अगर बम्बई नहीं आना था तो फोन क्यों किया था? और अगर इरादा बदल गया था तो दूसरा फोन करके क्यों नहीं बताया।‘


बाबा पर हमारी डांट डपट का कोई असर नहीं हुआ। वह बड़े प्यार से मुस्कुराये 'अरे छोड़ो यार! एक अच्छी वाली चाय पिलाओ तो एक ऐसा किस्सा सुनाता हूँ कि इस पर फिल्म बन सकती है।‘


बाबा ने सुनाया कि मेरठ के पास ग्राण्ड ट्रक रोड के पास दोनों तरफ आमने-सामने दो गांव हैं। (गांव का नाम तो अब मुझे याद नहीं रहा) मगर नाम एक ही था, एक गांव छोटा कहलाता था दूसरा बड़ा। जो गांव बड़ा था वह हिन्दुओं का था और छोटे गांव में मुसलमानों की आबादी ज़्यादा थी। वहां कोई सवा सौ साल से एक रस्म अदा की जाती है।


हर ब$करीद पर हिन्दुओं के गांव से एक गाय, कुर्बानी के लिए मुस्लिम गांव में भेजी जाती है। ब$करीद के दिन सवेरे-सवेरे हिन्दू गांव में गाय को सजाया संवारा जाता है, उसकी पीठ पर नयी झोल डाली जाती है, गले में हार होते हैं, सींग और दुम पर रंगीन रिबन और गोटे से सजावट की जाती है। उसकी आरती उतारी जाती है और फिर ये गाय बैण्ड बाजे और सैकड़ों गांव वालों के साथ किसी दुल्हन की तरह, मुसलमानों के गांव लाई जाती है। गांव के मुसलमान गाय का हार फूल से स्वागत करते हैं। साथ ही आने वालों को मिठाईयाँ बाँटी जाती हैं। फिर गाय को एक चबूतरे पर खड़ा कर दिया जाता है, जिसके चारों तरफ सारे गांव वाले जमा हो जाते हैं। गांव का कसाई, गाय की गर्दन पर छुरी रखता है और कलमा पढ़ के हटा लेता है। फूलों से लदी फदी गाय और उसके साथ आने वाले, तोहफे और मिठाईयाँ लेकर अपने गांव वापस आ जाते हैं।


बाबा ने मुझे बताया कि 1857 ई. में जब अंग्रेज हिन्दू और मुसलमानों को लड़ाने के लिए गाय की कुर्बानी का मसला छेड़ रहे थे और जगह-जगह हिन्दू-मुस्लिम झगड़े हो रहे थे उस समय इस छोटे से गांव के जमींदार ने कहा कि हम अपनी गाय कुर्बानी के लिए दे सकते हैं मगर अपनी एकता की कुर्बानी नहीं दे सकते। और तब से यह खूबसूरत रस्म हर साल इसी तरह निभायी जाती है। (किसी पाठक को जी.टी. रोड पर बसे हुये इन दो गांवों के बारे में मालूम हो तो मुझे अवश्य सूचना दें, एहसान मन्द रहूंगा) बाबा को ये कहानी किसी ने ट्रेन में सुनाई थी और वह इस रस्म की सच्चाई मालूम करने उस गांव में जा पहुंचे थे।


बाबा स्वभाव के ऐतबार से काफी बोहेमियन थे। उन्होंने जि़न्दगी भर घर बनाने या घर बसाने की कोई कोशिश नहीं की। वह जीवन की तेज़ धारा में एक तिनके की तरह थे, जो स्वयं को लहरों के सहारे छोड़ देता है। और सदैव एक मंजिल की तलाश में मुब्तिला रहता है। $गालिब ने शायद नियाज़ बाबा के लिए ही कहा था।


रौ में है रक्से उम्र कहां देखिये थके


नै हात बाग पर है, न पा है रकाब में


वह अक्सर कहा करते थे 'मैं तो बंजारा हूँ, खाना बदोश।‘


मेरी समझ में आज तक नहीं आया कि बाबा में क्या खास बात थी, जिसकी वजह से जो भी उनसे मिलता था उन्हीं का हो जाता था। बाबा के चाहने वाले हज़ारों थे और भांति-भांति के थे। सज्जाद ज़हीर से लेकर कुदसिया ज़ैदी तक, मुज़फ्फर अली से लेकर श्याम बेनेगल तक, और शशि कपूर से लेकर शमा ज़ैदी तक।


कभी-कभी एक आध झलकी बाबा के व्यक्तित्व में छुपी हुई, मक्नातीस (चुम्बक) की भी दिखाई दे जाती थी।


एक शाम मैं कोई नाटक देखकर पृथ्वी थियेटर से बाहर निकला देखा कि पत्थर की सीढिय़ों पर बाबा बैठे हुए हैं, और हाथों में बीड़ी सुलग रही है। देखते ही खड़े हो गये, बड़े प्यार से गले लगाया और कहने लगे 'अरे यार जावेद! बहुत अच्छा हुआ जो तुम मिल गये मैं तुम्हीं को याद कर रहा था। दुल्हन कहाँ है? (मेरी बीबी फरीदा) मैंने कहा 'वह तो आज नहीं आयी।‘


कहने लगे 'अरे ये तो बड़ा नुकसान हो गया। मैंने थोड़ा परेशान होते हुए पूछा, 'क्यों क्या हो गया?’ मेरे पूछने पर बोले 'भई दुल्हन जो है, वह हमारी खजांची है। जब कभी पैसों की ज़रूरत होती है। उससे ले लेते हैं। तुम्हारे पास तो होंगे नहीं।‘ मैंने कहा थोड़े बहुत हैं आपको कितने चाहिये?’ कहने लगे 'हमें तो एक पैसा भी नहीं चाहिये बस- शराब पीनी है अगर पिला सको तो पिला दो अल्लाह भला करेगा।‘


मैं और बाबा पृथ्वी थियेटर से बाहर निकले, वहीं करीब में एक बार था उसमें घुस गये। बार का बंगाली मालिक लपकता हुआ आया, बाबा की खैर-खैरियत पूछी, फिर दरियाफ्त किया 'क्या पियेंगे?’


बाबा ने बड़ी अदा से किया 'व्हिस्की!’ बंगाली कुछ परेशान हो गया 'व्हिस्की?’


बाबा मुस्कराये और बोले 'आज जावेद मियाँ पिला रहे हैं इसलिये ठर्रा नहीं पियेंगे।‘


बंगाली परेशानी से इधर-उधर देखता रहा फिर धीरे से बोला 'बाबा आज व्हिस्की ठर्रा कुछ नहीं मिल सकता। क्यों नहीं मिल सकता? 'ड्राई डे है बाबा!’ बंगाली ने कहा, बाबा परेशान हो गये, 'अब इस सरकारी कमीनेपन को क्या कहा जाये कि जिस लीडर की याद में ड्राई डे रखा गया है वह बहुत बड़ा आदमी था, उसकी मौत का गम दूर करने के लिये शराब से बढ़कर कोई चीज़ नहीं हो सकती मगर इन गधों को कौन समझाये कि जिन्हें प्यासा मार रहे हैं वह मरने वाले को याद नहीं करेंगे, फरियाद करेंगे।Ó


बंगाली सिर खुजाता हुआ चला गया, मैंने पूछा, 'अब?Ó थोड़ी देर सोचते रहे फिर पूछा, 'क्या बजा है? मैंने कहा: दस बज रहे हैंÓ। कहने लगे: चलो कैफी के घर चलते हैं। वह पी रहा होगा।‘ हम दोनों पैदल चलते हुए जानकी कुटीर पहुंचे और कैफी साहब के दरवाज़े पर लगे हुए जहाँगीरी घण्टे की रस्सी खींची।


घण्टा देर तक बजता रहा मगर कोई गेट खोलने नहीं आया। मैंने कहा बाबा अंदर अंधेरा है लगता है कैफी साहब बाहर गये हैं, बाबा ने उचक कर अंदर झांका, अपने मोटे से डण्डे से लकड़ी के गेट को ठोंका और फरमाया, 'कमरा बंद करके बैठा होगा आज ज़रा सर्दी है ना!’ देर तक घण्टा बजाने के बाद एक नौकर आँखें मलता हुआ नुमूदार हुआ और गेट खोले ब$गैर ही कहने लगा, 'साहब और आपा बाहर गये हुए हैं’, 'कब आयेंगे?’ 'ये तो मालूम नहीं’


बाबा कुछ झुँझला से गये। धीरे-धीरे आगे बढ़े, अचानक आँखों में चमक आयी, कहने लगे, 'आदिल’। विश्वामित्र आदिल का घर सामने ही था मगर उनके बरामदे में भी एक नन्हा सा बल्ब जल रहा था जिससे मालूम होता था कि वह लोग भी नहीं हैं।


बाबा ने सिर हिलाया 'ये भी नहीं है। लगता है कैफी के साथ गया होगा।‘ मैंने घड़ी देखी ग्यारह बजने वाले थे, पृथ्वी की भीड़ भी जा चुकी थी। मैंने बाबा की तरफ देखा अचानक रुके। कहने लगे, 'रिक्शा पकड़ लो, मज़रूह साहब के घर चलते हैं। ज़रा कंजूस ज़रूर हैं मगर इतने कंजूस भी नहीं हैं, कि घर आये मेहमानों को दो पैग न पिला सकें चलो-चलो जल्दी करो।‘


मज़रूह साहब का बंगला जुहू के दक्षिणी किनारे पर लगभग आखिरी बंगला था। लेकिन ज़्यादा दूर नहीं था इसलिये जल्दी से पहुंच गये।


घण्टी बजाई, दरवाज़ा खुला, फिरदौस भाभी ने बड़े तपाक से बाबा का स्वागत किया और ड्राइंग रूम में बिठाया। बाबा के चेहरे की मुस्कुराहट कह रही थी, 'देखा आखिर कामयाबी ने कदम चूम ही लिये।‘


फिरदौस भाभी ने पूछा, 'क्या पियेंगे नियाज़ भाई?’ 'मज़रूह कहाँ है?’ बाबा ने पूछा। 'सुबह से बुखार है, सो गये हैं।‘ बाबा का चेहरा देखने लायक था। वह कभी मुझे देखते थे कभी सामने खड़ी फिरदौस भाभी को। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह दिल की बात ज़बान पर लायें या न लायें। अचानक वह खड़े हो गये, 'आदाब कह देना’ और जवाब का इंतज़ार किये बगैर बाहर निकल आये। तब तक रात के बारह बज रहे थे। और हम दोनों जुहू तारा की सड़क पर उन लुटे हुए मुसाफिरों की तरह चल रहे थे जिस के पास न सिर छिपाने का ठिकाना होता है और न कोई उम्मीद!


बड़ी हिम्मत करके मैंने कहा, 'बाबा मैं निकल जाऊँ? कुर्ला पहुंचना है सान्ताक्रूज़ से आखिरी बस मिल जायेगी।‘


बाबा वहीं बीच सड़क पर रुक गये और गरज कर बोले, 'बिल्कुल नहीं! अब तो जि़द आ गयी है जब तक पी नहीं लेंगे तब तक न आप कहीं जायेंगे और न हम।‘


मैं बोल भी क्या सकता था। एक तो अकीदत ऊपर से यह खौफ कि बड़े मियाँ को अकेला छोड़ दिया तो खुदा जाने कहाँ जायें, क्या करें, इसलिये चुप-चाप चलता रहा। चलते-चलते हम लोग जुहू बीच के पास आ गये तब तक बाबा की सारी बीडिय़ाँ खत्म हो चुकी थीं, और सारी गालियाँ भी! अचानक उनके चेहरे से ऐसी रौशनी फूटी जैसे साठ वाट का बल्ब जल गया हो। बहुत ज़ोर से मेरी कमर पर हाथ मारा और कहा, 'वापस।‘ जुहू कोली बाड़ा और उसके आस-पास बहुत सी छोटी मोटी गलियाँ हैं बाबा ऐसी एक गली में घुस गये। दूर-दूर तक अंधेरा था, दो बल्ब जल रहे थे मगर वह रौशनी देने के बजाये तन्हाई और सन्नाटे के एहसास को बढ़ा रहे थे। बाबा थोड़ी दूर चलते फिर रुक जाते, घरों को गौर से देखते और आगे बढ़ जाते।


अचानक वह रुक गये, सामने एक कम्पाउण्ड था जिसके अंदर दस-बारह घर दिखाई दे रहे थे। इनमें से कोई भी घर एक मंजि़ल से अधिक नहीं था और बीच में छोटा सा मैदान पड़ा था जिसमें एक कुआँ भी दिखाई दे रहा था। बाबा ने कहा 'यही है’ और गेट के अंदर घुस गये। मैं भी पीछे-पीछे था मगर डर रहा था कि आज ये हज़रत ज़रूर पिटवायेंगे। बाबा कम्पाउण्ड के बीच में खड़े हो गये। चारों तरफ सन्नाटा था। किसी घर में रौशनी नहीं थी। बाबा ने ज़ोर से आवाज़ लगाई, 'लारेन्स-लारेन्स’ अचानक एक झोपड़े नुमा घर में रोशनी जली, दरवाज़ा खुला और एक लम्बा-चौड़ा बड़ी सी तोंद वाला आदमी बाहर आया, जिसने एक गंदा सा नेकर और एक धारीदार बनियान पहन रखा था।


जैसे ही उसने बाबा को देखा एक अजीब सी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर फैल गयी, 'अरे बाबा। किधर है तुम? कितना टाइम के बाद आया है?’ ये कहते-कहते उसने बाबा को दबोच लिया और फिर ज़ोर-ज़ोर से गवानी भाषा में चीखने लगा। उसने बाबा का हाथ पकड़ा और अंदर की तरफ खींचने लगा, 'आओ आओ अंदर बैठो, चलो, चलो’ फिर वह मेरी तरफ मुड़ा 'आप भी आओ साब! आजाओ आजाओ अपना ही घर है।‘ हम तीनों एक कमरे में दाखिल हुए जहां दो तीन मेज़ें थीं, कुछ कुर्सियाँ और एक सोफा। अंदर एक दरवाज़ा था जिस पर परदा पड़ा हुआ था। बाबा पूछ रहे थे, 'कैसा है तू लारेन्स? माँ कैसी है? बच्चा लोग कैसा है?’


इतनी देर में अंदर का परदा खुला और बहुत से चेहरे दिखाई देने लगे। एक बूढ़ी औरत एक मैली सी मैक्सी पहने बाहर आई और बाबा के पैरों पर झुक गई। बाबा ने उसकी खैर खैरियत पूछी, बच्चों के सिर पे हाथ फेरा और जब ये हंगामा $खत्म हुआ तो लारेन्स ने पूछा, 'क्या पियेंगे बाबा?’


'व्हिस्की!’ बाबा ने कहा


लारेन्स अंदर गया और विहस्की की एक बोतल टेबिल पे ला के रख दी। इसके बाद दो गिलास थे, कुछ चने कुछ नमक, सोडे और पानी की बोतलें। बाबा ने पैग बनाया, लारेन्स अलादीन के जिन की तरह हाथ बांध कर सामने खड़ा हो गया, 'और क्या खाने का है बाबा? माँ मच्छी बनाती, और कुछ चाहिये तो बोलो कोमड़ी (मुर्गी) खाने का मूड है?’ बाबा ने मुझ से पूछा, 'बोलो बोलो भई क्या खाओगे?’


मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि बाबा की इतनी आव भगत क्यों हो रही है। अगर ऐसा भी होता कि वह लारेन्स के मुस्तिकल ग्राहकों में से एक होते तो भी रात के दो बजे ऐसी खातिर तो कहीं नहीं होती। यहां तो ऐसा लग रहा था जैसे बाबा अपनी ससुराल में आ गये हों।


थोड़ी देर में मछली भी आ गयी, उबले हुए अण्डे भी और पाव भी। बहरहाल मुझसे बरदाश्त नहीं हुआ, खाना खाते हुए मैंने बाबा से पूछा, 'बाबा अब इस राज़ से पर्दा उठा दीजिए कि इस लारेन्स और उसकी माँ से आपका क्या रिश्ता है?’


कहानी ये सामने आई कि वर्षों पहले जब बाबा अपनी हर शाम लारेन्स के अड्डे पर गुज़ारा करते थे तो एक दिन जब लारेन्स कहीं बाहर गया हुआ था तो उसकी माँ के पेट में दर्द उठा था, दर्द इतना तेज़ था कि वह बेहोश हो गयी थी। उस वक्त बाबा उसे अपने साथ लेकर अस्पताल पहुंचे, पता लगा कि अपेंडिक्स फट गया है, केस बहुत सीरियस था ऑपरेशन उसी वक्त होना था वरना मौत यकीनी थी। बाबा ने डॉक्टर से कहा आप ऑपरेशन की तैयारी कीजिये और न जाने कहां से और किन दोस्तों से पैसे जमा करके लाये, बुढिय़ा का ऑपरेशन कराया और जब लारेन्स अस्पताल पहुंचा तो उसे खुश खबरी मिली कि उसकी माँ मौत के दरवाजे पे दस्तक दे वापस आ चुकी है।


............ थैंक्स टु नियाज़ बाबा................


इस कहानी में एक खास बात ये है कि लारेन्स और उसकी माँ के बार-बार खुशामद करने के बाद भी बाबा ने वह पैसे कभी वापस नहीं लिये जो उन्होंने अस्पताल में भरे थे।


सुबह तीन बजे के करीब जब बाबा को लेकर बाहर निकल रहा था तो मैंने पलट कर देखा था, लारेन्स की माँ अपनी आँखें पोछ रही थी और लारेन्स अपने हाथ जोड़े सिर झुकाये इस तरह खड़ा था जैसे किसी चर्च में खड़ा हो। बाबा का एक मज़ेदार किस्सा हरी भाई (संजीव कुमार) ने मुझे सुनाया था।


जब तक विश्वामित्र आदिल बम्बई में रहे हर साल इप्टा की 'दावत-ए-शीराज़Ó उनके घर पर होती रही। हर नया और पुराना इप्टा वाला अपना खाना और अपनी शराब लेकर आता था और इस महफिल में शरीक होता था। सारी शराब और सारे खाने एक बड़ी सी मेज़ पर चुन दिये जाते और जिसका जो जी चाहता खा लेता और जो पसन्द आता वह पी लेता। ये एक अजीबो गरीब महफिल होती थी। जिसमें गाना, बजाना, नाचना, लतीफे, चुटकुले, ड्रामे सभी कुछ होता था। और बहुत कम ऐसे इप्टा वाले होते जो इसमें शरीक न होते हों। ऐसी ही एक 'दावते शीराज़Ó में हरी भाई नियाज़ बाबा से टकरा गये और जब पार्टी खत्म हो गई तो अपने साथ अपने घर ले गये। हरी भाई देर से सोते थे और देर से जागते थे। इसलिये वहाँ भी सुबह तक महफिल जमी रही। पता नहीं किस समय हरी भाई सोने के लिये चले गये और बाबा वहीं कालीन पे लेट गये। दूसरे दिन दोपहर में हरी भाई सोकर उठे और रोज़ाना की तरह तैयार होने के लिए अपने बाथरूम में गये। मगर जब उन्होंने पहनने के लिए अपने कपड़े उठाने चाहे तो हैरान हो गये, क्योंकि वहाँ बाबा का मैला कुर्ता पाजामा रखा हुआ था और हरी भाई का सिल्क का कुर्ता और लुंगी $गायब थे।


हरी भाई ने नौकर से पूछा तो यह बात मालूम हुई कि वह मेहमान जो रात को आये थे सुबह सवेरे नहा धोकर सिल्क का लुंगी कुर्ता पहन के रु$ख्सत हो चुके हैं।


कहानी यहाँ $खत्म नहीं होती है।


इस कहानी का दूसरा हिस्सा ये है कि कोई दो महीने बाद एक दिन अचानक नियाज़ बाबा हरी भाई के घर जा धमके और छूटते ही पूछा, 'अरे यार हरी! पिछली दफा जब हम आये थे तो अपना एक जोड़ा कपड़ा छोड़ गये थे वह कहाँ है?’ हरी भाई ने कहा, 'आपके कपड़े तो मैंने धुलवा के रख लिये हैं मगर आप जो मेरा लुंगी कुर्ता पहन के चले गये थे वह कहाँ है?’


बाबा ने बड़ी मासूमियत से अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरा, सिर खुजाया और बोले, 'हमें क्या मालूम तुम्हारा लुंगी कुर्ता कहाँ है? हम कोई एक जगह कपड़े थोड़ी बदलते हैं?’


हरी भाई जब भी ये किस्सा सुनाते थे बाबा का जुमला याद करके वे बेतहाशा हंसने लगते थे। बाबा के छोटे-मोटे चुटकुले तो इतने हैं कि किताब तैयार हो सकती है। मगर चलते-चलते एक ऐसा किस्सा सुन लीजिए जिससे उनके व्यक्तित्व के एक और पहलू पर प्रकाश पड़ता है।


एक दिन बाबा मिले तो बहुत खिले-खिले से थे, कुछ धुले-धुलाये भी लग रहे थे। मैंने वजह पूछी तो कहने लगे, 'अरे तुम्हें नहीं मालूम श्याम हम से अपनी फिल्म लिखवा रहा है।‘


पूछा, 'श्याम कौन?’


कहने लगे, 'ओफ्फोह श्याम बेनेगल और कौन? भई बहुत अच्छा आदमी है। जितना अच्छा डायरेक्टर है उससे भी ज़्यादा अच्छा इंसान है। उसने हमें अपने आफिस में एक मेज दे दी है और होटल में खाने का प्रबन्ध कर दिया है। सुबह जाते हैं तो मेज़ पर बीड़ी के दो बण्डल और माचिस भी मिलती है। और चाय तो दिन भर आफिस में बनती रहती है और क्या बतायें, हम आजकल ऐश कर रहे हैं।‘


मैंने बाबा को मुबारक बाद दी और दबी जुबान से कहा, 'आपको अपनी सलाहियत दिखाने का बेहतरीन मौका मिला है इसे बीच में छोड़ के भाग मत जाइयेगा जैसा कि आपकी आदत है।‘


कुछ दिन बाद की बात है, मैं शमा के घर बैठा हुआ था। हम दोनों किसी स्क्रिप्ट पर काम कर रहे थे कि अचानक आ धमके। न जाने कहाँ से आ रहे थे, बुरी तरह हांफ रहे थे और काफी उजड़े-उजड़े लग रहे थे। जब पानी वानी पी चुके थे तो हमने खैरियत पूछी, फरमाया, 'अजीब आदमी है बात को समझता ही नहीं है। अरे दो वक्त खाने और दो बण्डल बीड़ी से जि़न्दगी थोड़ी गुज़र सकती है।‘ शमा ने पूछा, 'क्या श्याम ने कुछ कह दिया बाबा’


'अरे कहे तो तब, जब सुने। वह सुनता ही नहीं।‘


'क्या नहीं सुनता।‘ मैंने पूछा


'अरे भई हमें पैसे की ज़रूरत पड़ती है और भी तो पचास ज़रूरतें हैं कि नहीं?’


शमा ने कहा, 'मगर ये बात तो मेरे सामने तय हुई थी कि आपको कैश नहीं दिया जायेगा, क्योंकि आप उसकी शराब पी डालेंगे! और काम अधूरा छोड़कर चले जायेंगे। बाबा, गुस्से में लाल हो गये, बीड़ी जो अभी-अभी सुलगाई थी उसे चाय की प्याली में बुझा दिया और गरजकर बोले, 'कैसे बातें करती हो शमा बीबी। हमारी शराब से हमारे काम का क्या ताल्लुक है? तुम ने तो देखा था बेगम साहिबा (बेगम कुदसिया ज़ैदी, शमा ज़ैदी की वालिदा) के लिये हमने कितना काम किया। क्या उन्होंने हमारी शराब बन्द करवाई थी?’


शमा अचानक बहुत ज़ोर से हंसी और मेरी तरफ मुड़ के बोली, 'तुम को मालूम है जावेद! हमारी अम्मा उनसे कैसे काम करवाती थी। इन्हें कमरे में बन्द कर देती थीं और खिड़की के बाहर उनकी पहुंच से दूर एक बोतल रख दिया करती थीं और कहती थी कि काम खत्म करोगे तभी ये बोतल तुम्हारे पास आयेगी। ये बहुत चीखते थे मगर हमारी अम्मी पर उनकी किसी बात का कोई असर नहीं होता था।‘


बाबा को भी पुराने दिन याद आ गये, 'बहुत ज़ोर से कहकहा लगाया और फरमाया, 'तो हम कहाँ कहते हैं कि काम के बीच में पीयेंगे मगर शाम के लिये तो पैसे मिलने ही चाहिये। पैसों पर हमें याद आया, अरे भाई बाहर एक टैक्सी खड़ी है उसका किराया भिजवा देना!’


मैं बाहर निकला, टैक्सी वाले से पूछा, 'किराया कितना हुआ?Ó


कहने लगा, 'एक सौ सत्तर रुपये’


'एक सौ सत्तर?’ मैंने हैरान होकर पूछा।


टैक्सी वाला बाहर निकल आया, 'आप खुद देख लो साब! मीटर अभी तक चल रहा है।‘ मुझे मालूम था कि बाबा वरली पर एक गेस्ट हाउस में रहते हैं मगर ये वह ज़माना था जब वरली से जुहू तक का टैक्सी का किराया पच्चीस तीस रुपये होता था, इसलिये एक सौ सत्तर सुनकर मेरी हैरत ठीक थी।


मीटर भी झूठ नहीं बोल रहा था, मगर ये कैसे हो सकता है। मैंने कहा, 'मगर मेरे भाई वरली से यहाँ तक इतने बहुत से पैसे कैसे हो सकते हैं?’ टैक्सी वाला चिढ़ गया, 'क्या बात करते हैं साब? सवेरे नौ बजे गाड़ी पकड़ी थी, किधर-किधर जाके आये हैं, साब मजगांव, माहिम, बान्द्रा और सब जगह पे मेरे को रोक के रखा।‘


मैं समझ गया और मैंने चुप-चाप एक सौ सत्तर रुपये अदा कर दिये मगर गुस्सा बहुत आया। ये क्या तरीका है, जेब में पैसे नहीं तो टैक्सी में घूमने की क्या ज़रूरत है, मगर वह ऐसी छोटी-छोटी बातों की परवाह करते तो नियाज़ हैदर काहे को होते।


श्याम बाबू को बुरा भला कहने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह कई महीनों जारी रहा। जब भी मिलते बेनेगल की शान में ऐसे $कसीदे पढ़ते कि लिखे नहीं जा सकते। शिकायत एक ही थी कि बाबा के चीखने चिल्लाने डराने धमकाने और खुशामद के बावजूद श्याम बेनेगल ने उन्हें पैसे नहीं दिये थे।


फिर एक दिन यूँ हुआ कि मैं रोजाना की तरह शमा के घर बैठा हुआ था जो एक तरीके से हमारा आफिस बन चुका था। एम.एस. सथ्यू भी बंगलौर से आये हुए थे और कुछ बहुत मज़ेदार बातें हो रही थीं कि बाबा प्रकट हो गये। उस दिन भी वह हांफ रहे थे और पसीने में तर थे। आते ही उन्होंने अपनी फूली हुई सांसों में श्याम को बुरा भला कहना शुरू कर दिया, 'मुझे आज तक किसी ने इतना परेशान नहीं किया जितना इस आदमी ने किया है। मेरी समझ में इसकी कोई भी बात नहीं आती।‘


'अब क्या कर दिया श्याम ने?’ शमा कुछ उखड़ सी गयीं।


बाबा बैठे से खड़े हो गये, जेब में हाथ डाला और दस हज़ार रुपये निकाल कर बोले, 'ये देखो इस नालायक आदमी ने ये रुपये मुझे थमा दिये। अब तुम बताओ मैं इनका क्या करूँ?’


हम तीनों एक दूसरे का मुँह देखने लगे। क्या आदमी है भई, नहीं मिला था तो भी नाराज़ और अब मिलने पर भी नाराज़। शमा ने कहा, 'ये आपके काम की मेहनत है खर्च कीजिए!’ 'वही तो पूछ रहा हूँ कहाँ खर्च करूँ?’ बाबा ने पूछा। सथ्यू ने अपनी दाढ़ी खुजाई और कुछ सोचते हुए बोले 'आपको किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है क्या?’ बाबा ने कहा, 'ऐसी कोई ज़रूरत नहीं है कि इतने बहुत से पैसों की ज़रूरत पड़े।‘ शमा ने राय दी, 'सबसे पहले तो आप अपने लिये कुछ कपड़े बनवा लीजिए’


बाबा खुश हो गये, कहने लगे, 'हाँ ये बहुत अच्छी बात है। हमारे पास दो ही कुरते रह गये हैं।‘


'और कुछ’ सथ्यू ने पूछा।


वह कुछ देर सोचते रहे फिर बोले, 'हैदराबाद में मेरी एक बहन रहती हैं, अगर किसी सूरत से उनका पता मालूम हो सके तो एक हज़ार रुपये उनको भिजवा दूँ। 'और कुछ?’ 'और कुछ नहीं।‘


'तो एक काम करते हैं।‘ सथ्यू ने कहा, 'हज़ार बहन के, पन्द्रह सौ कपड़े के और ये बाकी के साढ़े सात हज़ार रुपये बैंक में जमा करा देते हैं।‘


'मगर बैंक में तो हमारा खाता नहीं है।‘ 'ये कौन सी बड़ी बात है?’ सथ्यू ने कहा 'चलिये उठिये।‘


सथ्यू बाबा को लेकर अपने बैंक में गये और पूरे साढ़े सात हज़ार रुपये जमा करके बाबा को भी सरमायादारों की फेहरिस्त में खड़ा कर दिया। आपको लग रहा होगा कि ये दिलचस्प कहानी यहाँ खत्म हो गयी। जी नहीं! इसका आिखरी हिस्सा बाकी है।


इस घटना के कोई तीन महीने बाद एक दिन दोपहर बाद नियाज़ बाबा शमा के घर में इस तरह दाखि़ल हुए कि उनके आगे-आगे एक दस ग्यारह बरस का लड़का उनका झोला और डण्डा उठाये हुए चल रहा था और पीछे एक पतली-दुबली खादी की सफेद साड़ी में लिपटी हुई सांवली सी लड़की थी जिसकी उम्र सत्ताईस से अधिक न होगी।


ये बात तो फौरन समझ में आ गयी कि अपना वजन उठाने के लिये बाबा ने एक छोकरा रख लिया है मगर ये लड़की कौन है? जो खादी की सफेद साड़ी में कांग्रेस सेवा दल की वर्कर मालूम होती है। वह लड़का तो बाबा का सामान रख के किचन की तरफ िखसक गया, बाबा खुद दीवान पर फैल कर बैठ गये और लड़की से कहने लगे, 'जाओ-जाओ तुम अंदर चली जाओ और आराम करो, बहुत थक गयी हो।‘


वह लड़की भी बगैर एक शब्द कहे हुए शमा के बेडरूम में गयी और बिस्तर पर जाके लेट गयी।


दिल में तरह-तरह के $ख्याल आ रहे थे। कहीं अनहोनी तो नहीं हो गयी, बड़े मियाँ ने इस उम्र में किसी का हाथ तो नहीं थाम लिया। मुझे बाबा की हालत भी बेहतर लग रही थी, कपड़े साफ सुथरे थे और इस्तरी किये हुए थे, दाढ़ी और बालों पर कैंची चलने के आसार दिखाई दे रहे थे। चेहरे पर वैसी ही चमक थी जैसी पुराने पीतल पे पालिश करने के बाद आती है। हद तो ये थी कि उनके गंदे मैले नाखून भी कटे हुए थे।


बाबा थे कि लहक-लहक कर इधर-उधर की बातें कर रहे थे मगर मेरे दिमाग में वही लड़की घूम रही थी जो अंदर सो रही थी। जब सस्पेंस बहुत अधिक बढ़ गया तो शमा ने मुझे इशारा किया और मैंने पूछ ही लिया, 'बाबा ये साहिबज़ादी कौन हैं?’


'ये! ये मेरी मीरा है। बहुत पढ़ी लिखी लड़की है, इसने हिन्दी, इंगलिश और संस्कृत में एम.ए. किया है। ट्रिपल एम.ए. है।‘


'मगर आपके साथ?’


बाबा ने शमा को इस तरह घूरा जैसे उन्होंने कोई बहुत ही बेहूदा सवाल किया हो।


बोले, 'सिक्रेटी है मेरी’


'सिके्रटी’ हम दोनों को हैरत का ऐसा झटका लगा कि कुछ बोला ही नहीं गया।


बाबा बड़े प्यार से बता रहे थे, 'दिल्ली में मिली थी, मैं अपने साथ ले आया। सारा डिक्टेशन लेती है, नोट्स भी बनाती है, इसकी वजह से काम बहुत आसान हो गया है।‘ पता चला कि बात सिर्फ सिक्रेट्री तक ही महदूद नहीं है, बाबा ने एक मराठी फैमिली को भी अपने साथ रख लिया है जिसका बेटा बाबा का झोला डण्डा उठा के चलता है और बच्चे के माँ-बाप बाबा के खाने कपड़े और दूसरी आवश्यकताओं के इंचार्ज बने हुए हैं।


दूसरे शब्दों में इन दिनों बाबा बहुत ही बेहतर जि़न्दगी गुज़ार रहे थे।


इस मुलाकात को सिर्फ तीन माह गुज़रा कि एक दिन बाबा फिर अपने पुराने हुलिये में दिखाई दिये। वही झाड़-झंकाड़ दाढ़ी, उलझे हुए बाल और मैले कपड़े। आते ही फरमाया, ज़रा टैक्सी का किराया भिजवाना।


किराया अधिक नहीं था इसलिये चुप-चाप दे दिया गया। फिर बाबा से पूछा गया कि गर्दिश-ए-अय्याम (परेशानी के दिन) पीछे की तरफ कैसे दौड़ गयी? वह आपके नौकर चाकर और वह सिक्रेट्री कहाँ हैं? कुछ नाराज़ से हो गये, कहने लगे 'चली गयी।‘ पूछा, 'कहाँ चाले गयी?’


कहने लगे, 'मुझे क्या मालूम? दो महीने तनख्वाह नहीं मिली तो मीरा भी चली गई।‘


शमा ने कहा, 'पैसे तो थे आपके बैंक में?’ बाबा कुछ ज़्यादा ही नाराज़ हो गये, 'कैसी बातें करती हो बीबी? साढ़े सात हज़ार रुपये में इतनी बरकत थोड़ी होती है कि हज़ार रुपये महीने की सिक्रेट्री और पन्द्रह सौ रुपये महीने के नौकर रखे जा सकें।‘


शराब बाबा की बहुत सी कमज़ोरियों में से एक थी। जैसे मिले, जितनी मिले, जहाँ भी मिले, मिलनी चाहिए। हैरत की बात ये थी कि वह ठर्रा पीयें या स्कॉच, उन्हें नशा नहीं होता था। या यूँ कहना चाहिये कि कम से कम मैंने उन्हें कभी नशे में नहीं देखा। हालाँकि पीने बैठते थे तो अच्छी खासी पी लिया करते थे और पिलाने वाले को टोकते भी जाते थे, 'कल के लिए कर आज न कंजूसी शराब में।‘


मुहर्रम के दस दिन छोड़ के हर रोज़ शाम को मुम्बई वालों के अनुसार उनकी घण्टी बज जाया करती है और फिर वह तब तक दम न लेते थे जब तक सागर व मीना उनके सामने न आ जाये।


अब कोई पूछे कि नियाज़ हैदर जैसा नास्तिक मुहर्रम क्यों मानता था? और दस दिन तक काले कपड़े क्यों पहनता था। तो मेरे पास इसका जवाज़ (तर्क) है, न जवाब। मैं तो बस यही समझता हूँ कि नियाज़ बाबा का व्यक्तित्व जिन विरोधाभासों के ताने बाने से तैयार किया गया था, ये अमल भी उसका एक हिस्सा था।


एक शाम मैंने डरते-डरते पूछ ही लिया, 'जब आप पर असर ही नहीं होता है तो पीते क्यों हैं?’


मुस्कराये, और बोले,


मय से गरज़ निशात है किस रू सियाह को


यक गोना बे खुदी मुझे हर रात चाहिये।


मैंने कहा, 'लीवर खराब करने से क्या फायदा? आपको नशा तो होता ही नहीं है जिसके लिये लोग शराब पीते हैं’


बाबा बहुत फलसफयाना मूड में थे। कहने लगे, 'ब्रादर! नशा इंसानी दिमाग की एक कैिफयत का नाम है, ये किसी चीज़ में नहीं होता और ये बात मुझसे अधिक कोई और नहीं जानता। क्योंकि ऐसा कोई नशा नहीं हैं, सिवाये एक के, जो मैंने नहीं किया बल्कि मथुरा के साधुओं के साथ बैठकर धतूरे के लड्डू खा चुके हैं और निहंग सरदारों के साथ पत्थर पर संखिया की लकीरें खींच कर उन्हें ज़बान से चाट चुके हैं।


'संखिया? ये न थी हमारी िकस्मत कि विसाले-यार होता। फिर ज़रा विस्तार से बताया कि संखिया चाटना हर ऐरे-गैरे के बस का नहीं।


पत्थर पर संखिया से लकीरे खींच दी जाती हैं जो तीन से पांच इंच लम्बी होती हैं। इस नशे के शौकीन अपनी आवश्यकता और क्षमता के हिसाब से इन लकीरों को ज़बान से चाट लेते हैं। अधिकतर लोग तीसरी लकीर तक पहुंचते-पहुंचते ढेर हो जाते हैं। सुना है कि कुछ सूरमा सात लकीरों का रिकार्ड भी बना चुके हैं।


'कैसा होता है संखिया का नशा?’


'किसी भी नशे को बयान करना बड़ा मुश्किल काम है। क्योंकि शब्द एहसास को बयान नहीं कर सकते।‘ 'और वह कौन सा नशा है जो आपने नहीं किया?’


'कुछ लोग नशे के लिए अपने आप को सांप से डसवाते हैं। मगर मैं ये हरकत कभी नहीं कर सकता।‘, 'क्यों? क्या आपको सांपों से डर लगता है?, 'डर तो नहीं लगता मगर बहुत गंदे लगते हैं।, 'बहुत से लोग तो आस्तीनों में सांप रखते हैं?


'वह भी बहुत गंदे होते हैं।


तो ऐसे थे हमारे नियाज़ बाबा!


1988 ई. में बाबा दिल्ली में थे,


एक दिन फोन आया, बहुत जोश में थे कहने लगे 'जावेद मियाँ। हमें मकान मिल गया है, हमारा अपना मकान अरे सरकार ने दिया है भाई! तुम दिल्ली आओ तो हमारे ही पास ठहरना, बल्कि एक काम करो तुम और शमा आजकल जिस स्क्रिप्ट पर काम कर रहे हो उसे लेकर आ जाओ। बड़ी मज़ेदार सर्दियाँ हैं, अंगीठी जल रही है, शराब भी चल रही है मगर कोई दोस्त पास नहीं है। बल्कि हम तो कहते हैं कि दुल्हन और बच्चों को भी ले आओ, हमारा घर आबाद हो जायेगा। तो तुम लोग आ रहे हो न?’


मैं बहुत खुश हुआ कि सारी उम्र भटकने के बाद बाबा को एक घर मिल ही गया जिसे वह अपना कह सकते हैं। मैंने आने का वादा भी कर लिया और इरादा भी।


फरवरी 1989 ई. में अचानक खबर आई कि बाबा जिस घर को लेकर इतना खुश हो रहे थे, उन्होंने वह भी छोड़ दिया और एक ऐसे मकान में चले गये जहाँ उनके अलावा कोई और नहीं रह सकता।


किसी ने सच ही कहा है, 'बंजारे के सिर को पक्की छत रास नहीं आती!’


(लिप्यंतरण- शकील सिद्दीकी)


जावेद सिद्दीकी थियेटर और सिने जगत का चर्चित नाम है। थियेटर और सिनेमा, दोनों क्षेत्रों में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। इप्टा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं तथा नियाज़ हैदर का लम्बा सान्निध्य उन्हें प्राप्त रहा है।
































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