रंग और उजास

रंग और उजास

शुक्रवार, अप्रैल 30, 2010

सपने के पीछे ज़िद..



शीर्षक हमारा सपना था, हम यानि ओम, आशीष और मैं. ओम तब ओम पथिक हुआ करते थे, आशीष तब कुमार आशीष होते थे और मैं खुद क्षितिज विवेक हुआ करता था. ये सपना मध्यप्रदेश के रीवा में तब के हम बच्चों की आँखों में अंखुआया था.
रीवा जो तब कस्बानुमा शहर था और शायद अब भी, वैसे तो यह मध्य्रप्रदेश के नक्शे में संभागीय मुख्यालय था पर सतना जिला मुख्यालय तब भी हमसे (रीवा से) अधिक विकसित,व्यवस्थित और अधिक व्यावसायिक शहर था और आज भी है. पर रीवा अपनी अकादमिक संस्थाओं और साहित्यिक सक्रियता के लिए तब भी अलग से पहचाना जाता था और आज भी है. ऐसा नहीं था कि हमारे इस कस्बे में पान की दुकानें कम थीं या फिल्मों में समय काटने के लिए टॉकीज़ें कम थीं पर हमारे अड्डे में, तब जब कमला प्रसाद जी वहां थे तो उनका घर F-20, सिविल लाइन्स या सेवाराम जी (जो बाद में मेरे अध्यापक भी बने) का घर B-14,टी आर एस कैम्पस, जो कुमार आशीष का भी घर था, (जहां मैंने अपने घर के बाद सबसे ज्यादा समय बिताया) हुआ करता था. इसी शहर में हमने नामवर सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, रमेश कुंतल मेघ, राजेन्द्र यादव और काशीनाथ सिंह, विष्णु खरे, भगवत रावत, चंद्रकांत देवताले, राजेश जोशी से ले कर बद्रीनारायण जैसे जाने कितने बड़े-बड़े नामों को जाना.

कॉलेज के शुरुआती दिनों में ही कहीं युवा उत्सव के रंगमंच से ले कर इप्टा में आशीष और ओम की सक्रियता के बीच, हनुमंत किशोर,राजेश दादा, सुमन सिंह के कालिगुला की टीम से मेरे परिचय के साथ कुछेक रंगमंच की गतिविधियों के समानांतर मेरे लिए शीर्षक की योजना एक सपने की तरह मेरे सामने आयी. हस्तलिखित शीर्षक की आरंभिक योजना बनाने के लिए सबसे बड़ी सुविधा थी कि ओम की हैण्डराइटिंग बहुत बढ़िया थी, पर पेप्सी के विज्ञापन के पहले भी हमारा दिल मोर मांगता था, मैं अपनी तरह से जुटा रहा कि कुछ व्यवस्था बने तो शीर्षक का अंक बकायदा प्रकाशित हो सके.. कुछ स्थानीय व्यावसायिक सहयोग के भरोसे हम ने मामला आगे भी बढ़ाया और युवा रचनाशीलता पर केंद्रित शीर्षक के दो अंक बड़ी धूम-धाम से निकले भी... पर हम दो ही अंकों में बिखर गये... कारण कुछ आर्थिक.. कुछ हमारी आपसी समझदारी..
कुल मिला कर एक सपना ज़िंदगी की और ज़रुरतों के बीच दब गया.
1993 के बाद शीर्षक के अंक स्मृति की बातें बन कर रह गये... हमारी टीम को कुछ करने के नाम इस बीच वसुधा भी रीवा आ गई और फिर लगा कि यहीं कुछ सीखा जाए.. प्रकारांतर से हम लड़कों की टोली भी वसुधा की टीम हो गई. कुछ दिनों बाद कमला प्रसाद जी के साथ वसुधा तो खैर भोपाल गई पर हमारी सक्रियता जाने और कहां... जो बात पीछे छूटी, वो कुछ टीसी भी, पर ईमानदार हो कर कहें तो प्राथमिकतायें भी कुछ बदल गईं..
इसे कोई कहानी या संस्मरण की तरह की पोस्ट मत समझिये. ये तो सिर्फ एक ज़िद के फिर सिर उठाने के बहाने की याद भर है. ब्लागिंग के ख्याल के साथ, पहले एक-दो प्रयास के बाद शीर्षक के सपने ने फिर अंगड़ाई ली है...
अब बातें तो बहुत हैं पर धीरे-धीरे सिलसिलेवार ढंग से आगे चलेंगी अगर सब चाहेंगें तो...

8 टिप्‍पणियां:

  1. to pyare aakhir bazee ek bar fir tumhin ne maree.badhee ho.ham vaise hi tumhare sath hain jaise pahle the. dhyan rahe SATH,aage kataee nahin.

    to mera hath tumhare hath hai.aur ye ahsas bhi ki LE CHALO JAHAN CHALNA HAI.

    SWAGAT HAI.

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  2. Ab der kis baat ki hai...21 veen sadi ka pahla ank fatafat nikaal dijiye....agrim badhai

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  3. बिल्कुल चलिए...स्वागत है आपका यहाँ.

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